"शुद्धोदन": अवतरणों में अंतर
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*शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन थे और उनकी रानी महामाया थी। शाक्य गणराज्य की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुंबिनी]] थी। | *शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन थे और उनकी रानी महामाया थी। शाक्य गणराज्य की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुंबिनी]] थी। | ||
*शुद्धोदन ने अपने पुत्र को महाभिनिष्क्रमण के उपरांत छ: वर्ष तक नहीं देखा था। पुत्र की प्रसिद्धि के विषय में सुनकर उन्होंने पुत्र को बुलाने की कामना से बारी-बारी से अनेक अमात्य भेज किंतु प्रत्येक अमात्य ने भगवान के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण की तथा शुद्धोदन का संदेश नहीं दिया। | *शुद्धोदन ने अपने पुत्र को महाभिनिष्क्रमण के उपरांत छ: वर्ष तक नहीं देखा था। पुत्र की प्रसिद्धि के विषय में सुनकर उन्होंने पुत्र को बुलाने की कामना से बारी-बारी से अनेक अमात्य भेज किंतु प्रत्येक अमात्य ने भगवान के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण की तथा शुद्धोदन का संदेश नहीं दिया। | ||
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05:50, 17 अप्रैल 2010 का अवतरण
शुद्धोदन / Shudhodan
- शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन थे और उनकी रानी महामाया थी। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी थी।
- शुद्धोदन ने अपने पुत्र को महाभिनिष्क्रमण के उपरांत छ: वर्ष तक नहीं देखा था। पुत्र की प्रसिद्धि के विषय में सुनकर उन्होंने पुत्र को बुलाने की कामना से बारी-बारी से अनेक अमात्य भेज किंतु प्रत्येक अमात्य ने भगवान के पास जाकर प्रव्रज्या ग्रहण की तथा शुद्धोदन का संदेश नहीं दिया।
- अंत में राजा ने कालउदायी को भेजा। कालउदायी का जन्म बोधिसत्व के साथ ही हुआ था तथा दोनों बाल्यकाल में साथ-साथ खेले थे। कालउदायी ने वहां जाकर प्रव्रज्या ली तथा भगवान बुद्ध को शुद्धोदन को दर्शन देने के लिए प्रेरित किया।
- बुद्ध अनेक भिक्षुओं सहित राज्य में पहुंचे। शुद्धोदन के साथ-साथ परिवार के सभी लोग उनके दर्शनों के लिए पहुंचे किंतु राहुल-माता नहीं आयी। उसने कहा-'यदि मुझमें गुण हैं तो वे यहीं आकर मुझे दर्शन देंगे।' बुद्ध ने उसे वहीं जाकर दर्शन दिये।
- बुद्ध ने जब काशाय वस्त्र पहनना प्रांरभ किया था, तभी राहुल-माता ने भी वैसे ही वस्त्र पहनने आरंभ कर दिये थे। भगवान की भांति ही वह दिन में एक बार भोजन करती, वैसे ही खटिया पर सोती थी। जिस दिन राजकुमार नंद का विवाह तथा राज्याभिषेक होने वाला था, उसी दिन भगवान ने उसे प्रव्रजित किया। राहुल ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। शुद्धोदन परिवार के प्रत्येक व्यक्ति की प्रव्रज्या पर शोकाकुल होता था। उसने भगवान से जाकर कहा कि उन्हें माता-पिता की स्वीकृति के बिना किसी के पुत्र को प्रव्रजित नहीं करना चाहिए। बुद्ध ने इसे अपने संघ का नियम बना लिया।<balloon title="बुध्द चरित, 1।12" style="color:blue">*</balloon>