"कामधेनु": अवतरणों में अंतर

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महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री [[विश्वामित्र]] उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।
महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री [[विश्वामित्र]] उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।


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==संबंधित लेख==


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13:13, 3 अप्रैल 2013 का अवतरण

कामधेनु और ब्राह्मण
Kamadhenu And Brahmin

कामधेनु का वर्णन पौराणिक गाथाओं में एक ऐसी चमत्कारी गाय के रूप में मिलता है जिसमें दैवीय शक्तियाँ थी और जिसके दर्शन मात्र से ही लोगो के दुःख व पीड़ा दूर हो जाती थी यह कामधेनु जिसके पास होती थी उसे हर तरह से चमत्कारिक लाभ होता था। उसका दूध अमृत के समान था।

कृष्ण कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु माँगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए।

जैसे देवताओं में भगवान विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय, भक्तों में नारद, सभी पुरियों में कैलाश, सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र श्रेष्ठ है, वैसे ही गऊओं में कामधेनु सर्वश्रेष्ठ है।

कामधेनु सबका पालन करने वाली है। माता स्वरूपिणी हैं- सब इच्छाएँ पूर्ण करने वाली है।

जब भगवान विष्णु स्वयं कच्छपरूप धारण करके मन्दराचल के आधार बनें। इस प्रकार मन्थन करने पर क्षीरसागर से क्रमश: कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ्रमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, वारुणी, चन्द्रमा, शंख, शांर्ग धनुष धनवन्तरि और अमृत प्रकट हुए।

क्षीर-समुद्र का मन्थन

मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े ज़ोर की आवाज़ उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा- 'आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।' ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान- ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।

कथा: शिव द्वारा दिव्यास्त्र

बड़े होने पर परशुराम ने शिवाराधन किया। उस नियम का पालन करते हुए उन्होंने शिव को प्रसन्न कर लिया। शिव ने उन्हें दैत्यों का हनन करने की आज्ञा दी। परशुराम ने शत्रुओं से युद्ध किया तथा उनका वध किया। किंतु इस प्रक्रिया में परशुराम का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि शरीर पर जितने प्रहार हुए हैं, उतना ही अधिक देवदत्व उन्हें प्राप्त होगा। वे मानवेतर होते जायेंगे। तदुपरान्त शिव ने परशुराम को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किये, जिनमें से परशुराम ने कर्ण पर प्रसन्न होकर उसे दिव्य धनुर्वेद प्रदान किया।

गाय

जमदग्नि ऋषि ने रेणुका के गर्भ से अनेक पुत्र प्राप्त किए। उनमें सबसे छोटे परशुराम थे। उन दिनों हैहयवंश का अधिपति अर्जुन था। उसने विष्णु के अंशावतार दत्तात्रेय के वरदान से एक सहस्र भुजाएँ प्राप्त की थीं। एक बार नर्मदा में स्नान करते हुए मदोन्मत्त हैहयराज ने अपनी बाँहों से नदी का वेग रोक लिया, फलतः उसकी धारा उल्टी बहने लगी, जिससे रावण का शिविर पानी में डूबने लगा। दशानन ने अर्जुन के पास जाकर उसे भला-बुरा कहा तो उसने रावण को पकड़कर कैद कर लिया। पुलस्त्य के कहने पर उसने रावण को मुक्त कर दिया। एक बार वह वन में जमदग्नि के आश्रम पर पहुँचा। जमदग्नि के पास कामधेनु थी। अतः वे अपरिमित वैभव क भोक्ता थे। ऐसा देखकर हैहयराज सहस्र बाहु अर्जुन ने कामधेनु का अपहरण कर लिया। परशुराम ने फरसा उठाकर उसका पीछा किया तथा युद्ध में उसकी समस्त भुजाएँ तथा सिर काट डाले। उसके दस हज़ार पुत्र भयभीत होकर भाग गये। कामधेनु सहित आश्रम लौटने पर पिता ने उन्हें तीर्थाटन कर अपने पाप धोने के लिए आज्ञा दी क्योंकि उनकी मति में ब्राह्मण का धर्म क्षमादान है। परशुराम ने वैसा ही किया।

दिलीप अंशुमान के पुत्र और अयोध्या के राजा थे। दिलीप बड़े पराक्रमी थे यहाँ तक के देवराज इन्द्र की भी सहायता करने जाते थे। इन्होंने देवासुर संग्राम में भाग लिया था। वहाँ से विजयोल्लास से भरे राजा लौट रहे थे। रास्ते में कामधेनु खड़ी मिली लेकिन उसे दिलीप ने प्रणाम नहीं किया तब कामधेनु ने श्राप दे दिया कि तुम पुत्रहीन रहोगे। यदि मेरी सन्तान तुम्हारे ऊपर कृपा कर देगी तो भले ही सन्तान हो सकती है। श्री वसिष्ठ जी की कृपा से उन्होंने नन्दिनी गौ की सेवा करके पुत्र श्री रघु जी को प्राप्त किया।

वसिष्ठ का आतिथ्य ग्रहण

महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।


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