"दूब घास": अवतरणों में अंतर
(''''दूब''' या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
पौराणिक कथा के अनुसार- [[समुद्र मंथन]] के दौरान एक समय जब [[देवता]] और [[दैत्य|दानव]] थकने लगे तो भगवान [[विष्णु]] ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर [[समुद्र]] में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र [[पूजा]] के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।<ref>{{cite web |url=http://jaigovindshastri.blogspot.in/2012/06/blog-post_17.html|title=दूब घास|accessmonthday=15 अप्रैल|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | पौराणिक कथा के अनुसार- [[समुद्र मंथन]] के दौरान एक समय जब [[देवता]] और [[दैत्य|दानव]] थकने लगे तो भगवान [[विष्णु]] ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर [[समुद्र]] में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र [[पूजा]] के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।<ref>{{cite web |url=http://jaigovindshastri.blogspot.in/2012/06/blog-post_17.html|title=दूब घास|accessmonthday=15 अप्रैल|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
==भारतीय संस्कृति में महत्त्व== | |||
'[[भारतीय संस्कृति]]' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे '[[नाग पंचमी]]' का पूजन हो या [[विवाह|विवाहोत्सव]] या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर [[गुरु नानक]] ने एक स्थान पर कहा है- | |||
<blockquote><poem>नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब | |||
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।</poem></blockquote> | |||
[[हिन्दू धर्म]] के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। [[भारत]] में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें [[हल्दी]] और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक [[संस्कृत]] कथन इस प्रकार मिलता है- | |||
<blockquote><poem>"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा। | |||
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"</poem></blockquote> | |||
अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म [[क्षीरसागर]] से हुआ है। तुम [[विष्णु]] आदि सब देवताओं को प्रिय हो।" | |||
*[[तुलसीदास|महाकवि तुलसीदास]] ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है- | |||
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।" | |||
प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने [[धर्म]] के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।<ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/sanskriti/doob.htm|title=दूब तेरा महिमा न्यारी|accessmonthday=15 अप्रैल|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
पंक्ति 11: | पंक्ति 26: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{भारतीय संस्कृति के प्रतीक}} | |||
[[Category: | [[Category:वनस्पति विज्ञान]][[Category:वनस्पति]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]][[Category:भारतीय संस्कृति के प्रतीक]][[Category:वनस्पति कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
09:46, 15 अप्रैल 2013 का अवतरण
दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। भगवान गणेश को दूब घास प्रिय है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।
पौराणिक कथा
"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"
पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।[1]
भारतीय संस्कृति में महत्त्व
'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे 'नाग पंचमी' का पूजन हो या विवाहोत्सव या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-
नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।
हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"
अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"
- महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"
प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।[2]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूब घास (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अप्रैल, 2013।
- ↑ दूब तेरा महिमा न्यारी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 अप्रैल, 2013।
संबंधित लेख