"घुश्मेश्वर शिवालय": अवतरणों में अंतर
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शिव पुराण कोटि रूद्र संहिता के अनुसार भक्तिमयी घुश्मा के पुत्र को उसकी बहन ने सौतिया डाह के कारण टुकड़े -टुकड़े करके उसी सरोवर में फेंक दिया था ,जिसमे घुश्मा प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा कर विसर्जित करती थी . घुश्मा की अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर आशुतोष शिव ने उसके मृत पुत्र को जीवित कर दिया तथा घुश्मेश्वर नाम से इस स्थान पर अवतरित हुए . | शिव पुराण कोटि रूद्र संहिता के अनुसार भक्तिमयी घुश्मा के पुत्र को उसकी बहन ने सौतिया डाह के कारण टुकड़े -टुकड़े करके उसी सरोवर में फेंक दिया था ,जिसमे घुश्मा प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा कर विसर्जित करती थी . घुश्मा की अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर आशुतोष शिव ने उसके मृत पुत्र को जीवित कर दिया तथा घुश्मेश्वर नाम से इस स्थान पर अवतरित हुए . | ||
ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद किशना एवं जानकी के पाषाण स्तंभों की परिक्रमा आवश्यक मानी जाती है . कहा जाता है कि शिवाल ग्राम के किशन खाती की गाय जंगल में ज्योतिर्लिंग पर खड़ी होती तो उसके दूध की धरा स्वतः बह ज़ाती थी. किशना ने गाय का पीछा कर यह प्रत्यक्ष देखा तो अज्ञानतावश शिवलिंग पर कुठार प्रहार किया , जिससे खून का | ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद किशना एवं जानकी के पाषाण स्तंभों की परिक्रमा आवश्यक मानी जाती है . कहा जाता है कि शिवाल ग्राम के किशन खाती की गाय जंगल में ज्योतिर्लिंग पर खड़ी होती तो उसके दूध की धरा स्वतः बह ज़ाती थी. किशना ने गाय का पीछा कर यह प्रत्यक्ष देखा तो अज्ञानतावश शिवलिंग पर कुठार प्रहार किया , जिससे खून का फ़व्वारा फूट पड़ा . किशना भय के मारे कुछ दूर भागा तो पाषाण का हो गया . गाय किशना की पत्नी जानको को घटनास्थल पर लेकर आई . जानकी ने प्रभु से प्रार्थना की तो भगवान् ने किशना को पुनः शरीर देकर जानकी को आशीर्वाद दिया कि उसकी पूजा करने के बाद किशना जानकी की परिक्रमा अवश्य होगी . | ||
११२१ में मंडावर के राजा शिववीर चौहान ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा अखंड ज्योति एवं शिवरात्रि जागरण एवं मेला आरंभ किया जो आज तक निर्बाध रूप से जारी है . | ११२१ में मंडावर के राजा शिववीर चौहान ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा अखंड ज्योति एवं शिवरात्रि जागरण एवं मेला आरंभ किया जो आज तक निर्बाध रूप से जारी है . |
13:57, 2 सितम्बर 2013 का अवतरण
द्वादशवे ज्योतिर्लिंग श्री घुश्मेश्वर राजस्थान के शिवालय (शिवाड ) ग्राम में विराजमान है . यह ज्योतिर्लिंग स्वयम्भू है अर्थात यह किसी के द्वारा निर्मित नहीं किया गया , अपितु स्वयं उत्पन्न है . पुरातनकाल में इस स्थान का नाम शिवालय था जो अपभ्रंश होता हुआ , शिवाल से शिवाड नाम से जाना जाने लगाशिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग मंदिर के दक्षिण में भी तीन श्रृंगों वाला धवल पाषणों का प्राचीन पर्वत है, जिसे देवगिरी के नाम से जाना जाता है . यह महाशिवरात्रि पर एक पल के लिए सुवर्णमय हो जाता है जिसकी पुष्टि बंजारे की कथा में होती है कि जिसने देवगिरी से मिले स्वर्ण प्रसास से ज्योतिर्लिंग की प्राचीरें एवं ऋण मुक्तेश्वर मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में करवाया . १८३७ में ग्राम शिवाड स्थित सरोवर की खुदाई करवाने पर दो हजार शिवलिंग मिले जो इसके शिवलिंगों के आलय होने की पुष्टि करता है . मंदिर के परंपरागत पराशर ब्राह्मण पुजारियों का गोत्र भी शिवालय है .
कई विद्वान् , धर्माचार्य , पुरातत्वविद, शोधार्थी आदि इस स्थान की यात्रा कर इसे वास्तविक घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग होने की पुष्टि कर चुके हैं .
शिव पुराण कोटि रूद्र संहिता के अनुसार भक्तिमयी घुश्मा के पुत्र को उसकी बहन ने सौतिया डाह के कारण टुकड़े -टुकड़े करके उसी सरोवर में फेंक दिया था ,जिसमे घुश्मा प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंगों की पूजा कर विसर्जित करती थी . घुश्मा की अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर आशुतोष शिव ने उसके मृत पुत्र को जीवित कर दिया तथा घुश्मेश्वर नाम से इस स्थान पर अवतरित हुए .
ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद किशना एवं जानकी के पाषाण स्तंभों की परिक्रमा आवश्यक मानी जाती है . कहा जाता है कि शिवाल ग्राम के किशन खाती की गाय जंगल में ज्योतिर्लिंग पर खड़ी होती तो उसके दूध की धरा स्वतः बह ज़ाती थी. किशना ने गाय का पीछा कर यह प्रत्यक्ष देखा तो अज्ञानतावश शिवलिंग पर कुठार प्रहार किया , जिससे खून का फ़व्वारा फूट पड़ा . किशना भय के मारे कुछ दूर भागा तो पाषाण का हो गया . गाय किशना की पत्नी जानको को घटनास्थल पर लेकर आई . जानकी ने प्रभु से प्रार्थना की तो भगवान् ने किशना को पुनः शरीर देकर जानकी को आशीर्वाद दिया कि उसकी पूजा करने के बाद किशना जानकी की परिक्रमा अवश्य होगी .
११२१ में मंडावर के राजा शिववीर चौहान ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया तथा अखंड ज्योति एवं शिवरात्रि जागरण एवं मेला आरंभ किया जो आज तक निर्बाध रूप से जारी है .
इस स्थान की विशेषता है कि अधिकांश समय यहाँ ज्योतिर्लिंग जलहरी में जलमग्न रहता है. जलहरी का जल चमत्कारी माना जाता है. कहा जाता है कि पारे के सेवन से उत्पन्न डाह एवं सफ़ेद दाग़ इस जल के सेवन से प्रायः नष्ट हो जाते हैं . भारत वर्ष के कोने- कोने से यात्री अपनी वेदना , आशाओं को संजोये हुए इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने आते हैं .
किसी विशेष परिस्थिति में इसके जल स्तर के गिरने को किसी संकट के आगमन की पूर्व सूचना माना जाता है . शिवाडस्थ ज्योतिर्लिंग के दक्षिण में स्थित देवगिरी पर्वत में ऊँचाई पर एक शक्तिपीठ स्थापित है , जो इस स्थान के प्राचीन होने का पुख्ता प्रमाण है . प्राचीन ग्रन्थ श्री घुश्मेश्वर महात्म्य के अनुसार प्राचीनकाल में ज्योतिर्लिंग क्षेत्र शिवालय में एक योजन विस्तार में चारों दिशाओं में चार द्वार थे जिनका नाम पूर्व में सर्प द्वार , पश्चिम में नाट्यशाला द्वार तथा उत्तर में वृषभ द्वार व दक्षिण में ईश्वरद्वार था तथा पश्चिमोत्तर में सुरसरि सरोवर था . वर्तमान में ग्राम शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग क्षेत्र के चारों ओर पुरोक्त चारों द्वारों के प्रतिक चार गाँव हैं जो सारसोप (सर्व सर्प्द्वर ), नत्वादा (नाट्यशाला द्वार ), बहड़ (वृषम द्वार ), ईसरदा (ईश्वर द्वार ) के नाम से जाने जाते हैं . पश्चिमोत्तर में सिरस गाँव सुरसरि सरोवर के स्थान पर बसा हुआ है .
वाशिष्ठी नदी के किनारे बिल्व पत्रों एवं मंदार के वन ...
घुश्मेश्वर महात्म्य ग्रन्थ के अनुसार ज्योतिर्लिंग के शिवालय क्षेत्र में वाशिष्ठी नदी बहती थी , जिसके किनारे मंदारवन(आकड़ों का वन ) तथा बिल्वपत्रों के वन थे जिनसे घुश्मेश्वर की नित्य पूजा की जाती थी . ग्राम शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग क्षेत्र के पास बनास नदी बहती है जो पूर्वकाल की वाशिष्ठी नदी ही है तथा इसके किनारे बिल्वपत्रों का वन आज भी विरल रूप में स्थित है . मंदार वन के स्थान पर मंडावर ग्राम है जहाँ आकडे (मंदार ) बहुतायत में उत्पन्न होते हैं .
मुहूर्त मार्तंड ज्योतिष ग्रन्थ के अनुसार ग्रन्थ में प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ के रचनाकार पंडित नारायण ने ग्रन्थ के संक्रांति प्रकरण के अंत में निम्न प्रकार अपने वंश , जनक , जन्मस्थान का उल्लेख किया है ---
" जिन्होंने विष्णु के चरणों में अपनी आत्मा को अर्पित किया है , ऐसे विष्णु चरणों से पवित्र कौशिक वंश में द्विजश्रेष्ठ श्री हरि, जिनसे शम , दम , तप , अध्ययन , जितेन्द्रियता , उदारता आदि गुणों से अलंकृत ब्राहमणों से पूजित अनंत नाम द्विज श्रेष्ट उत्पन्न हुए , उनके पुत्र नारायण ने मुहूर्तों के भण्डार इस मुहूर्तमार्तंड ग्रन्थ की रचना की जो पुराण प्रसिद्ध देवगिरी पर्वत के पास उत्तर में स्थित शिवालय सरोवर के उत्तर की ओर स्थित टापर ग्राम में रहता है . ग्राम तापर , शिवाड स्थित ज्योतिर्लिंग के उत्तर में यथास्थान स्थित है तथा अनेक महान विभूतियों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है .
विक्रम संवत १०८१ (वर्ष 1023) में महमूद गजनवी के सिपहसालार मसूद द्वारा इस स्थान का विध्वंस किया गया . इस मंदिर के प्रांगन में मिले प्रस्तर खंड , मूर्तियाँ आदि अवशेष सातवीं शताब्दी के आसपास निर्मित मंदिरों की शैली के हैं , हरा -नीलापन लिए इन बलुआ पत्थरों पर भी युगल देव मूर्तियाँ उत्कीर्ण है .
मंदिर का वास्तुशिल्प पाणिनी के अष्टांगिक योग पर आधारित है . इस शिल्पकला में समाधि प्रिय शिव का सानिध्य योग बल से ही संभव मान कर निर्माण किया जाता है . इस मंदिर में यम एवं नियम की पांच- पांच सोपान (सीढियाँ ), नंदी (आसन ), पवनपुत्र (प्राणायाम ), कछुआ (प्रत्याहार ), गणेश (धारणा ), माता पार्वती (ध्यान ), भगवान् शंकर (समाधिस्थ ) विराजमान है जो कि अष्टांगिक योग पर आधारित वास्तुकला की पुष्टि करते हैं . १९९८ में खुदाई पर मिली कश्यपावतार की समुद्र मंथन मूर्ति अष्टांगिक योग में प्रत्याहार का प्रतिनिधित्व करती है .
सवाई माधोपुर होकर जयपुर आने वाली रेलवे लाईन पर ईसरदा स्टेशन से उतरकर बस या तांगे द्वारा शिवाड पहुंचा जा सकता है .
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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