"जानकी वल्लभ शास्त्री": अवतरणों में अंतर
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10:35, 14 मई 2013 का अवतरण
जानकी वल्लभ शास्त्री
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पूरा नाम | जानकी वल्लभ शास्त्री |
जन्म | 5 फरवरी 1916 |
जन्म भूमि | गया, बिहार |
मृत्यु | 7 अप्रैल 2011 |
मृत्यु स्थान | मुज़फ्फरपुर, बिहार |
पति/पत्नी | छाया देवी |
कर्म-क्षेत्र | साहित्य |
मुख्य रचनाएँ | राधा, काकली, कालिदास आदि |
भाषा | हिन्दी |
पुरस्कार-उपाधि | राजेंद्र शिखर पुरस्कार, भारत भारती पुरस्कार, शिव सहाय पूजन पुरस्कार |
प्रसिद्धि | कवि, लेखक |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | जानकी वल्लभ शास्त्री का पहला गीत 'किसने बांसुरी बजाई' बहुत लोकप्रिय हुआ। |
अद्यतन | 15:07, 10 अप्रॅल 2012 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
जानकी वल्लभ शास्त्री (अंग्रेज़ी: Janaki Ballabh Shashtri, जन्म: 5 फरवरी 1916 - मृत्यु: 7 अप्रैल 2011) प्रसिद्ध कवि थे। जानकी वल्लभ शास्त्री उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित भी किया है उन थोड़े-से कवियों में रहे हैं, जिन्हें हिंदी कविता के पाठकों से बहुत मान-सम्मान मिला है। आचार्य का काव्य संसार बहुत ही विविध और व्यापक है। प्रारंभ में उन्होंने संस्कृत में कविताएँ लिखीं। फिर महाकवि निराला की प्रेरणा से हिंदी में आए।
जन्म
जानकी वल्लभ शास्त्री का जन्म 5 फरवरी 1916 में बिहार के मैगरा गाँव में हुआ था। इनके पिता स्व. रामानुग्रह शर्मा था। उन्हें पशुओं का पालन करना बहुत पसंद था। उनके यहाँ दर्जनों गउएं, सांड, बछड़े तथा बिल्लियाँ और कुत्ते थे। पशुओं से उन्हें इतना प्रेम था कि गाय क्या, बछड़ों को भी बेचते नहीं थे और उनके मरने पर उन्हें अपने आवास के परिसर में दफ़न करते थे। उनका दाना-पानी जुटाने में उनका परेशान रहना स्वाभाविक था।
शिक्षा
जानकी वल्लभ शास्त्री ने मात्र 11 वर्ष की वय में ही इन्होंने 1927 में बिहार-उड़ीसा की प्रथमा परीक्षा (सरकारी संस्कृत परीक्षा) प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। शास्त्री की उपाधि 16 वर्ष की आयु में प्राप्तकर ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय चले गए। ये वहां 1932 से 1938 तक रहे। उनकी विधिवत् शिक्षा-दीक्षा तो संस्कृत में ही हुई थी, लेकिन अपने श्रम से उन्होंने अंग्रेज़ी और बांग्ला का प्रभूत ज्ञान प्राप्त किया। वह रवींद्रनाथ के गीत सुनते थे और उन्हें गाते भी थे।
कार्यक्षेत्र
अत्यंत बाल्य-वय में ही इनको अपने माता की स्नेहिल-छाया से वंचित हो जाना पड़ा। आर्थिक समस्याओं के निदान हेतु इन्होंने बीच-बीच में नौकरी भी की। 1936 में लाहौर में अध्यापन कार्य किया और 1937-38 में रायगढ़ (मध्य प्रदेश) में राजकवि भी रहे।1934-35 में इन्होंने साहित्याचार्य की उपाधि स्वर्णपदक के साथ अर्जित की और पूर्वबंग सारस्वत समाज ढाका के द्वारा साहित्यरत्न घोषित किए गए।1940-41 में रायगढ़ छोड़कर मुजफ्फरपुर आने पर इन्होंने वेदांतशास्त्री और वेदांताचार्य की परीक्षाएं बिहार भर में प्रथम आकर पास की। 1944 से 1952 तक गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज में साहित्य-विभाग में प्राध्यापक, पुनः अध्यक्ष रहे। 1953 से 1978 तक बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह कॉलेज, मुजफ्फरपुर में हिन्दी के प्राध्यापक रहकर 1979-80 में अवकाश ग्रहण किया।[1]
रचनाएँ
जानकी वल्लभ शास्त्री का पहला गीत 'किसने बांसुरी बजाई' बहुत लोकप्रिय हुआ। प्रो. नलिन विमोचन शर्मा ने उन्हें प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद पांचवां छायावादी कवि कहा है, लेकिन सचाई यह है कि वे भारतेंदु और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित और विकसित उस स्वच्छंद धारा के अंतिम कवि थे, जो छायावादी अतिशय लाक्षणिकता और भावात्मक रहस्यात्मकता से मुक्त थी। शास्त्रीजी ने कहानियाँ, काव्य-नाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और आलोचना भी लिखी है। उनका उपन्यास 'कालिदास' भी बृहत प्रसिद्ध हुआ था।
पहली रचना 'गोविन्दगानम'
इन्होंने सोलह-सत्रह की अवस्था में ही लिखना प्रारंभ किया था। इनकी प्रथम रचना ‘गोविन्दगानम्’ है जिसकी पदशय्या को कवि जयदेव से अबोध स्पर्द्धा की विपरिणति मानते हैं। ‘रूप-अरूप’ और ‘तीन-तरंग’ के गीतों के पश्चात् ‘कालन’, ‘अपर्णा’, ‘लीलाकमल’ और ‘बांसों का झुरमुट’- चार कथा संग्रह कमशः प्रकाशित हुए। इनके द्वारा लिखित चार समीक्षात्मक ग्रंथ-’साहित्यदर्शन’, ‘चिंताधारा,’ ‘त्रयी’ , और ‘प्राच्य साहित्य’ हिन्दी में भावात्मक समीक्षा के सर्जनात्मक रूप के कारण समादृत हुआ।1945-50 तक इनके चार गीति काव्य प्रकाशित हुए-’शिप्रा’, ‘अवन्तिका’,’ मेघगीत’ और ‘संगम’। कथाकाव्य ‘गाथा’ का प्रकाशन सामाजिक दृष्टिकोण से क्रांतिकारी है। इन्होंने एक महाकाव्य ‘राधा’ की रचना की जो सन् 1971 में प्रकाशित हुई। ’हंस बलाका’ गद्य महाकाव्य की इनकी रचना हिन्दी जगत की एक अमूल्य निधि है। छायावादोत्तर काल में प्रकाशित पत्र-साहित्य में व्यक्तिगत पत्रों के स्वतंत्र संकलन के अंतर्गत शास्त्री द्वारा संपादित ‘निराला के पत्र’ (1971) उल्लेखनीय है। इनकी प्रमुख कृतियां संस्कृत में- ’काकली’, ‘बंदीमंदिरम’, ‘लीलापद्मम्’, हिन्दी में ‘रूप-अरूप’, ‘कानन’, ‘अपर्णा’, ‘साहित्यदर्शन’, ‘गाथा’, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘अवन्तिका’, ‘मेघगीत’, ‘चिंताधारा’, ‘प्राच्यसाहित्य’, ‘त्रयी’, ‘पाषाणी’, ‘तमसा’, ‘एक किरण सौ झाइयां’, ‘स्मृति के वातायन’, ‘मन की बात’, ‘हंस बलाका’, ‘राधा’ आदि हैं।[1]
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भाषा और शैली
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री किसी ख़ास विचारधारा के कवि नही हैं। उनकी रचनाओं में साहित्य की सभी धारायें समाहित हैं। मूलत: संस्कृत भाषा और साहित्य के आचार्य रहे आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी अंग्रेज़ी-बांग्ला –हिन्दी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान है। राका और बेला जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया। दार्शनिकता और संगीत उनके गीतों को लोकप्रिय बनाते हैं। रस और आनंद की उनकी कविताओं, गीतों में प्रमुखता रही है। राग केदार उनका प्रिय राग रहा है। उनके गीतों में जीवन का वह पहलू है जो शांति और स्थिरता का कायल है। वे कहते हैं गोल गोल घूमना इसमें नहीं है। बाहर से कुछ छीन झपटकर ले आने की खुशी नहीं अपने को पाने का आनंद है। उनसे बात-चीत के क्रम में हमें उनकी दार्शनिकता और उनकी जीवन शैली वैदिक ऋषि परंपरा की याद दिलाती रही। शास्त्री जी ने अपने जीवन के मानक स्वयं गढे हैं।
सब अपनी अपनी कहते है।
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है।
दिल बहलाने को चल फिर कर,
फिर सब अपने में रहते है।
सबके सिर पर है भार प्रचुर,
सबका हारा बेचारा उर
अब ऊपर ही ऊपर हँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते है।
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला शिला
ले जाती जिधर बहा धारा,
सब उसी ओर चुप बहते हैं।[2]
'निराला' बने प्रेरणास्रोत
सहज गीत आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की पहचान है। उन्होंने छंदोबद्ध हिन्दी कविता लिखी हैं। प्रारंभ में वे संस्कृत में कविता करते थे। संस्कृत कविताओं का संकलन काकली के नाम से 1930 के आसपास प्रकाशित हुआ। निराला जी ने काकली के गीत पढ़कर ही पहली बार उन्हें प्रिय बाल पिक संबोधित कर पत्र लिखा था। बाद में वे हिन्दी में आ गए। निराला ही उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं। वह छायावाद का युग था। निराला उनके आदर्श बने। चालीस के दशक में कई छंदबद्ध काव्य-कथाएँ लिखीं, जो 'गाथा` नामक उनके संग्रह में संकलित हैं। उन्होंने कई काव्य-नाटकों की रचना की और 'राधा` जैसा श्रेष्ठ महाकाव्य रचा। वे कविसम्मेलनों में खूब सुने सराहे जाते थे। उनके गीतों में सहजता का सौन्दर्य है। बहुत सरल बिंब के माध्यम इस सनातन भाव को चित्रित करते हैं। शृंगार उनका प्रिय रस है। उनकी कविताओं में माधुर्य है। सहज सौंदर्य के साथ-साथ वे लोकोन्मुख जनजीवन के कवि हैं।[2]
सम्मान और पुरस्कार
शास्त्री मूलतः गीतकार हैं और इनके गीतों में छायावादी गीतों के ही संस्कार शेष हैं। विविधवर्णी रस-भावों में संकलित कोई डेढ़ हजार गीतों का प्रणयन इन्होंने किया है। परंपरागत दर्शन संवेदन और भाषा से निर्मित ये गीत उत्तर छायावाद युग के गीतों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं और इनका अपना अलग आकर्षण है। संस्कृत-कविताओं के प्रथम संकलन ‘काकली’ के प्रकाशन के बाद तो इन्हें ‘अभिनव जयदेव’ कहा जाने लगा।
- राजेंद्र शिखर पुरस्कार
- भारत भारती पुरस्कार
- शिव सहाय पूजन पुरस्कार
निधन
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री का हृदयगति रुक जाने से 7 अप्रैल 2011 को बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले में निधन हो गया। वह 96 वर्ष के थे। वयोवृद्ध कवि के करीबी लोगों ने बताया कि शास्त्री जी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उनके परिवार में पत्नी छाया देवी और एक पुत्री है। उन्होंने बताया कि आचार्य शास्त्री ने मुजफ्फरपुर स्थित अपने आवास 'निराला निकेतन' में अंतिम सांस ली। भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मश्री देने की घोषणा की गई थी, जिसे किसी विवाद के कारण उन्होंने लौटा दिया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री (हिंदी) literatureindia.com। अभिगमन तिथि: 4 फ़रवरी, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 फ़ुरसत में …. आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री (हिंदी) मनोज (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 4 फ़रवरी, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
- कभी न बिसरने वाला व्यक्तित्व
- हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष-जानकी वल्लभ शास्त्री
- 'दिल्लीवालों को भी मेरी याद आती है?' : आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री
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