"मूर्ति कला मथुरा 6": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replace - "फतेहपुर सीकरी" to "फ़तेहपुर सीकरी")
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
पिछले अध्यायों में मथुरा की कला- विशेषतया पुरातत्व संग्रहालय मथुरा में प्रदर्शित पाषाण मूर्तियों की कला- का परिचय पूरा हुआ। यह तो स्पष्ट ही है यह परिचय अतिशय संक्षिप्त है और इसलिए इसमें माथुरी कला और इससे सम्बन्धित अनेक बातों का केवल संकेत ही किया गया है। तथापि साधारण पाठक के लिए कुछ बातें ऐसी बच जाती हैं जिनकी किंचित विस्तार से चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।  
पिछले अध्यायों में मथुरा की कला- विशेषतया पुरातत्व संग्रहालय मथुरा में प्रदर्शित पाषाण मूर्तियों की कला- का परिचय पूरा हुआ। यह तो स्पष्ट ही है यह परिचय अतिशय संक्षिप्त है और इसलिए इसमें माथुरी कला और इससे सम्बन्धित अनेक बातों का केवल संकेत ही किया गया है। तथापि साधारण पाठक के लिए कुछ बातें ऐसी बच जाती हैं जिनकी किंचित विस्तार से चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।  
==मथुरा कला का माध्यम==
==मथुरा कला का माध्यम==
उत्तर गुप्तकाल के प्रारम्भ तक मथुरा के कलाकारों ने जो मूर्तियाँ बनाई या भवन निर्माण किए उनके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार का लाल चित्तेदार पत्थर काम में लाया। यह पत्थर मथुरा में अब भी विपुलता से व्यवहृत होता है। इसकी प्राप्ति रूपवास, टंकपुर और फतेहपुर सीकरी की खानों से होती है। मूर्ति गढ़ने की दृष्टि से यह पत्थर पर्याप्त मृदु होता है, पर इस पर लोनों का असर अधिक होता है। इसी का फल यह है कि कितनी ही मूर्तियाँ काल के प्रभाव से अब गली जा रही हैं। संभव है कि इसके दुर्गण को देखकर ही मध्यकाल के प्रारम्भ से कलाकारों ने मूर्तियों के लिए उसका प्रयोग करना छोड़ दिया हो।  
उत्तर गुप्तकाल के प्रारम्भ तक मथुरा के कलाकारों ने जो मूर्तियाँ बनाई या भवन निर्माण किए उनके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार का लाल चित्तेदार पत्थर काम में लाया। यह पत्थर मथुरा में अब भी विपुलता से व्यवहृत होता है। इसकी प्राप्ति रूपवास, टंकपुर और फ़तेहपुर सीकरी की खानों से होती है। मूर्ति गढ़ने की दृष्टि से यह पत्थर पर्याप्त मृदु होता है, पर इस पर लोनों का असर अधिक होता है। इसी का फल यह है कि कितनी ही मूर्तियाँ काल के प्रभाव से अब गली जा रही हैं। संभव है कि इसके दुर्गण को देखकर ही मध्यकाल के प्रारम्भ से कलाकारों ने मूर्तियों के लिए उसका प्रयोग करना छोड़ दिया हो।  
[[चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|thumb|250px|सकिस्सा में भगवान [[बुद्ध]] का स्वर्गावतरण<br /> Relief Showing Buddha's Descent From Trayastrimsa Heaven]]
[[चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|thumb|250px|सकिस्सा में भगवान [[बुद्ध]] का स्वर्गावतरण<br /> Relief Showing Buddha's Descent From Trayastrimsa Heaven]]
[[चित्र:Railing-Pillars-And-A-Cross-Bar-Showing-Bodhi-Tree-And-Wheel-Of-Law-Mathura-Museum-61.jpg|thumb|250px|[[बौद्ध]] प्रतीकों से युक्त वेदिका स्तंभ<br /> Railing Pillars And A Cross Bar Showing Bodhi Tree And Wheel Of Law]]
[[चित्र:Railing-Pillars-And-A-Cross-Bar-Showing-Bodhi-Tree-And-Wheel-Of-Law-Mathura-Museum-61.jpg|thumb|250px|[[बौद्ध]] प्रतीकों से युक्त वेदिका स्तंभ<br /> Railing Pillars And A Cross Bar Showing Bodhi Tree And Wheel Of Law]]

04:59, 7 अगस्त 2010 का अवतरण

मूर्ति कला मथुरा : मूर्ति कला मथुरा 2 : मूर्ति कला मथुरा 3 : मूर्ति कला मथुरा 4 : मूर्ति कला मथुरा 5 : मूर्ति कला मथुरा 6


मूर्ति कला मथुरा 6 / संग्रहालय

मथुरा कला से सम्बन्धित अन्य ज्ञातव्य विषय

पिछले अध्यायों में मथुरा की कला- विशेषतया पुरातत्व संग्रहालय मथुरा में प्रदर्शित पाषाण मूर्तियों की कला- का परिचय पूरा हुआ। यह तो स्पष्ट ही है यह परिचय अतिशय संक्षिप्त है और इसलिए इसमें माथुरी कला और इससे सम्बन्धित अनेक बातों का केवल संकेत ही किया गया है। तथापि साधारण पाठक के लिए कुछ बातें ऐसी बच जाती हैं जिनकी किंचित विस्तार से चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है।

मथुरा कला का माध्यम

उत्तर गुप्तकाल के प्रारम्भ तक मथुरा के कलाकारों ने जो मूर्तियाँ बनाई या भवन निर्माण किए उनके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार का लाल चित्तेदार पत्थर काम में लाया। यह पत्थर मथुरा में अब भी विपुलता से व्यवहृत होता है। इसकी प्राप्ति रूपवास, टंकपुर और फ़तेहपुर सीकरी की खानों से होती है। मूर्ति गढ़ने की दृष्टि से यह पत्थर पर्याप्त मृदु होता है, पर इस पर लोनों का असर अधिक होता है। इसी का फल यह है कि कितनी ही मूर्तियाँ काल के प्रभाव से अब गली जा रही हैं। संभव है कि इसके दुर्गण को देखकर ही मध्यकाल के प्रारम्भ से कलाकारों ने मूर्तियों के लिए उसका प्रयोग करना छोड़ दिया हो।

सकिस्सा में भगवान बुद्ध का स्वर्गावतरण
Relief Showing Buddha's Descent From Trayastrimsa Heaven
बौद्ध प्रतीकों से युक्त वेदिका स्तंभ
Railing Pillars And A Cross Bar Showing Bodhi Tree And Wheel Of Law

मथुरा कला का विस्तार

कुषाण और गुप्त काल में कला-केन्द्र के रूप में मथुरा की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गई थी। यहाँ की मूर्तियों के मांग देश भर में तो थी ही पर भारत के बाहर भी यहाँ की मूर्तियाँ भेजी जाती थीं। मथुरा कला का प्रभाव दक्षिण पूर्वी एशिया तथा चीन के शाँत्सी स्थान तक देखा जाता है।[1]अब तक जिन विभिन्न स्थानों से मथुरा की मूर्तियाँ पाई जा चुकी हैं, उनकी सूची [2]निम्नांकित है:

1. तक्षशिला तक्षशिला, पश्चिमी पाकिस्तान
2. सारनाथ वाराणसी के पास, उत्तर प्रदेश
3. श्रावस्ती सहेतमहेत, ज़िला गोंडा- बहराइच
4. भरतपुर भरतपुर, राजस्थान
5. बुद्ध गया गया, बिहार
6. राजगृह राजगीर, बिहार
7. साँची या श्री पर्वत सांची, मध्य प्रदेश
8. बाजिदपुर कानपुर से 6 मील दक्षिण, उत्तर प्रदेश
9. कुशीनगर कसिया, उत्तर प्रदेश
10. अमरावती अमरावती, ज़िला गुन्तुर, मद्रास राज्य
11. टण्डवा सहेत-महेत के पास, उत्तर प्रदेश
12. पाटलिपुत्र पटना, बिहार
13. लहरपुर ज़िला सीतापुर, उत्तर प्रदेश
14. आगरा आगरा, उत्तर प्रदेश
15. एटा एटा, उत्तर प्रदेश
16. मूसानगर कानपुर से 30 मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश
17. पलवल ज़िला गुड़गाँव, पंजाब
18. तूसारन विहार प्रतापगढ़ से 30 मील दक्षिण-पश्चिम, उत्तर प्रदेश
19. ओसियां जोधपुर से 32 मील उत्तर-पश्चिम, राजस्थान
20. भीटा देवरिया के पास, ज़िला इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
21. कौशाम्बी इलाहाबाद के पास, उत्तर प्रदेश

मथुरा में कला के प्राचीन स्थान

यद्यपि मथुरा कला की कृतियाँ आज भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, तथापि यह ध्यान देने योगय बात है जिन स्थानों पर ये मूर्तियां विद्यमान थीं या पूजित होती थीं उन विशाल भवनों, स्तूपों और विहारों का अब कोई भी चिह्न विद्यमान नहीं है। केवल कहीं-कहीं पर टीले बने पड़े हैं इसलिये इन स्थानों के प्राचीन नाम आदि जानने के लिए हमें उन शिलालेखों का सहारा लेना पड़ता है जो मथुरा के विभिन्न भागों से मिले हैं। साधारणतया यह अनुमान किया गया है कि जिस स्तूप या विहार का नाम जिस लेख या लेखांकित मूर्ति से मिला है, संभवत: उस विहार के टूटने पर वह मूर्ति वहीं पड़ी रही होगी। अतएव हम मूर्ति के प्राप्तिस्थान को ही उसमें उल्लेखित स्तूप या विहार की भूमि कह सकते हैं। यदि यह अनुमान सत्य है तो प्राचीन मथुरा के उन सांस्कृतिक केन्द्रों के स्थान कुछ निम्नांकित रूप से समझे जा सकते हैं [3]:

जैन स्थान

देवनिर्मित बौद्ध स्तूप कंकाली टीला

बौद्ध स्थान

बुद्ध मस्तक
Head of Buddha
द्वारस्तंभ
Doorjamb
1. यशाविहार कटरा केशवदेव
2. एक स्तूप कटरा केशवदेव
3. एक स्तूप जमालपुर टीला
4. हुविष्क विहार जमालपुर टीला
5. रौशिक विहार प्राचीन आलीक, संभवत: वर्तमान अड़ींग
6. आपानक विहार भरतपुर दरवाजा
7. खण्ड विहार महोली टीला
8. प्रावारक विहार मधुवन, महोली
9. क्रोष्टुकीय विहार कंसखार के पास
10. चूतक विहार माता की गली
11. सुवर्णकार विहार जमुना बाग, सदर बाज़ार
12. श्री विहार गऊघाट
13. अमोहस्सी (अमोघदासी) का विहार कटरा केशवदेव
14. मधुरावणक विहार चौबारा टीला
15. श्रीकुण्ड विहार हुविष्क विहार के पास
16. धर्महस्तिक का विहार नौगवां, मथुरा से 4.5 मील द.प.
17. महासांघिकों का विहार पालिखेड़ा, गोवर्धन के पास
18. पुष्यद (त्ता) का विहार सोंख
19. लद्यस्क्कबिहार मण्डी रामदास
20. धर्मक की पत्नी की चैत्य-कुटी मथुरा जंकशन
21. उत्तरं हारूष का विहार अन्योर
22. गुहा विहार सप्तर्षि टीला

ब्राह्मण सम्प्रदाय

1. दधिकर्ण नाग का मन्दिर जमालपुर टीला
2. वासुदेव का चतु:शाल मन्दिर कटरा केशवदेव
3. गुप्तकालीन विष्णु मन्दिर कटरा केशवदेव
4. कपिलेश्वर व उपमितेश्वर के मन्दिर रंगेश्वर महादेव के पास
5. यज्ञभूमि ईसापुर, यमुना के पार कृष्ण गंगा घाट के सामने
6. पंचवीर वृष्णियों का मन्दिर मोरा गाँव
7. सेनाहस्ति व भोण्डिक की पुष्करिणी छड़गाँव, मथुरा से दक्षिण

अन्य

कुषाण राजाओं के देवकुल माँट तथा गोकर्णेश्वर

मथुरा कला की प्राचीन मूर्तियों का पुन: उपयोग

मथुरा की कई प्राचीन मूर्तियाँ ऐसी भी हैं जिनका एक से अधिक बार उपयोग किया गया है। ऐसे कुछ नमूने इस संग्रहालय में, कुछ कलकत्ते के और कुछ लखनऊ के राज्य संग्रहालय में हैं। मूर्तियों का इस प्रकार का उपयोग तीन रूपों में किया गया है। एक तो टूटी हुई मूर्ति को पत्थरों के रूप में पुन: काम में लिया गया है। कुछ टूटी हुई तीर्थंकर प्रतिमाओं तथा जैन कथाओं से अंकित शिलापट्टों पर लेख लिखे गये हैं और कुछ को काट-छांट कर उन्हें वेदिका स्तंभ या सूचिकाओं में परिवर्तित कर दिया गया है।[4]हो सकता है कि यह कार्य जैन और बौद्धों के परस्पर संघर्ष के फलस्वरूप किया गया हो। ऐसे संघर्ष के प्रमाण जैन साहित्य में विद्यमान हैं।[5]

दूसरे रूप का उपयोग इससे सर्वथा भिन्न है। इसमें निहित भावना द्वेष मूलक नहीं है, पर बहुधा पहले से बनी बनाई मूर्ति के सौन्दर्य पर रीझकर उसे अपने सम्प्रदाय के अनुकूल बना लेने की है। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण मथुरा संग्रहालय की एक बोधिसत्व की मूर्ति (सं. सं. 17.1348) है जिसे वैष्णवों ने त्रिपुँड्र आदि लगाकर अपने अनुकूल बना लिया है। मूर्तियों के पुन'पयोग के तीसरे रूप में घिसी या टूटी हुई मूर्ति को अधिक बिगाड़ने की नहीं पर उसको पुन: बनाने के भावना काम करती थी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक शालभंजिका की विशाल प्रतिमा (सं. सं. 40.2887) है जिसके पैर पुन: गढ़े गये हैं, भले ही यह गढ़ान अपने मूल सौन्दर्य के स्तर नहीं पा सकी है।

माथुरी कला पर प्रकाश डालने वाला प्राचीन साहित्य

मथुरा के इस विशाल कलाभण्डार को समझने के लिए प्राचीन साहित्य की ओर दृष्टिक्षेप करना अत्यन्त आवश्यक है। सबसे अधिक उपयोगी समकालीन साहित्य है, इसके बाद पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य आता है। माथुरीकला में प्रयुक्त विभिन्न अभिप्रायों की कुंजियाँ इसी साहित्य में छिपी पड़ी हैं। इस कला में प्रदर्शित अभिप्रायों को समझने के लिए तथा इसमें प्रदर्शित वस्तुओं के मूल नाम जानने के लिए हमें साहित्य के पन्ने ही उलटने पड़ते हैं। मथुरा में जैन, बौद्ध व ब्राह्मण तीनों धर्म पनपे, अतएव इन तीनों धर्मों के प्राचीन धर्मग्रन्थ, कलाग्रन्थ, आख्यान और उपाख्यान हमारी बड़ी सहायता करते हैं। इनमें भी निम्नांकित ग्रन्थ इस दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं-

समापन

मथुरा कला का यह सामान्य परिचय है। भारतीय कला के इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में अब तक कई समस्याएं नवीन प्रकाश की अपेक्षा रखती हैं। मथुरा के क्षेत्र में शास्त्रीय ढंग का उत्खनन, समूचे कलासंग्रह का विस्तृत अध्ययन और प्रकाशन आदि कार्य कदाचित इन समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो सकेंगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मार्ग, खण्ड 15, सं. 2, मार्च 1962, पृ0 3 संपादकीय।
  2. यह तालिका निम्नांकित आधारों पर बनाई गई है—
    (क) मथुरा तथा लखनऊ संग्रहालयों की पंजिकाएँ।
    (ख) कुमारस्वामी, HIIA., पृ0 60, पा. टि. 1।
    (ग) वही, पृ0 66, पा.टी. 2,3 ।
    (घ) फेब्री, सी0एल0, Mathura of the Gods, मार्ग, मार्च 1954, पृ0 13 ।
    (ङ) संपादकीय, मार्ग, खण्ड 15, संख्या 2, मार्च 1962 ।
    (च) प्रयाग संग्रहालय के अध्यक्ष डा॰ सतीशचन्द्र काला की सूचनाएँ।
  3. प्रस्तुत तालिका निम्नांकित आधारों पर बनाई गई हैं:
    (क) वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS.
    (ख) जेनेर्ट, के.एल. Heinrich Luders, Mathura Inscriptions, गाटिंजन, जर्मनी, 1961 ।
    (ग) अन्य सम्बन्धित लेख व पंजिकांए।
    श्रीकृष्णदत्त बाजपेयी ने दो और विहार, मनिहिर और ककाटिका विहार भी गिनाये हैं, पर उनके स्थान नहीं दिये हैं, -- वृज का इतिहास, भाग 2, पृ0 66 ।
  4. लखनऊ संग्रहालय, मूर्ति संख्या जे 354 से जे 358 तक।
  5. नीलकंड पुरुषोत्तम जोशी, जैनस्तूप और पुरातत्व, श्रीमहावीर स्मृति ग्रंथ, खण्ड 1, 1948-49, पृ0 1888 ।