"अथर्वशिर उपनिषद": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replace - "{{menu}}" to "")
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{{अथर्ववेदीय उपनिषद}}
==अथर्वशिर उपनिषद==
==अथर्वशिर उपनिषद==
*[[अथर्ववेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में देवगणों द्वारा '[[रुद्र]]' की परमात्मा-रूप में उपासना की गयी है। साथ ही सत, रज, तम, त्रय गुणों तथा मूल क्रियाशील तत्त्व [[जल|आप:]] (जल) की उत्पत्ति और उससे सृष्टि के विकास का वर्णन किया गया है।  
*[[अथर्ववेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में देवगणों द्वारा '[[रुद्र]]' की परमात्मा-रूप में उपासना की गयी है। साथ ही सत, रज, तम, त्रय गुणों तथा मूल क्रियाशील तत्त्व [[जल|आप:]] (जल) की उत्पत्ति और उससे सृष्टि के विकास का वर्णन किया गया है।  
पंक्ति 10: पंक्ति 8:
==उपनिषद के अन्य लिंक==
==उपनिषद के अन्य लिंक==
{{उपनिषद}}
{{उपनिषद}}
{{अथर्ववेदीय उपनिषद}}
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:दर्शन कोश]]
[[Category:उपनिषद]]
[[Category:उपनिषद]]
   
   
__INDEX__
__INDEX__

10:58, 25 मार्च 2010 का अवतरण

अथर्वशिर उपनिषद

  • अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में देवगणों द्वारा 'रुद्र' की परमात्मा-रूप में उपासना की गयी है। साथ ही सत, रज, तम, त्रय गुणों तथा मूल क्रियाशील तत्त्व आप: (जल) की उत्पत्ति और उससे सृष्टि के विकास का वर्णन किया गया है।
  • एक बार देवताओं ने स्वर्गलोक में जाकर 'रुद्र' से पूछा कि वे कौन हैं? इस पर रुद्र ने उत्तर दिया-'मैं एक हूँ। भूत, वर्तमान और भविष्यकाल, मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। समस्त दिशाओं में, मैं ही हूँ। नित्य-अनित्य, व्यक्त-अव्यक्त, ब्रह्म-अब्रह्म, पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, पुरुष-स्त्री, गायत्री, सावित्री और सरस्वती मैं ही हूं। समस्त वेद मैं ही हूँ। अक्षर-क्षर, अग्र, मध्य, ऊपर, नीचे भी मैं ही हूँ।'
  • ऐसा सुनकर सभी देवताओं ने 'रुद्र' की स्तुति की और उन्हें बार-बार नमन किया। उसे 'ब्रह्म' स्वीकार किया; क्योंकि सभी प्राणों का भक्षण करके वह बार-बार सृजन करता है। वही जनक है और वही संहारकर्ता महेश्वर है। उसे 'रुद्र' इसलिए कहा जाता है कि उसके स्वरूप का ज्ञान ऋषियों को सहज ही हो जाता है, किन्तु सामान्य जन के लिए उसे जानना अत्यन्त कठिन है। विश्व का उद्भव, संरक्षण और संहार उसी के द्वारा होता है। वह आत्मा के रूप में सभी प्राणियों में स्थित है। समस्त देवताओं का सामूहिक स्वरूप 'रुद्र' भगवान का सिर है। जल, ज्योति, रस, अमृत, ब्रह्म, भू:, भुव: और स्व: रूप, रुद्र ही का परम तप है।
  • वेद में 'आप: (द्रव्य) को सृष्टि का मूल क्रियाशील तत्त्व कहा है। गाढ़े 'आप:' तत्त्व को मथने से फेन उत्पन्न होता है। यह ब्रह्माण्ड फेन-रूप में ही है। प्रारम्भिक अण्ड ही ब्रह्माण्ड है। ब्रह्माण्ड में ही ब्रह्मा का सृजनशील स्वरूप प्रकट होता है। इसी से दृश्य-सृष्टि का विकास होता है। वायु से 'ॐकार' की उत्पत्ति मानी गयी है। 'ॐकार' एक ध्वनि-विशेष है। यह ध्वनि वायु द्वारा आकाश के मध्य उत्पन्न होती है। इसी से सृष्टि का विकास-क्रम प्रकट होता है। 'सत,' 'रज' और 'तम' गुणों का प्रादुर्भाव होता है। इस उपनिषद के पढ़ने से साठ हजार गायत्री मन्त्रों के जपने का फल प्राप्त होता है। अथर्वशिर उपनिषद के एक बार के जाप से ही साधक पवित्र होकर कल्याणकारी बन जाता है।


उपनिषद के अन्य लिंक