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'''मिर्ज़ा दाग देहलवी''' (जन्म- [[25 मई]], 1831, [[दिल्ली]]; मृत्यु- [[1905]], [[हैदराबाद]]) को [[उर्दू]] जगत में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरियों में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग देहलवी की शायरी इश्क और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
'''नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ''' (जन्म- [[25 मई]], 1831, [[दिल्ली]]; मृत्यु- [[1905]], [[हैदराबाद]]) को [[उर्दू]] जगत में एक शायर के रूप में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। इन्हें 'दाग़ देहलवी' के नाम से भी जाना जाता है। उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरियों में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग देहलवी की शायरी इश्क और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
==जन्म तथा परिवार==
==पारिवारिक परिचय==
[[मुग़ल]] बादशाह शाहआलम, जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी जमाने में पठानों का एक खानदान समरकंद से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भारत आया था। यह खानदान कुछ महीने तक जमीं-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर दिल्ली के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया। इस खानदान की दूसरी पीढ़ी में एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ [[अलवर]] के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाता है, जो राजा की और से [[भरतपुर]] के राजा के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाता है। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे फ़िरोजपुर और झरका की जागीरें इनाम में दे देता है।
[[मुग़ल]] [[शाहआलम प्रथम|बादशाह शाहआलम]], जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी जमाने में [[पठान|पठानों]] का एक खानदान [[समरकंद]] से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में [[भारत]] आया था। यह खानदान कुछ महीने तक जमीं-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर [[दिल्ली]] के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया। इस खानदान की दूसरी पीढ़ी का एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ ने [[अलवर]] के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाया, जो राजा की और से [[भरतपुर]] के राजा के ख़िलाफ़ [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाता है। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे [[फ़िरोजपुर]] और झरका की जागीरें इनाम में दे देता है।<ref name="ab">{{cite web |url=http://jakhira.com/2010/08/biography-daag-dehlavi/|title=परिचय- दाग़ देहलवी|accessmonthday= 12 मार्च|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====पिता की फाँसी====
अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी [[अलवर]] की मेवातन बीवी से उत्पन्न हुआ था, उसने जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचने लगा। लेकिन उसकी इस साजिश का पता अंग्रेज़ सरकार को लग गया और उसे 1835 ई. में फाँसी दे दी गई। मिर्ज़ा दाग़ देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू [[ग़ज़ल]] के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने [[पिता]] की फाँसी के समय मिर्ज़ा दाग़ देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग़ देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग़ देहलवी अपने मौसी के जहाँ रहे।
==शिक्षा-दीक्षा==
कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम ने आखिरी [[मुग़ल]] बादशाह बहादुरशाह ज़फर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रू से विवाह कर लिया, तब दाग़ देहलवी भी लाल क़िले में रहने लगे। यहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का अच्छा प्रबन्ध हो गया था। दाग देहलवी ने लाल क़िले में बारह वर्ष बिताए, लेकिन यह सब विलासिता मिर्ज़ा फ़ख़रू के देहांत के बाद इनके पास नहीं रही। बूढ़े बादशाह [[बहादुरशाह ज़फर]] की जवान मलिका जीनतमहल की राजनीति ने लाल क़िले में उन्हें रहने नहीं दिया। इस बार उनके साथ उनकी माता वजीर बेगम और साथ ही माता की कुछ जायज और नाजायज संताने भी थीं। मिर्ज़ा फ़ख़रू से मिर्ज़ा मोहम्मद खुर्शीद के अतिरिक्त, आगा तुराब अली से, जिनके यहाँ वजीर बेगम शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद कुछ दिन छुपी थीं आगा मिर्ज़ा शगिल और [[जयपुर]] के एक अंग्रेज़ से भी एक लड़का अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की बादशाह बेगम शामिल थीं।<ref name="ab"/>
==शायरी की शुरुआत==
लाल क़िले में बारह वर्ष रहते हुए दाग देहलवी ने अपनी शायरी से उस युग के बुजुर्ग शायरों, जैसे- [[ग़ालिब]], मौमिन, जौक, शेफ़्ता को ही नहीं चौकाया अपितु अपनी सीधी-सहज भाषा और उसके नाटकीय आकर्षण ने आम लोगों को भी उनका प्रशंसक बना दिया। इनकी [[ग़ज़ल]] के इस रूप ने [[भाषा]] को वह मंझाव और पारदर्शिता दी, जिसमे बारीक़ से बारीक़ ख्याल के इज़हार की नयी सम्भनाएँ थीं। ग़ालिब भी दाग के इस अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। दाग के एक जीवनी लेखक निसार अली शोहरत से उन्होंने एक बार कहा था- "दाग भाषा को न सिर्फ़ पाल रहा है, बल्कि उसे तालीम भी दे रहा है।"
====रचनात्मक क्षमता====
दाग़ की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी। उनका एक दीवान [[1857]] की लूटमार की भेट चढ गया था। दूसरा उनके [[हैदराबाद]] के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ के पाँच दीवान 'गुलजार दाग़', 'महताब-ए-दाग़', 'आफ़ताब-ए-दाग़', 'यादगार-ए-दाग़', 'यादगार-ए-दाग़- भाग-2', जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें, अनेकों मुक्तक, [[रुबाई|रुबाईयाँ]], सलाम मर्सिये आदि शामिल थे। इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी<ref>खंडकाव्य</ref> भी 'फरियादे दाग़' के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाजारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। यहाँ तक की [[फ़िराक़ गोरखपुरी]] जैसा समझदार आलोचक भी हुआ। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों, [[कव्वाली|कव्वालियों]], अय्याशियों, अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं, दाग़ के बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे। इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी [[ग़ज़ल]] की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी, जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे। उनकी शायरी में उनके व्यक्तित्व की भाँति, जिसमें आशिक, नजाराबाज़, [[सूफ़ी मत|सूफ़ी]], फनकार, दुनियादार, अतीत, वर्तमान एक साथ जीते-जागते हैं, कई दिशाओं का सफरनामा है। ये शायरी जिन्दा आदमी के विरोधाभासों का बहुमुखी रूप है, जिसे किसी एक चेहरे से पहचान पाना मुश्किल है।<ref name="ab"/>
<blockquote><poem>काबे की है हवास कभी कूए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिटटी कहाँ की है।</poem></blockquote>


अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी अलवर की मेवातन बीवी से उत्पन्न हुआ था, जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचता है। इस जुर्म में उसे 1835 ई. में फाँसी दे दी जाती है। मिर्ज़ा दाग देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता की फाँसी के समय मिर्ज़ा दाग देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग देहलवी अपने मौसी के जहाँ रहे। कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के होने वाले उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रुद्दीन से मिली, तब वे अपने बेटे से भी मिल पाई।


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10:28, 12 मार्च 2013 का अवतरण

नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ (जन्म- 25 मई, 1831, दिल्ली; मृत्यु- 1905, हैदराबाद) को उर्दू जगत में एक शायर के रूप में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। इन्हें 'दाग़ देहलवी' के नाम से भी जाना जाता है। उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरियों में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग देहलवी की शायरी इश्क और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।

पारिवारिक परिचय

मुग़ल बादशाह शाहआलम, जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी जमाने में पठानों का एक खानदान समरकंद से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भारत आया था। यह खानदान कुछ महीने तक जमीं-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर दिल्ली के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया। इस खानदान की दूसरी पीढ़ी का एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ ने अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाया, जो राजा की और से भरतपुर के राजा के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाता है। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे फ़िरोजपुर और झरका की जागीरें इनाम में दे देता है।[1]

पिता की फाँसी

अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी अलवर की मेवातन बीवी से उत्पन्न हुआ था, उसने जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचने लगा। लेकिन उसकी इस साजिश का पता अंग्रेज़ सरकार को लग गया और उसे 1835 ई. में फाँसी दे दी गई। मिर्ज़ा दाग़ देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता की फाँसी के समय मिर्ज़ा दाग़ देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग़ देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग़ देहलवी अपने मौसी के जहाँ रहे।

शिक्षा-दीक्षा

कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम ने आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रू से विवाह कर लिया, तब दाग़ देहलवी भी लाल क़िले में रहने लगे। यहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का अच्छा प्रबन्ध हो गया था। दाग देहलवी ने लाल क़िले में बारह वर्ष बिताए, लेकिन यह सब विलासिता मिर्ज़ा फ़ख़रू के देहांत के बाद इनके पास नहीं रही। बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ज़फर की जवान मलिका जीनतमहल की राजनीति ने लाल क़िले में उन्हें रहने नहीं दिया। इस बार उनके साथ उनकी माता वजीर बेगम और साथ ही माता की कुछ जायज और नाजायज संताने भी थीं। मिर्ज़ा फ़ख़रू से मिर्ज़ा मोहम्मद खुर्शीद के अतिरिक्त, आगा तुराब अली से, जिनके यहाँ वजीर बेगम शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद कुछ दिन छुपी थीं आगा मिर्ज़ा शगिल और जयपुर के एक अंग्रेज़ से भी एक लड़का अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की बादशाह बेगम शामिल थीं।[1]

शायरी की शुरुआत

लाल क़िले में बारह वर्ष रहते हुए दाग देहलवी ने अपनी शायरी से उस युग के बुजुर्ग शायरों, जैसे- ग़ालिब, मौमिन, जौक, शेफ़्ता को ही नहीं चौकाया अपितु अपनी सीधी-सहज भाषा और उसके नाटकीय आकर्षण ने आम लोगों को भी उनका प्रशंसक बना दिया। इनकी ग़ज़ल के इस रूप ने भाषा को वह मंझाव और पारदर्शिता दी, जिसमे बारीक़ से बारीक़ ख्याल के इज़हार की नयी सम्भनाएँ थीं। ग़ालिब भी दाग के इस अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। दाग के एक जीवनी लेखक निसार अली शोहरत से उन्होंने एक बार कहा था- "दाग भाषा को न सिर्फ़ पाल रहा है, बल्कि उसे तालीम भी दे रहा है।"

रचनात्मक क्षमता

दाग़ की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी। उनका एक दीवान 1857 की लूटमार की भेट चढ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ के पाँच दीवान 'गुलजार दाग़', 'महताब-ए-दाग़', 'आफ़ताब-ए-दाग़', 'यादगार-ए-दाग़', 'यादगार-ए-दाग़- भाग-2', जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें, अनेकों मुक्तक, रुबाईयाँ, सलाम मर्सिये आदि शामिल थे। इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी[2] भी 'फरियादे दाग़' के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाजारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। यहाँ तक की फ़िराक़ गोरखपुरी जैसा समझदार आलोचक भी हुआ। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों, कव्वालियों, अय्याशियों, अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं, दाग़ के बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे। इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी, जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे। उनकी शायरी में उनके व्यक्तित्व की भाँति, जिसमें आशिक, नजाराबाज़, सूफ़ी, फनकार, दुनियादार, अतीत, वर्तमान एक साथ जीते-जागते हैं, कई दिशाओं का सफरनामा है। ये शायरी जिन्दा आदमी के विरोधाभासों का बहुमुखी रूप है, जिसे किसी एक चेहरे से पहचान पाना मुश्किल है।[1]

काबे की है हवास कभी कूए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिटटी कहाँ की है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 परिचय- दाग़ देहलवी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 मार्च, 2013।
  2. खंडकाव्य

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