"भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-15": अवतरणों में अंतर
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5. ब्रह्म स्वरूप
1. स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च।
देहेंद्रियासु-हृदयानि चरन्ति येन
संजीवितानि तदवेहि परं नरेंद्र।।
अर्थः
राजन् ! जो इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण है और नहीं भी है; जो स्वप्न, जाग्रति और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में है और उनसे बाहर भी है; जिसके आधार पर देह, इंद्रियाँ, प्राण और हृदय चैतन्ययुक्त होकर अपने-अपने व्यापार करते हैं, उसे परमतत्व जानो।
2. नैतन्मनो विशति वाग् उत चक्षुरात्मा
प्राणेंद्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः।
शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयात्म-मूलं
अर्थोक्तमाह यदृते न निषेध-सिद्धिः।।
अर्थः
जिस तरह अग्नि की ज्वालाएँ अग्नि को जला या प्रकाशित नहीं कर सकती, उसी तरह परम तत्व तक न मन की गति है और न वाणी की ही। नेत्र उसे देख नहीं सकते, बुद्धि उनका विचार नहीं कर सकती। प्राण और इंद्रियाँ उसके पास भी नहीं पहुँच पाते। श्रुतियाँ भी वह आत्मतत्व ‘अमुक है’ इस प्रकार वर्णन नहीं कर पातीं, इसीलिए ‘नेति नेति’ कहकर निषेधरूप से ही उसका वर्णन करती हैं। इस निषेध की सिद्धि के लिए भी कुछ भावात्मक वस्तु आवश्यक है और वही ब्रह्म है।
3. सत्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ
सूत्रं महान् अहमिति प्रवदन्ति जीवम्।
ज्ञान-क्रियार्थ-फल-रूपतयोरू-शक्ति
ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत्।।
अर्थः
आरंभ में एकमात्र ब्रह्म था। उसी को सत्व, रज और तम इस तरह त्रिगुणात्मक प्रधान याने ‘प्रकृति’ कहते हैं। उसी को सूत्र, महान् और अहंरूपी जीव भी कहते हैं। वह अत्यंत शक्तिमान् ब्रह्म ही ज्ञान, क्रिया, अर्थ और फल इन विभिन्न रूपों में प्रकाशित होता है। वह सत् और असत् से परे हैं।
4. नात्मा जजान, न मरिष्यति, नैधतेऽसौ
न क्षीयते, सवनविद् व्यभिचारिणां हि।
सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धि मात्रं
प्राणी यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत्।।
अर्थः
ब्रह्मरूप आत्मा न तो कभी जनमा और न कभी मरेगा ही। वह न कभी बढ़ता है और न घटता है। जो कुछ परिवर्तनशील है, सबके परिवर्तन का वह साक्षी है। वह सर्वत्र, शाश्वत- अजर-अमर- और केवल ज्ञानरूप है। जिस तरह प्राणि-शरीर में स्थित प्राण के एक होने पर भी इंद्रिय-भेद से अनेक नाम-रूप होते हैं, उसी तरह एक ही ब्रह्म की ( इंद्रियों द्वारा ) अनेक प्रकारों से कल्पना की जाती है।
5. अंडेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु
प्राणी हि जीवमुपधावति तत्र तत्र।
सन्ने यदिंद्रिय-गणेऽहमि च प्रसुप्ते
कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर् नः।।
अर्थः
अंडों में, पेशियों में, वृक्षों में और अनिश्चित योनियों के इन सभी जीव-शरीरों में प्राणशक्ति जीव के पीछे-पीछे जाती ही रहती हैं। जीव की इंद्रियाँ लीन हो गयी हों, अहं गाढ़ निद्रा में सो रहा हो और कूटस्थ भी अपने मूल स्वरूप में लीन हो जाए; फिर भी हमें उसका अनुस्मरण होता ही रहता है।
6. यर्ह्यब्ज-नाभ-चरणैषणयोरु-भक्त्या
चेतो-मलानि विधमेद् गुण-कर्मजानि।
तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्वं
साक्षात् यथाऽमल-दृशोः सवितृ-प्रकाशः।।
अर्थः
जिस तरह स्वच्छ नेत्रोंवाले मनुष्य को सूर्यप्रकाश स्पष्ट दीख पड़ता है, उसी तरह हरिचरण-वासनारूप महान् भक्ति से चित्त के गुण-कर्मजन्य मल साफ कर देना चाहिए। तो उस शुद्ध हृदय में आत्म स्वरूप साक्षात् प्रकट होगा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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