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|संस्कृत=आस्रवः [आ+स्रु+अप्] पीड़ा, कष्ट, दुख, बहाव, स्रवण | |संस्कृत=आस्रवः [आ+स्रु+अप्] पीड़ा, कष्ट, दुख, बहाव, स्रवण- मवाद आदि का निकलना, अपराध, अतिक्रमण, उबलते हुए चावलों का झाग | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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09:08, 17 जुलाई 2010 का अवतरण
हिन्दी | स्रवण, इन्द्रियों में से प्रत्येक का द्वार, इन्द्रिय द्वार, कर्म-पुदगलों का जीव में योग के द्वारा प्रवेश जिससे जीव कर्म बन्धन में पड़ जाता है, [1] क्लेश।[2] |
-व्याकरण | [संस्कृतभाषा आ धातु स्रु+अप्], पुल्लिंग- जल आदि का बहाव |
-उदाहरण | मन का विषयों की ओर आस्रव, बहाव होना |
-विशेष | टीका में सोमदेव ने कर्मों के आस्रव, बंध, उदय और सत्वविषय का कथन किया है, जो सामान्य जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी है। |
-विलोम | |
-पर्यायवाची | स्त्राव, बहन, रिसाव, आस्रव, दुःख अंदोह, अघ, अफ़सोस, आफ़त, उत्ताप, कष्ट, कोफ़्त, क्लेश, खेद, ग़म, चोट, ताप, दर्द, दुख, दुखड़ा, दुख दर्द, पीड़ा, पीर, बिरोग, मर्ज़, मलाल, मसोस, रंज, रंजिश, रंजीदगी, व्यथा, शोक, शोच, संताप, ज़हमत, तकलीफ़, त्रास, परेशानी, विपत्ति, वेदना, संकट, संत्रास |
संस्कृत | आस्रवः [आ+स्रु+अप्] पीड़ा, कष्ट, दुख, बहाव, स्रवण- मवाद आदि का निकलना, अपराध, अतिक्रमण, उबलते हुए चावलों का झाग |
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