कवि-सम्मेलन के लए बन्यौ अचानक प्लान। काकी के बिछुआ बजे, खड़े है गए कान॥
खड़े है गए कान, 'रहस्य छुपाय रहे हो'। सब जानूँ मैं, आज बनारस जाय रहे हो॥
'काका' बनिके व्यर्थ थुकायो जग में तुमने। कबहु बनारस की साड़ी नहिं बांधी हमने॥
हे भगवन, सौगन्ध मैं आज दिवाऊं तोहि। कवि-पत्नी मत बनइयो, काहु जनम में मोहि॥
काहु जनम में मोहि, रखें मतलब की यारी। छोटी-छोटी मांग न पूरी भई हमारी॥
श्वास खींच के, आँख मीच आँसू ढरकाए। असली गालन पै नकली मोती लुढ़काए॥
शांत ह्वे गयो क्रोध तब, मारी हमने चोट। ‘साड़िन में खरचूं सबहि, सम्मेलन के नोट’॥
सम्मेलन के नोट? हाय ऐसों मत करियों। ख़बरदार द्वै साड़ी सों ज़्यादा मत लइयों॥
हैं बनारसी ठग प्रसिद्ध तुम सूधे साधे। जितनें माँगें दाम लगइयों बासों आधे॥
गाँठ बांध उनके वचन, पहुँचे बीच बज़ार। देख्यो एक दुकान पै, साड़िन कौ अंबार॥
साड़िन कौ अंबार, डिज़ाइन बीस दिखाए। छाँटी साड़ी एक, दाम अस्सी बतलाए॥
घरवारी की चेतावनी ध्यान में आई। कर आधी कीमत, हमने चालीस लगाई॥
दुकनदार कह्बे लग्यो, “लेनी हो तो लेओ”। “मोल-तोल कूं छोड़ के साठ रुपैय्या देओ”॥
साठ रुपैय्या देओ? जंची नहिं हमकूं भैय्या। स्वीकारो तो देदें तुमकूं तीस रुपैय्या ?
घटते-घटते जब पचास पै लाला आए। हमने फिर आधे करके पच्चीस लगाए॥
लाला को जरि-बजरि के ज्ञान है गयो लुप्त। मारी साड़ी फेंक के, लैजा मामा मुफ़्त।
लैजा मामा मुफ़्त, कहे काका सों मामा। लाला तू दुकनदार है कै पैजामा॥
अपने सिद्धांतन पै काका अडिग रहेंगे। मुफ़्त देओ तो एक नहीं द्वै साड़ी लेंगे॥
भागे जान बचाय के, दाब जेब के नोट। आगे एक दुकान पै देख्यो साइनबोट॥
देख्यो साइनबोट, नज़र वा पै दौड़ाई। ‘सूती साड़ी द्वै रुपया, रेशमी अढ़ाई’॥
कहं काका कवि, यह दुकान है सस्ती कितनी। बेचेंगे हाथरस, लै चलें दैदे जितनी॥
भीतर घुसे दुकान में, बाबू आर्डर लेओ। सौ सूती सौ रेशमी साड़ी हमकूं देओ॥
साड़ी हमकूं देओ, क्षणिक सन्नाटो छायो। डारी हमपे नज़र और लाला मुस्कायो॥
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