"प्रियप्रवास तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर
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तम – निमज्जित आहट थी हुई। | तम – निमज्जित आहट थी हुई। | ||
निपट नीरवता सब ओर थी। | निपट नीरवता सब ओर थी। | ||
गुण – विहीन हुआ जनु व्योम | गुण – विहीन हुआ जनु व्योम था॥10॥ | ||
इस तमोमय मौन निशीथ की। | इस तमोमय मौन निशीथ की। | ||
सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | सहज – नीरवता क्षिति – व्यापिनी। | ||
पंक्ति 103: | पंक्ति 103: | ||
विकलता अति – कातरता - मयी। | विकलता अति – कातरता - मयी। | ||
विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | विपुल थी परिवर्द्धित हो रही। | ||
निपट – नीरव – नंद – निकेत | निपट – नीरव – नंद – निकेत में॥20॥ | ||
सित हुए अपने मुख - लोम को। | सित हुए अपने मुख - लोम को। | ||
कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | कर गहे दुखव्यंजक भाव से। | ||
पंक्ति 143: | पंक्ति 143: | ||
सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | सुअन प्रात प्रयाण प्रसंग से। | ||
व्यथित था उनको करता कभी। | व्यथित था उनको करता कभी। | ||
परम – त्रास महीपति - कंस | परम – त्रास महीपति - कंस का॥30॥ | ||
पट हटा सुत के मुख कंज की। | पट हटा सुत के मुख कंज की। | ||
विचकता जब थीं अवलोकती। | विचकता जब थीं अवलोकती। | ||
पंक्ति 183: | पंक्ति 183: | ||
टल नहीं सकती यह आपदा। | टल नहीं सकती यह आपदा। | ||
मुझ सशंकित को सब काल ही। | मुझ सशंकित को सब काल ही। | ||
पद – सरोरुह का अवलंब | पद – सरोरुह का अवलंब है॥40॥ | ||
कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | कुल विवर्द्धन पालन ओर ही। | ||
प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | प्रभु रही भवदीय सुदृष्टि है। | ||
पंक्ति 229: | पंक्ति 229: | ||
विफल है करती अनपत्यता। | विफल है करती अनपत्यता। | ||
सहज जीवन को उसके सदा। | सहज जीवन को उसके सदा। | ||
वह सकंटक है करती | वह सकंटक है करती नहीं॥50॥ | ||
उपजती पर जो उर व्याधि है। | उपजती पर जो उर व्याधि है। | ||
सतत संतति संकट - शोच से। | सतत संतति संकट - शोच से। | ||
पंक्ति 269: | पंक्ति 269: | ||
भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | भिड़ नहीं सकते दनुजात भी। | ||
वह महा सुकुमार कुमार से। | वह महा सुकुमार कुमार से। | ||
रण-निमित्त सुसज्जित है | रण-निमित्त सुसज्जित है हुआ॥60॥ | ||
विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | विकट – दर्शन कज्जल – मेरु सा। | ||
सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। | सुर गजेन्द्र समान पराक्रमी। |
12:49, 1 नवम्बर 2014 का अवतरण
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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