"प्रियप्रवास तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर
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हरि न जाग उठें इस सोच से। | हरि न जाग उठें इस सोच से। | ||
सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | सिसकतीं तक भी वह थीं नहीं। | ||
इसलिए उन का | इसलिए उन का दु:ख - वेग से। | ||
हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | हृदया था शतधा अब रो रहा॥33॥ | ||
महरि का यह कष्ट विलोक के। | महरि का यह कष्ट विलोक के। | ||
पंक्ति 168: | पंक्ति 168: | ||
अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | अति - समुज्वल - सुंदर - दीप्ति भी। | ||
मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | मलिन थी अतिही लगती उन्हें॥36॥ | ||
जब कभी घटता | जब कभी घटता दु:ख - वेग था। | ||
तब नवा कर वे निज - शीश को। | तब नवा कर वे निज - शीश को। | ||
महि विलंबित हो कर जोड़ के। | महि विलंबित हो कर जोड़ के। | ||
पंक्ति 245: | पंक्ति 245: | ||
बहु निपीड़ित है नित हो रही। | बहु निपीड़ित है नित हो रही। | ||
किस लिये, तब बालक के लिये। | किस लिये, तब बालक के लिये। | ||
उमड़ है पड़ती | उमड़ है पड़ती दु:ख की घटा॥54॥ | ||
‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ‘जन-विनाश’ प्रयोजन के बिना। | ||
प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | प्रकृति से जिसका प्रिय कार्य्य है। | ||
पंक्ति 395: | पंक्ति 395: | ||
ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ज्यों-ज्यों थीं रजनी व्यतीत करती औ देखती व्योम को। | ||
त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ | त्यों हीं त्यों उनका प्रगाढ़ दु:ख भी दुर्दान्त था हो रहा। | ||
ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ऑंखों से अविराम अश्रु बह के था शान्ति देता नहीं। | ||
बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ | बारम्बार अशक्त-कृष्ण-जननी थीं मूर्छिता हो रही॥86॥ |
14:01, 2 जून 2017 का अवतरण
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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