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[[चंद्रगुप्त प्रथम]] के बाद समुद्रगुप्त [[मगध]] के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने [[मथुरा]] और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें [[चेदि]], महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।  
[[चंद्रगुप्त प्रथम]] के बाद समुद्रगुप्त [[मगध]] के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने [[मथुरा]] और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें [[चेदि]], महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।  


इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में [[हिमालय]], दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में [[ब्रह्मपुत्र नदी]] और पश्चिम में [[चंबल नदी|चंबल]] और [[यमुना नदी|यमुना]] नदियों तक हो गया था । पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी [[शक]] और 'देवपुत्र शाहानुशाही` [[कुषाण]] राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण [[इलाहाबाद]] किले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है । <ref>इसी स्तम्भ पर सम्राट अशोक का  एक लेख भी ख़ुदा हुआ है ।</ref>  
इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में [[हिमालय]], दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में [[ब्रह्मपुत्र नदी]] और पश्चिम में [[चंबल नदी|चंबल]] और [[यमुना नदी|यमुना]] नदियों तक हो गया था । पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी [[शक]] और 'देवपुत्र शाहानुशाही` [[कुषाण]] राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण [[इलाहाबाद]] क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है । <ref>इसी स्तम्भ पर सम्राट अशोक का  एक लेख भी ख़ुदा हुआ है ।</ref>  


आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता'<ref>समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है । उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है ।</ref> नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।
आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता'<ref>समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है । उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है ।</ref> नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।

06:17, 29 जुलाई 2010 का अवतरण

समुद्र गुप्त (335-376)

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।

इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था । पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है । [1]

आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता'[2] नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।

उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया । मथुरा के जिस राजा को उसने हराया । उसका नाम गणपति नाग मिलता है । उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है । इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है । वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था । [3] समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा ।

समुद्रगुप्त के परवर्ती राजाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गंगा यमुना का दोआब 'अंतर्वेदी विषय' के नाम से जाना जाता था । स्कन्दगुप्त के राज्य काल में अंतर्वेदी का शासक 'शर्वनाग' था । इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे । सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो । समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालवा, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया । दिग्विजय के पश्चात समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया । यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये । इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते हैं ।


समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे-

  1. रामगुप्त और
  2. चंद्रगुप्त ।

समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट हुआ था ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी स्तम्भ पर सम्राट अशोक का एक लेख भी ख़ुदा हुआ है ।
  2. समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है । उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है ।
  3. शिशुनंदि नामक एक राजा का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।