"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-13": अवतरणों में अंतर
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ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वंद्व-संज्ञयोः।। | ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वंद्व-संज्ञयोः।। | ||
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शुचिता, तप, सहनशीलता, मितभाषण ( | शुचिता, तप, सहनशीलता, मितभाषण ( फ़ालतू न बोलना ), स्वाध्याय, ऋजुता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में समता, | ||
8. सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्। | 8. सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्। |
11:04, 5 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
4. माया तरण
5. तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः।
अमाययानुवृत्या यैस् तुष्येदात्मात्मदो हरिः।।
अर्थः
यहाँ ‘एकमात्र गुरु ही आत्मदैवत है’ ऐसा मानकर निष्कपट भाव से निरंतर उनकी सेवा द्वारा ( आगे वर्णित ) भागवत-धर्म सीखने चाहिए। इससे आत्मस्वरूप प्राप्त करा देने वाले आत्मा हरि प्रसन्न होंगे।
6. सर्वतो मनसोऽसंगं आदौ संगं च साधुषु।
दया मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम्।।
अर्थः
पहले सर्वत्र मन की अनासक्ति, फिर भगवद्भक्तों से आसक्ति यानी प्रेम और प्राणियों पर यथायोग्य अच्छी तरह दयाभाव, मैत्री और विनय,
7. शौचं तपस् तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वंद्व-संज्ञयोः।।
अर्थः
शुचिता, तप, सहनशीलता, मितभाषण ( फ़ालतू न बोलना ), स्वाध्याय, ऋजुता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में समता,
8. सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम्।
विविक्त-चीर-वसनं संतोषं येन केनचित्।।
अर्थः
‘सर्वत्र आत्मा है और वही ईश्वर है’ ऐसा चिंतन करना, ‘केवल एक तत्व है और वह मैं हूँ’ ऐसी भावना, सीमित कर देनेवाला घर कहीं न होना ( अनिकेतता ), वन्य-वस्त्र याने वल्कल पहनना और जो मिले, उसमें संतोष मानना,
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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