"चंद्रशेखर (कवि)": अवतरणों में अंतर
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13:13, 2 जनवरी 2015 का अवतरण
चंद्रशेखर कवि का जन्म संवत् 1855 में मुअज्जमाबाद, ज़िला, फतेहपुर में हुआ था। ये 'महाराज नरेंद्र सिंह' के समय तक वर्तमान थे और उन्हीं के आदेश से इन्होंने अपना प्रसिद्ध 'वीरकाव्य' 'हम्मीरहठ' बनाया।
- हम्मीरहठ में वीर रस वर्णन
यद्यपि शृंगार की कविता करने में भी चंद्रशेखर बहुत ही प्रवीण थे पर इनकी कीर्ति को चिरकाल तक स्थिर रखने के लिए 'हम्मीरहठ' ही पर्याप्त है। उत्साह के, उमंग की व्यंजना जैसी चलती स्वाभाविक और ज़ोरदार भाषा में इन्होंने की है उस प्रकार से करने में बहुत ही कम कवि समर्थ हुए हैं। वीर रस के वर्णन में इस कवि ने बहुत ही सुंदर साहित्यिक विवेक का परिचय दिया है। सूदन आदि के समान शब्दों की तड़ातड़ और भड़ाभड़ के फेर में न पड़कर उग्रोत्साह व्यंजक उक्तियों का ही अधिक सहारा इस कवि ने लिया है, जो वीर रस की जान है। हम्मीरहठ में वर्णनों के अनावश्यक विस्तार को जिसमें वस्तुओं की बड़ी लंबी चौड़ी सूची भरी जाती है, स्थान नहीं दिया गया है। सारांश यह है कि वीर रस वर्णन की श्रेष्ठ प्रणाली का अनुसरण चंद्रशेखर जी ने किया है।
- कथानक और प्रसंग विधान
प्रसंग विधान में कवि ने नई उद्भावनाएँ न करके पूर्ववर्ती कवियों का ही सर्वथा अनुसरण किया है। एक रूपवती और निपुण स्त्री के साथ महिमा मंगोल का अलाउद्दीन के दरबार से भागना, अलाउद्दीन का उसे हम्मीर से वापस माँगना, हम्मीर का उसे अपनी शरण में लेने के कारण उपेक्षापूर्वक इनकार करना, ये सब बातें जोधाराज क्या उसके पूर्ववर्ती अपभ्रंश कवियों की ही कल्पना है, जो वीरगाथा काल की रूढ़ि के अनुसार की गई थी। गढ़ के घेरे के समय गढ़पति की निंश्चतता और निर्भीकता व्यंजित करने के लिए पुराने कवि गढ़ के भीतर नाच रंग का होना दिखाया करते थे। जायसी ने अपने पद्मावत में अलाउद्दीन के द्वारा चित्तौरगढ़ के घेरे जाने पर 'राजा रतनसेन' का गढ़ के भीतर नाच कराना और शत्रु के फेंके हुए तीर से नर्तकी का घायल होकर मरना वर्णित किया है। ठीक उसी प्रकार का वर्णन 'हम्मीरहठ' में रखा गया है। यह चंद्रशेखर की अपनी उद्भावना नहीं, एक बँधी हुई परिपाटी का अनुसरण है। नर्तकी के मारे जाने पर 'हम्मीर देव' का यह कह उठना कि हठ करि मंडयो युद्ध वृथा ही केवल उनके तात्कालिक शोक के आधिक्य की व्यंजना मात्र करता है। उसे करुण प्रलाप मात्र समझना चाहिए। इसी दृष्टि से इस प्रकरण के करुण प्रलाप राम ऐसे सत्यसंध और वीरव्रती नायकों से भी कराए गए हैं। इनके द्वारा उनके चरित्र में कुछ भी लांछन लगता हुआ नहीं माना जाता।
- त्रुटियाँ
एक त्रुटि हम्मीरहठ की अवश्य खटकती है। सब अच्छे कवियों ने प्रतिनायक के प्रताप और पराक्रम की प्रशंसा द्वारा उससे भिड़ने वाले या उसे जीतने वाले नायक के प्रताप और पराक्रम की व्यंजना की है। राम का प्रतिनायक रावण कैसा था? इंद्र, मरुत, यम, सूर्य आदि सब देवताओं से सेवा लेनेवाला; पर हम्मीरहठ में अलाउद्दीन एक चुहिया के कोने में दौड़ने से डर के मारे उछल भागता है और पुकार मचाता है।
- भाषा
चंद्रशेखर का साहित्यिक भाषा पर बड़ा भारी अधिकार था। अनुप्रास की योजना प्रचुर होने पर भी भद्दी कहीं नहीं हुई, सर्वत्र रस में सहायक ही है। युद्ध, मृगया आदि के वर्णन तथा संवाद आदि सब बड़ी मर्मज्ञता से रखे गए हैं। जिस रस का वर्णन है ठीक उसके अनुकूल पदविन्यास है। जहाँ शृंगार का प्रसंग है वहाँ यही प्रतीत होता है कि किसी सर्वश्रेष्ठ शृंगारी कवि की रचना पढ़ रहे हैं। तात्पर्य यह है कि 'हम्मीरहठ' हिन्दी साहित्य का एक रत्न है। तिरिया तेल हम्मीर हठ चढ़ै न दूजी बार वाक्य ऐसे ही ग्रंथ में शोभा देते है -
उदै भानु पच्छिम प्रतच्छ, दिन चंद प्रकासै।
उलटि गंग बरु बहै, काम रति प्रीति विनासै
तजै गौरि अरधांग, अचल धा्रुव आसन चल्लै।
अचल पवन बरु होय, मेरु मंदर गिरिहल्लै
सुरतरु सुखाय, लोमस मरै, मीर! संक सब परिहरौ।
मुखबचन बीर हम्मीर को बोलि न यह कबहूँटरौ
आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
गाज ते दराज कोप नजर तिहारी है।
जाके डर डिगत अडोल गढ़धारी डग
मगत पहार औ डुलति महि सारी है
रंक जैसो रहत ससंकित सुरेस भयो,
देस देसपति में अतंक अति भारी है।
भारी गढ़धारी, सदा जंग की तयारी,
धाक मानै ना तिहारी या हमीर हठधारी है
भागे मीरजादे पीरजादे औ अमीरजादे,
भागे खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागे गज बाजि रथ पथ न सँभारैं, परैं
गोलन पै गोल, सूर सहमि सकाय कै
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि,
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै
जैसे लगे जंगल में ग्रीषम की आगि
चलै भागि मृग महिष बराह बिललाय कै
थोरी थोरी बैसवारी नवल किसोरी सबै,
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरतीं।
बसन बिभूषन बिराजत बिमल वर,
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रँगी,
चाय भरी चायल चपल दृग जोरतीं।
कामअबला सी, कलाधार की कला सी,
चारु चंपक लता सी चपला सी चित्त चोरतीं
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 267-69।
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