"प्रभुदत्त ब्रह्मचारी": अवतरणों में अंतर
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'''संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Prabhudutt Brahmachari''; जन्म- [[1885]], [[अलीगढ़]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[1990]], [[वृन्दावन]], [[मथुरा]]) [[संस्कृत]], [[हिन्दी]], [[ब्रजभाषा]] के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्म के पुरोधा थे। वे साधना, समाज सेवा, [[संस्कृति]], [[साहित्य]], स्वाधीनता, शिक्षा आदि के समर्पित पोषक एवं प्रेरणा-स्रोत थे। उनके जीवन के चार मुख्य संकल्प थे- '[[दिल्ली]] में [[हनुमान|हनुमान जी]] की 40 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'राजधानी स्थित [[पांडव क़िला|पांडवों]] के क़िले ([[इन्द्रप्रस्थ]]) में [[विष्णु|भगवान विष्णु]] की 60 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'गौहत्या पर प्रतिबंध' तथा 'श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति'। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी इस सदी के महान [[संत]] थे। उन्होंने सतत् नाम संकीर्तन की ज्योति जलाकर सदैव देश और समाज की समृद्धि की कामना की थी। गौरक्षा, [[गंगा]] की पवित्रता, हिन्दी भाषा, [[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] और [[हिन्दू धर्म]] की सेवा उनके जीवन के लक्ष्य थे। उन्होंने गौरक्षा के मुद्दे पर अनेक अनशन, आन्दोलन तथा यात्राएं भी की थीं। | '''संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Prabhudutt Brahmachari''; जन्म- [[1885]], [[अलीगढ़]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[1990]], [[वृन्दावन]], [[मथुरा]]) [[संस्कृत]], [[हिन्दी]], [[ब्रजभाषा]] के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्म के पुरोधा थे। वे साधना, समाज सेवा, [[संस्कृति]], [[साहित्य]], स्वाधीनता, शिक्षा आदि के समर्पित पोषक एवं प्रेरणा-स्रोत थे। उनके जीवन के चार मुख्य संकल्प थे- '[[दिल्ली]] में [[हनुमान|हनुमान जी]] की 40 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'राजधानी स्थित [[पांडव क़िला|पांडवों]] के क़िले ([[इन्द्रप्रस्थ]]) में [[विष्णु|भगवान विष्णु]] की 60 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'गौहत्या पर प्रतिबंध' तथा 'श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति'। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी इस सदी के महान [[संत]] थे। उन्होंने सतत् नाम संकीर्तन की ज्योति जलाकर सदैव देश और समाज की समृद्धि की कामना की थी। गौरक्षा, [[गंगा]] की पवित्रता, हिन्दी भाषा, [[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] और [[हिन्दू धर्म]] की सेवा उनके जीवन के लक्ष्य थे। उन्होंने गौरक्षा के मुद्दे पर अनेक अनशन, आन्दोलन तथा यात्राएं भी की थीं। | ||
==जन्म तथा शिक्षा== | ==जन्म तथा शिक्षा== | ||
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म [[संवत]] 1942 (1885 ई.) में [[अलीगढ़ ज़िला|जनपद अलीगढ़]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[ग्राम]] अहिवासी नगला में एक निर्धन [[परिवार]] में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम पण्डित मेवाराम था। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ [[संस्कार]] प्राप्त कर इन्होंने आजीवन [[ब्रह्मचर्य|ब्रह्मचर्य व्रत]] धारण किया था। [[बल्देव मथुरा|बल्देव]], [[बरसाना]], [[खुर्जा]], [[नरवर (उत्तर प्रदेश)|नरवर]] एवं [[वाराणसी]] में उन्होंने [[संस्कृत]] का अध्ययन किया। स्वामी करपात्री जी एवं साहित्यकार [[कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर]] उनके सहपाठी थे। वे 'श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव' [[मंत्र]] के द्रष्टा थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहां शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे [[संस्कृत साहित्य]] का गहरा अध्ययन करते रहे। | संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म [[संवत]] 1942 (1885 ई.) में [[अलीगढ़ ज़िला|जनपद अलीगढ़]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[ग्राम]] अहिवासी नगला में एक निर्धन [[परिवार]] में हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम पण्डित मेवाराम था। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ [[संस्कार]] प्राप्त कर इन्होंने आजीवन [[ब्रह्मचर्य|ब्रह्मचर्य व्रत]] धारण किया था। [[बल्देव मथुरा|बल्देव]], [[बरसाना]], [[खुर्जा]], [[नरवर (उत्तर प्रदेश)|नरवर]] एवं [[वाराणसी]] में उन्होंने [[संस्कृत]] का अध्ययन किया। स्वामी करपात्री जी एवं साहित्यकार [[कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर]] उनके सहपाठी थे। वे 'श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव' [[मंत्र]] के द्रष्टा थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहां शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे [[संस्कृत साहित्य]] का गहरा अध्ययन करते रहे। | ||
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10:06, 9 नवम्बर 2014 का अवतरण
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
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पूरा नाम | संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी |
जन्म | 1885 |
जन्म भूमि | अलीगढ़, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 1990 |
मृत्यु स्थान | वृन्दावन, मथुरा |
पति/पत्नी | पण्डित मेवाराम |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | ब्रजभाषा के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्म के पुरोधा। |
प्रसिद्धि | साधना, समाज सेवा, संस्कृति, साहित्य, स्वाधीनता, शिक्षा आदि के समर्पित पोषक एवं प्रेरणा-स्रोत। |
नागरिकता | भारतीय |
जेल यात्रा | महात्मा गाँधी के आह्वान पर प्रभुदत्त जी ने पढ़ाई छोड़ दी तथा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेज़ों के विरुद्ध आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कठोर कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। |
विशेष | प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को महाकाव्य के रूप में छन्दों में लिखा था। 'भागवत चरित कोश' ब्रजभाषा में लिखने का एकमात्र श्रेय इन्हीं को प्राप्त है। |
अन्य जानकारी | भारत के स्वतंत्र होने पर राजनेताओं की विचारधारा से दु:खी होकर वे सदा के लिए राजनीति से अलग हो गए और झूसी में 'हंसस्कूल' नामक स्थान पर वट वृक्ष के नीचे तप करने लगे। |
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी (अंग्रेज़ी: Prabhudutt Brahmachari; जन्म- 1885, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 1990, वृन्दावन, मथुरा) संस्कृत, हिन्दी, ब्रजभाषा के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्म के पुरोधा थे। वे साधना, समाज सेवा, संस्कृति, साहित्य, स्वाधीनता, शिक्षा आदि के समर्पित पोषक एवं प्रेरणा-स्रोत थे। उनके जीवन के चार मुख्य संकल्प थे- 'दिल्ली में हनुमान जी की 40 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'राजधानी स्थित पांडवों के क़िले (इन्द्रप्रस्थ) में भगवान विष्णु की 60 फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना', 'गौहत्या पर प्रतिबंध' तथा 'श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति'। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी इस सदी के महान संत थे। उन्होंने सतत् नाम संकीर्तन की ज्योति जलाकर सदैव देश और समाज की समृद्धि की कामना की थी। गौरक्षा, गंगा की पवित्रता, हिन्दी भाषा, भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म की सेवा उनके जीवन के लक्ष्य थे। उन्होंने गौरक्षा के मुद्दे पर अनेक अनशन, आन्दोलन तथा यात्राएं भी की थीं।
जन्म तथा शिक्षा
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का जन्म संवत 1942 (1885 ई.) में जनपद अलीगढ़, उत्तर प्रदेश के ग्राम अहिवासी नगला में एक निर्धन परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम पण्डित मेवाराम था। विदुषी माता अयुध्यादेवी से संत सुलभ संस्कार प्राप्त कर इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था। बल्देव, बरसाना, खुर्जा, नरवर एवं वाराणसी में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। स्वामी करपात्री जी एवं साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर उनके सहपाठी थे। वे 'श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव' मंत्र के द्रष्टा थे। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी का व्यक्तित्व विलक्षण और विराट था। छोटी अवस्था में ही वे गृह त्यागकर गुरुकुल में रहे, जहां शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। बचपन से ही सांसारिकता से विरक्त रहे ब्रह्मचारी जी ने तप को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे संस्कृत साहित्य का गहरा अध्ययन करते रहे।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
महात्मा गाँधी का आह्वान सुनकर पढ़ाई छोड़कर वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। अंग्रेज़ों के विरुद्ध आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कठोर कारावास का दण्ड भोगना पड़ा। भारत के स्वतंत्र होने पर राजनेताओं की विचारधारा से दु:खी होकर वे सदा के लिए राजनीति से अलग हो गए और झूसी में 'हंसस्कूल' नामक स्थान पर वट वृक्ष के नीचे तप करने लगे। 'गायत्री महामंत्र' का जप किया। वैराग्य भाव से हिमालय की ओर भी गए और फिर मथुरा आकर वृन्दावन आकर रहे।
ब्रजभाषा के कवि
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ब्रजभाषा के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने सम्पूर्ण भागवत को महाकाव्य के रूप में छन्दों में लिखा था। 'भागवत चरित कोश' ब्रजभाषा में लिखने का एकमात्र श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।
'गौहत्या निरोध समिति' का गठन
भारत में गायों की हत्या होते देखकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने 'गौहत्या निरोध समिति' बनाई और उसके अध्यक्ष बने। सन 1960-1961 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने कई बार भ्रमण किया। 1967 में गौहत्या के प्रश्न को लेकर उन्होंने 80 दिन तक व्रत किया और सरकार के विशेष आग्रह पर अपना व्रत भंग किया। ब्रह्मचारी जी द्वारा दिल्ली, वृन्दावन, बद्रीनाथ और प्रयाग में स्थापित संकीर्तन भवन के नाम से चार आश्रम आज भी सुचारू रूप से चल रहे हैं।
चुनाव तथा पराजय
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी के भी निकट रहे। इसी बीच जवाहरलाल नेहरू, जब हिन्दू समाज विरोधी 'हिन्दू कोड बिल' लाए, तो मित्रों के प्रोत्साहन से ब्रह्मचारी जी चुनाव में खड़े हुए। आज़ाद भारत के पहले आम चुनाव 1952 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट पर पंडित जवाहरलाल नेहरू को स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनौती दी थी। ब्रह्मचारी जी को स्वामी करपात्री जी की 'अखिल भारतीय राम राज्य परिषद' व 'हिन्दू महासभा' का समर्थन प्राप्त था। इनका विरोध नेहरू जी के 'हिन्दू कोड बिल' को लेकर था। नेहरू जी की पैतृक भूमि इलाहाबाद में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का प्रचार इस कदर आकर्षक और भावनात्मक था कि जनता से लेकर मीडिया तक आंदोलित थे। केसरिया पगड़ी, शानदार ऐनक और सफ़ेद रंग जामे में सजे-धजे ब्रह्मचारी, उनके भजन गायकों और नर्तकों ने लोगों को खूब लुभाया। ब्रह्मचारी भाषणों में जनता को बताते कि इस विधेयक से धर्म का नाश होगा, परिवारिक शोषण बढ़ेगा, भई-बहनों में वैमनस्य पैदा होगा, जातीय मतभेद होंगे, संपत्ति विवाद और विवाह में विसंगतियां बढ़ेगीं और इन झगड़ों से वकीलों को फायदा होगा। ब्रह्मचारी जी के ओजस्वी भाषाणों का फूलपुर की जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे बुरी तरह पराजित हुए। उसके साथ ही करपात्री जी का 'राम राज्य परिषद' भाजपा के पुराने घर 'भारतीय जनसंघ' में समा गया।[1]
साहित्य रचना
दक्षिण भारत की यात्रा के समय प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने एक स्थान पर 26 फुट की हनुमान जी की प्रतिमा देखी तो वैसी ही एक विशालकाय प्रतिमा बनवाने का और उसे दिल्ली के आश्रम में दिल्ली के कोतवाल के रूप में स्थापित करने का संकल्प लिया। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी भारतीय संस्कृति के स्तम्भ रहे थे। उन्हें निम्न साहित्यिक रचनाएँ भी की थीं-
- 'भारतीय संस्कृति व शुद्धि'
- 'महाभारत के प्राण महात्मा कर्ण'
- 'गोपालन'
- 'शिक्षा'
- 'बद्रीनाथ दर्शन'
- 'मुक्तिनाथ दर्शन'
- 'महावीर हनुमान'
निधन
संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने संवत 2047 (1990 ई.) के चैत्र माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को भौतिक देह का त्याग प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन में किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लाल कालीन पर नकली भगवानों की खड़ाऊं (हिन्दी) पत्रकार। अभिगमन तिथि: 09 नवम्बर, 2014।
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