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पण में 16 मासा भार होता था, जिसमें 11 मासा [[चाँदी]], 4 मासा [[ताँबा]] और शेष एक मासा [[लोहा]], रांगा, शीशा और भंजन में से कोई एक होता था। इसी मात्रा में अर्द्धपण, पादपण और अष्टभाग पण भी बनाया जाता था। | पण में 16 मासा भार होता था, जिसमें 11 मासा [[चाँदी]], 4 मासा [[ताँबा]] और शेष एक मासा [[लोहा]], रांगा, शीशा और भंजन में से कोई एक होता था। इसी मात्रा में अर्द्धपण, पादपण और अष्टभाग पण भी बनाया जाता था।<ref>{{cite web |url= http://books.google.co.in/books?id=dPuVY_KTNfUC&pg=PA250&lpg=PA250&dq=%E0%A4%AA%E0%A4%A3&source=bl&ots=rZEWdRd9Oe&sig=BYRiLG2Lwtvg9UDicDx_QoHHing&hl=en&sa=X&ei=6C7XU9GrIYmTuAT90ILICA&ved=0CGIQ6AEwDg#v=onepage&q=%E0%A4%AA%E0%A4%A3&f=false|title= प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास|accessmonthday= 29 जुलाई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher=गूगल बुक्स|language= हिन्दी}}</ref> | ||
====ताँबे से निर्मित माषक==== | ====ताँबे से निर्मित माषक==== | ||
पण के चौथे हिस्से का व्यापार करने के लिए ताँबे का अलग से भी एक सिक्का बनाया जाता था। इसमें 11 मासा ताँबा, 4 मासा चाँदी और एक मासा लोहा, रांगा, शीशा एवं भंजन में से कोई एक होता था। इसी सिक्क्के का नाम 'माषक' होता था और इसका भार भी 16 मासा होता था। यह भी चार प्रकार का होता था- 'माषक', 'अर्द्धमाषक', 'पादमाषक' और 'अष्टभाग माषक'। पादमाषक एवं अष्टभाग माषक के लिए काकणी एवं अर्द्धकाणी सिक्के बनाए जाते थे। | पण के चौथे हिस्से का व्यापार करने के लिए ताँबे का अलग से भी एक सिक्का बनाया जाता था। इसमें 11 मासा ताँबा, 4 मासा चाँदी और एक मासा लोहा, रांगा, शीशा एवं भंजन में से कोई एक होता था। इसी सिक्क्के का नाम 'माषक' होता था और इसका भार भी 16 मासा होता था। यह भी चार प्रकार का होता था- 'माषक', 'अर्द्धमाषक', 'पादमाषक' और 'अष्टभाग माषक'। पादमाषक एवं अष्टभाग माषक के लिए काकणी एवं अर्द्धकाणी सिक्के बनाए जाते थे। | ||
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सौ पण पर आठ पण राज्य का लाभांश समझा जाता था, जिसे 'रूपिक' कहा जाता था। सौ पण पर पाँच पण का लाभांश 'ब्याजी' और सौ पण के आठवें भाग को 'पारीक्षिक' कहते थे। यदि कोई व्यक्ति जाली सिक्के बनाता था या उन्हें दूसरों के व्यवहार में लाता था तो प्रत्येक पण पर 25 पण अत्यय<ref>हर्जाना</ref> भरना पड़ता था। परंतु सिक्के बनाने, बेचने, खरीदने और परीक्षा करने का अधिकार जिन्हें राज्य की ओर से मिला हुआ था, उन पर यह हर्जाना लागू नहीं होता था। | सौ पण पर आठ पण राज्य का लाभांश समझा जाता था, जिसे 'रूपिक' कहा जाता था। सौ पण पर पाँच पण का लाभांश 'ब्याजी' और सौ पण के आठवें भाग को 'पारीक्षिक' कहते थे। यदि कोई व्यक्ति जाली सिक्के बनाता था या उन्हें दूसरों के व्यवहार में लाता था तो प्रत्येक पण पर 25 पण अत्यय<ref>हर्जाना</ref> भरना पड़ता था। परंतु सिक्के बनाने, बेचने, खरीदने और परीक्षा करने का अधिकार जिन्हें राज्य की ओर से मिला हुआ था, उन पर यह हर्जाना लागू नहीं होता था। | ||
==कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख== | ==कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख== | ||
वीरों को सम्मानित करने की परंपरा बहुत पुरानी है। जहाँ सूरमाओं को '[[परमवीर चक्र]]', '[[अशोक चक्र (पदक)|अशोक चक्र]]', '[[महावीर चक्र]]', '[[कीर्ति चक्र]]', '[[वीर चक्र]]' और '[[शौर्य चक्र]]' जैसे पदकों से अलंकृत कर युद्ध और शांति काल में बहादुरी के लिए सम्मानित किया जाता है, वैसे ही प्राचीन काल में भी होता था। [[दक्षिण भारत]] में जहाँ वीरों की याद में समाधियाँ बना कर उनके शौर्य का वर्णन किया जाता था, वहीं [[उत्तर भारत]] में वीरों को जागीरें, पदवी और धन देकर पुरस्कृत किया जाता था। [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में तो इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार- | वीरों को सम्मानित करने की परंपरा बहुत पुरानी है। जहाँ सूरमाओं को '[[परमवीर चक्र]]', '[[अशोक चक्र (पदक)|अशोक चक्र]]', '[[महावीर चक्र]]', '[[कीर्ति चक्र]]', '[[वीर चक्र]]' और '[[शौर्य चक्र]]' जैसे पदकों से अलंकृत कर युद्ध और शांति काल में बहादुरी के लिए सम्मानित किया जाता है, वैसे ही प्राचीन काल में भी होता था। [[दक्षिण भारत]] में जहाँ वीरों की याद में समाधियाँ बना कर उनके शौर्य का वर्णन किया जाता था, वहीं [[उत्तर भारत]] में वीरों को जागीरें, पदवी और धन देकर पुरस्कृत किया जाता था।<ref>{{cite web |url= http://www.bharatdefencekavach.com/Hindi/News/97.html|title= वीरों को सम्मानित करने की प्राचीन है हमारी परम्परा|accessmonthday=29 जुलाई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारत डिफेंस कवच|language= हिन्दी}}</ref> [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में तो इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार- | ||
*शत्रु के राजा को मारने वाले को एक लाख प्राचीन मुद्रा पण दी जाती थीं। | *शत्रु के राजा को मारने वाले को एक लाख प्राचीन मुद्रा पण दी जाती थीं। | ||
*शत्रु के प्रधान सेनापति को मारने पर 50 हज़ार पण प्रदान कर पुरस्कृत किया जाता था। | *शत्रु के प्रधान सेनापति को मारने पर 50 हज़ार पण प्रदान कर पुरस्कृत किया जाता था। |
06:27, 29 जुलाई 2014 का अवतरण
पण प्राचीन भारत में प्रचलित एक प्रकार का सिक्का, जो चाँदी तथा ताँबे से बना होता था। 'लक्षणाध्यक्ष'[1] अपनी देख-रेख में सिक्कों का निर्माण करवाता था, जबकि 'रूपदर्शक'[2] अधिकारी इस बात का निर्णय करता था कि कौन-से सिक्के चलने लायक हैं और कौन-से सिक्के कोष में जमा कर देने चाहिए।
प्रकार
चाँदी का सिक्का चार प्रकार का होता था-
- पण
- अर्द्धपण
- पादपण
- अष्टभाग पण
पण में 16 मासा भार होता था, जिसमें 11 मासा चाँदी, 4 मासा ताँबा और शेष एक मासा लोहा, रांगा, शीशा और भंजन में से कोई एक होता था। इसी मात्रा में अर्द्धपण, पादपण और अष्टभाग पण भी बनाया जाता था।[3]
ताँबे से निर्मित माषक
पण के चौथे हिस्से का व्यापार करने के लिए ताँबे का अलग से भी एक सिक्का बनाया जाता था। इसमें 11 मासा ताँबा, 4 मासा चाँदी और एक मासा लोहा, रांगा, शीशा एवं भंजन में से कोई एक होता था। इसी सिक्क्के का नाम 'माषक' होता था और इसका भार भी 16 मासा होता था। यह भी चार प्रकार का होता था- 'माषक', 'अर्द्धमाषक', 'पादमाषक' और 'अष्टभाग माषक'। पादमाषक एवं अष्टभाग माषक के लिए काकणी एवं अर्द्धकाणी सिक्के बनाए जाते थे।
राज्य का लाभांश
सौ पण पर आठ पण राज्य का लाभांश समझा जाता था, जिसे 'रूपिक' कहा जाता था। सौ पण पर पाँच पण का लाभांश 'ब्याजी' और सौ पण के आठवें भाग को 'पारीक्षिक' कहते थे। यदि कोई व्यक्ति जाली सिक्के बनाता था या उन्हें दूसरों के व्यवहार में लाता था तो प्रत्येक पण पर 25 पण अत्यय[4] भरना पड़ता था। परंतु सिक्के बनाने, बेचने, खरीदने और परीक्षा करने का अधिकार जिन्हें राज्य की ओर से मिला हुआ था, उन पर यह हर्जाना लागू नहीं होता था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उल्लेख
वीरों को सम्मानित करने की परंपरा बहुत पुरानी है। जहाँ सूरमाओं को 'परमवीर चक्र', 'अशोक चक्र', 'महावीर चक्र', 'कीर्ति चक्र', 'वीर चक्र' और 'शौर्य चक्र' जैसे पदकों से अलंकृत कर युद्ध और शांति काल में बहादुरी के लिए सम्मानित किया जाता है, वैसे ही प्राचीन काल में भी होता था। दक्षिण भारत में जहाँ वीरों की याद में समाधियाँ बना कर उनके शौर्य का वर्णन किया जाता था, वहीं उत्तर भारत में वीरों को जागीरें, पदवी और धन देकर पुरस्कृत किया जाता था।[5] कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो इसका विस्तार से वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार-
- शत्रु के राजा को मारने वाले को एक लाख प्राचीन मुद्रा पण दी जाती थीं।
- शत्रु के प्रधान सेनापति को मारने पर 50 हज़ार पण प्रदान कर पुरस्कृत किया जाता था।
- सेना नायक को मारने पर दस हज़ार पण प्रदान किया जाता था।
- शत्रु सेना के हाथी मारने या शत्रु का रथ ध्वस्त करने पर पांच हज़ार पण पुरस्कार के रूप में देने का विधान था।
- शत्रु संहार में राज्य के नागरिक यदि उल्लेखनीय सहायता करते थे तो गांव का लगान माफ़ कर दिया जाता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिक्कों का निर्माण तथा परीक्षा का अधिकारी
- ↑ सिक्कों का परीक्षण करने वाला परीक्षक
- ↑ प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (हिन्दी) गूगल बुक्स। अभिगमन तिथि: 29 जुलाई, 2014।
- ↑ हर्जाना
- ↑ वीरों को सम्मानित करने की प्राचीन है हमारी परम्परा (हिन्दी) भारत डिफेंस कवच। अभिगमन तिथि: 29 जुलाई, 2014।