"सदस्य:रविन्द्र प्रसाद/अभ्यास": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक शासक
{{अस्वीकरण}}
|चित्र=Chatrapati-Shivaji.jpg
{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=स्वस्तिक|लेख का नाम=स्वस्तिक (बहुविकल्पी)}}
|चित्र का नाम=शिवाजी
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
|पूरा नाम=शिवाजी राजे भोंसले
|चित्र=swt red.jpg
|अन्य नाम=
|चित्र का नाम=स्वस्तिक
|जन्म=[[19 फ़रवरी]], 1630 ई.
|विवरण=पुरातन [[वैदिक]] सनातन [[संस्कृति]] का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह [[देवता|देवताओं]] की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।
|जन्म भूमि=[[शिवनेरी]], [[महाराष्ट्र]]
|शीर्षक 1=स्वस्तिक का अर्थ
|मृत्यु तिथि=[[3 अप्रैल]], 1680 ई.
|पाठ 1=सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। [[संस्कृत]] व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
|मृत्यु स्थान=[[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]
|शीर्षक 2=आकृति
|पिता/माता=[[शाहजी भोंसले]], [[जीजाबाई]]
|पाठ 2= [[भारत]] में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।
||पति/पत्नी=साइबाईं निम्बालकर
|शीर्षक 3=ऐतिहासिक उल्लेख
|संतान=[[सम्भाजी]]
|पाठ 3=[[मोहन जोदड़ो|मोहन जोदड़ों]], [[हड़प्पा संस्कृति]], [[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]], [[रामायण]], [[हरिवंश पुराण]], [[महाभारत]] आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।
|उपाधि=छत्रपति
|शीर्षक 4=स्वस्ति मंत्र
|शासन काल=1642 - 1680 ई.
|पाठ 4=ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
|शासन अवधि=38 वर्ष
|शीर्षक 5=
|धार्मिक मान्यता=[[हिन्दू धर्म|हिन्दू]]
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|राज्याभिषेक=[[6 जून]], 1674 ई.
|शीर्षक 6=
|युद्ध=
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|सुधार-परिवर्तन=
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|राजधानी=
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|पूर्वाधिकारी=[[शाहजी भोंसले]]
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|उत्तराधिकारी=[[सम्भाजी]]
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|राजघराना=[[मराठा]]
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|वंश=भोंसले
|पाठ 10=
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|संबंधित लेख=
|मक़बरा=
|अन्य जानकारी=भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को [[विष्णु]], [[सूर्य देव|सूर्य]], सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे [[गणेश]] का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।
|संबंधित लेख=[[महाराष्ट्र]], [[मराठा]], [[मराठा साम्राज्य]], [[ताना जी]], [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]], [[दादोजी कोंडदेव]], [[राजाराम शिवाजी|राजाराम]], [[ताराबाई]]।
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'''शिवाजी''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Shivaji'', पूरा नाम: 'शिवाजी राजे भोंसले', जन्म: [[19 फ़रवरी]], 1630 - मृत्यु: [[3 अप्रैल]], 1680) [[पश्चिम भारत|पश्चिमी भारत]] के [[मराठा साम्राज्य]] के संस्थापक थे। शिवाजी के [[पिता]] का नाम [[शाहजी भोंसले]] और [[माता]] का नाम [[जीजाबाई]] था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। उनके निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ।
'''स्वस्तिक''' [[हिन्दू धर्म]] का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन [[धर्म]] प्रतीक है। यह [[देवता|देवताओं]] की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाओं का संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही [[भारतीय संस्कृति]] में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता [[गणेश]] की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी [[लक्ष्मी]] के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।
==जीवन परिचय==
==धार्मिक मान्यताएँ==
इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव,जीजाबाई तथा [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]] की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त कराना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में [[पूना |पूना]] के निकट [[तोरण दुर्ग|तोरण के दुर्ग]] पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह '''साइबाईं निम्बालकर''' के साथ सन 1641 में [[बंगलौर]] में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
*हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री [[गणेश]] प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं।
*किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
*इसे हमारे सभी [[व्रत]], पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।
*देवपूजन, [[विवाह]], व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिह्न वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वस्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नज़र नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
*पूजा स्थल, तिज़ोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वस्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में [[मेंहदी]] से स्वस्तिक चिह्न बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।<ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक">{{cite web |url=http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=806 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=लेक्स पेराडाइस |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
*कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाज़े पर, [[वेद|वेदों]]-[[पुराण|पुराणों]] में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और [[आभूषण|आभूषणों]] में सजने लगा है।
*स्वस्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, [[अग्निदेव|अग्नि]], [[इन्द्र]], [[वरुण देवता|वरुण]] एवं सोम की पूजा हेतु एवं [[सप्तर्षि|सप्तऋषियों]] के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।
*स्वस्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। इसके अपमान व ग़लत प्रयोग से बचना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वस्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा, चिन्ता रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति भी दिलाता है।
*ज्योतिष में इस मांगलिक चिह्न को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वस्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।
*[[हल्दी]] से अंकित स्वस्तिक शत्रु शमन करता है। स्वस्तिक 27 [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिह्न नकारात्मक [[ऊर्जा]] का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।  [[चित्र:Swastika-Ganesha.jpg|thumb|left|स्वस्तिक]]
==स्वस्तिक का अर्थ==
{{tocright}}
[[भारतीय संस्कृति]] में [[वैदिक काल]] से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे [[हिन्दू धर्म]] का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। [[संस्कृत]] व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
स्वस्तिक शब्द '''सु+अस+क''' से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और '' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ '''अच्छा या मंगल करने वाला'''। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न 'स्वस्तिक' कहा गया है।


==आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ==
स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम सवालों के एक जवाब के रूप में किया जाता है। शायद इसलिए भी यह निशान मानव जीवन में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दर, श्रेयस्कर, अस् अर्थात् उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश हो, वह स्वस्तिक है।
शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय [[भारत]] पर मुस्लिम शासन था। [[उत्तर भारत|उत्तरी भारत]] में मुग़लों तथा दक्षिण में [[बीजापुर]] और [[गोलकुंडा]] में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिन्दुओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।
[[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|200px|left]]
====शक्ति में वृद्धि====
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह [[औरंगज़ेब]] ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति [[जयसिंह|मिर्जा राजा जयसिंह]] के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया।
==शिवाजी और जयसिंह==
शिवाजी को कुचलने के लिए [[राजा जयसिंह]] ने [[बीजापुर]] के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में [[24 अप्रैल]], 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और [[22 जून]], 1665 ई. को '[[पुरन्दर की सन्धि]]' सम्पन्न हुई।
;सन्धि की शर्तें
इतिहास प्रसिद्ध इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-
#शिवाजी को मुग़लों को अपने 23 क़िले, जिनकी आमदनी 4 लाख हूण प्रति वर्ष थी, देने थे।
#सामान्य आय वाले, लगभग एक लाख हूण वार्षिक की आमदनी वाले, 12 क़िले शिवाजी को अपने पास रखने थे।
#शिवाजी ने [[मुग़ल]] सम्राट [[औरंगज़ेब]] की सेवा में अपने पुत्र [[शम्भाजी]] को भेजने की बात मान ली एवं मुग़ल दरबार ने शम्भाजी को 5000 का [[मनसब]] एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।


#मुग़ल सेना के द्वारा बीजापुर पर सैन्य अभियान के दौरान बालाघाट की जागीरें प्राप्त होती, जिसके लिए शिवाजी को मुग़ल दरबार को 40 लाख हूण देना था।
स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वस्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।
==आगरा यात्रा==
अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी [[आगरा]] के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह [[9 मई]], 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 [[मराठा]] सैनिकों के साथ [[मुग़ल]] दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी [[13 अगस्त]], 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और [[22 सितम्बर]], 1666 ई. को [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि "यदि सम्राट उसे (शिवाजी) को क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उसे 'राजा' की उपाधि प्रदान की। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से [[9 मार्च]], 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को [[बरार]] की जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया।
====सन्धि का उल्लंघन====
1667-1669 ई. के बीच के तीन वर्षों का उपयोग शिवाजी ने विजित प्रदेशों को सुदृढ़ करने और प्रशासन के कार्यों में बिताया। 1670 ई. में शिवाजी ने 'पुरन्दर की संधि' का उल्लंघन करते हुए मुग़लों को दिये गये 23 क़िलों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। तानाजी मालसुरे द्वारा जीता गया 'कोंडाना', जिसका फ़रवरी, 1670 ई. में शिवाजी ने नाम बदलकर '[[सिंहगढ़ दुर्ग|सिंहगढ़]]' रखा दिया था, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क़िला था।


[[13 अक्टूबर]], 1670 ई. को शिवाजी ने तीव्रगति से [[सूरत]] पर आक्रमण कर दूसरी बार इस बन्दरगाह नगर को लूटा। शिवाजी ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण सफलता के बाद दक्षिण की [[मुग़ल]] रियासतों से हीं नहीं, बल्कि उनके अधीन राज्यों से भी 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' लेना आरम्भ कर दिया। 15 फ़रवरी, 1671 ई. को 'सलेहर दुर्ग' पर भी शिवाजी ने क़ब्ज़ा कर लिया। शिवाजी के विजय अभियान को रोकने के लिए औरंगज़ेब ने महावत ख़ाँ एवं बहादुर ख़ाँ को भेजा। इन दोनों की असफलता के बाद औरंगज़ेब ने बहादुर ख़ाँ एवं दिलेर ख़ाँ को भेजा। इस तरह 1670-1674 ई. के मध्य हुए सभी मुग़ल आक्रमणों में शिवाजी को ही सफलता मिली और उन्होंने सलेहर, मुलेहर, जवाहर एवं रामनगर आदि क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1672 ई. में शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को [[बीजापुर]] से छीन लिया। मराठों ने [[पाली ज़िला|पाली]] और [[सतारा]] के दुर्गों को भी जीत लिया।
[[अमरकोश]] में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या '''वसुधैव कुटुम्बकम्''' की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिह्न की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।<ref>{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2058038.cms?prtpage=1 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
==राजनीतिक स्थिति==
दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी एक सशक्त मराठा आंदोलन के उदय में सहायक हुई। अहमद नगर राज्य के बिखराव और [[अकबर]] की मृत्यु के पश्चात दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाके जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुग़लों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग राज्य की स्थापना के लिए किया। यह कहना तो कठिन है कि मराठों के उत्थान में उपर्युक्त तथ्य कहाँ तक उत्तरदायी थे और इसमें अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की दृढ़ इच्छा शक्ति का कितना हाथ था। फिर भी, यदि शिवाजी की नीतियों के सामाजिक पहलुओं और उनका साथ देने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत सीमा तक स्पष्ट हो सकती है।
====किसानों के साथ सीधा संबंध====
[[चित्र:Shivaji-Maharaj-With-Jijamata.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[जीजाबाई|जीजामाता]] के साथ|thumb|220px]]
इतिहासकार बड़े उत्साहपूर्वक शिवाजी के क्रांतिकारी भू-कर सुधारों की बात करते हैं, जिन्होंने उदीयमान राज्य को एक विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। रानाडे लिखते हैं, <blockquote>'शिवाजी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे किसी भी नागरिक या सैन्य प्रमुख को जागीरें नहीं देंगे। भारत में केंद्र विमुख एवं बिखराव की प्रवृत्तियाँ सदा ही बलवान रही हैं, और जागीरें देने की प्रथा, जागीरदारों को भू-कर से प्राप्त धन द्वारा अलग से अपनी सेना रखने की अनुमति देने से यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सुव्यवस्थित शासन लगभग असंभव हो जाता है––अपने शासन काल में शिवाजी ने केवल मंदिरों को एवं दान धर्म की दिशा में ही भूमि प्रदान की थी।'</blockquote> [[यदुनाथ सरकार|जदुनाथ सरकार]] ने भी उपर्युक्त मत का ही समर्थन किया है और कहा है कि शिवाजी किसानों को अपनी ओर इसीलिए कर सके कि उन्होंने ज़मीदारी और [[जागीरदारी प्रथा]] को बंद किया और राजस्व प्रशासन के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संबंध स्थापित किया।
[[चित्र:Sinhagarh-Fort-Pune.jpg|thumb|[[सिंहगढ़ क़िला]], [[पुणे]]|250px|left]]
किंतु सभासद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिवाजी के राजस्व प्रशासन के संबंध में ऐसे बड़े-बड़े दावे करना निराधार है और इसे जल्दबाज़ी में बनाई गई धारणा ही कहा जाएगा। उनका कहना है कि शिवाजी ने देसाईयों के दुर्गों और सुदृढ़ जमाव को नष्ट किया और जहाँ कहीं मज़बूत क़िले थे वहाँ अपनी दुर्ग-सेना रखी। उनका यह भी कहना है कि शिवाजी ने मिरासदारों द्वारा मनमाने ढंग से वसूल किए जाने वाले उपहारों या हज़ारे को बंद करवाया और नक़द एवं अनाज के रूप में गाँवों से जमींदारों का हिस्सा निश्चित किया। साथ ही उन्होंने देशमुखों, देशकुलकर्णियों, पाटिलों और कुलकर्णियों के अधिकार एवं अनुलाभ भी तय किए, इन्हीं कथनों से प्रेरित होकर आधुनिक इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी ने भूमि प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि सभासद ऐसी संभावना की बात करता है किंतु कदाचित यह शिवाजी या स्वयं सभासद का अपेक्षित आदर्श रहा हो, क्योंकि वह स्वयं एकाधिक स्थानों पर शिवाजी द्वारा भूमि प्रदान किए जाने की बात कहता है। यही लक्ष्य एक अन्य तत्कालीन रचना आज्ञापत्र में ध्वनित होता है, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान वतन वैसे ही चलते रहेंगे और उनके पास जो भी है उसमें थोड़ी भी वृद्धि नहीं की जाएगी और न ही उसे रत्ती भर कम किया जाएगा। इसमें यह चेतावनी भी दी गई है कि 'किसी वृत्ति (वतन) का प्रत्यादान करना पाप है---भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो।' उचित संदर्भ में रखे जाने पर सभासद के कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पाटिल, कुलकर्णी और देशमुख राजस्व एकत्र करते थे और उसमें से राज्य को अपनी इच्छानुसार अंश देते थे जो प्रायः बहुत कम होता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली, दुर्ग इत्यादि बनवा लिए, और प्यादे एवं बंदूकची लेकर चलने लगे। वे सरकारी राजस्व अधिकारी की परवाह नहीं करते थे और यदि वह अधिक राजस्व की माँग करता था तो लड़ाई-झगड़े पर उतर आते थे। यह वर्ग विद्रोही हो उठा था। इन्हीं की गढ़ियों और दुर्गों पर शिवाजी ने धावा बोला था।
[[चित्र:Statue-Shivaji-Pratapgarh-Fort-2.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[महाराष्ट्र]]|thumb|250px]]


====राजस्व वसूली====
==स्वस्तिक का आकृति==
स्पष्ट है कि शिवाजी शांतिप्रिय ज़मीदारों के नहीं अपितु केवल उन्हीं के विरुद्ध थे जो उनके राजनीतिक हितों के लिए गंभीर ख़तरा बन गए थे। स्पष्ट है कि वे राजस्व वसूली की संपूर्ण मशीनरी को समाप्त नहीं कर सकते थे। इसलिए ऐसा नहीं है कि इसके स्थान पर नई व्यवस्था लाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं थे। वे केवल इतना चाहते थे कि राजस्व की गड़बड़ी दूर हो और राज्य को उचित अंश मिले। यह भी स्पष्ट है कि शिवाजी को बड़े देशमुखों के विरोध का सामना करना पड़ा। ये देशमुख स्वतंत्र मराठा राज्य के पक्ष में नहीं थे और बीजापुर के सांमत ही बने रहना चाहते थे जिससे अपने वतनों के प्रशासन में अधिक स्वायत्त रह सकें। यही शिवाजी का धर्मसंकट था। देशमुखों के समर्थन के बिना वे स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे। अतः शिवाजी ने इस नाज़ुक राजनीतिक स्थिति का सामना करने के लिए भय और प्रीति की नीति अपनाई। कुछ बड़े देशमुखों को तो उन्होंने सैन्य शक्ति से पराजित किया और कुछ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। बड़े देशमुखों के साथ शिवाजी की इस अनोखी लड़ाई में छोटे देशमुखों ने शिवाजी का साथ दिया। बड़े देशमुख छोटे देशमुखों को सताते थे और ज़मीन की बंदोबस्ती और कृषि को बढ़ावा देने की शिवाजी की नीति छोटे देशमुखों के लिए हितकर थी। संपूर्ण दक्षिण पर शिवाजी के सरदेशमुखी के दावे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मोरे, शिर्के और निंबालकर देशमुखों के परिवारों में विवाह संबंध करके भी शिवाजी ने अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाया। इससे मराठा समाज में उनकी सम्मानजनक स्वीकृति सरल हो गई।
स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। [[भारत]] में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। ( या स्वस्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वस्तिक बन जाता है। ) रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे '''दक्षिणावर्त स्वस्तिक''' (घडी की सूई चलने की दिशा) कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे '''वामावर्त स्वस्तिक''' (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।
[[चित्र:Swastik-3.jpg|thumb|300px|स्वस्तिक]]
[[ॐ]] एवं स्वस्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। स्वस्तिक चिह्न की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल की प्रतीक माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल और केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह ॐ का ही विकृत रूप है। इन रेखाओं को आचार्य अभिनव गुप्त ने नाद ब्रह्म अथवा अक्षर ब्रह्म का परिचायक माना है। नाद के पश्यंती, मध्यमा तथा बैखरी-तीन रूप हैं। अत:स्वस्तिक ब्रह्म का प्रतीक है।


==मुग़लों और दक्षिणी राज्यों के साथ संबंध==
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।
यद्यपि मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-47 के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने [[पूना]] के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की। जैसे- [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], कोडंना और तोरना। फिर 1656 में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और [[जावली]] पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल [[शाहजादा मुराद]], जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था—इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया। जिसकी कीमत चुकानी पड़ी बीजापुर को।
[[चित्र:Tiger-Claws.jpg|बघ नखा|left|thumb|250px]]
{{दाँयाबक्सा|पाठ=जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया।|विचारक=}}
====अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध====
उन्होंने समुद्र और घाटों के बीच तटीय क्षेत्र कोंकण पर धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करता। उसने अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की टुकड़ी शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजी। उन दिनों छल-कपट और विश्वासघात की नीति अपनाना आम बात थी और शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ाँ दोनों ने ही अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया। शिवाजी की सेना को खुले मैदान में लड़ने का अभ्यास नहीं था, अतः वह अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध करने से कतराने लगा। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। इस घटना को लेकर ग्रांट डफ़ जैसे यूरोपीय इतिहासकार शिवाजी पर विश्वासघात और हत्या का आरोप लगाते हैं जो सरासर ग़लत है क्योंकि शिवाजी ने आत्मरक्षा में ही ऐसा किया था। इस विजय से मित्र और शत्रु दोनों ही पक्षों में शिवाजी का सम्मान बढ़ गया। दूरदराज़ के इलाकों से जवान उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। शिवाजी में उनकी अटूट आस्था थी। इस बीच दक्षिण में मराठा शक्ति के इस चमत्कारी उत्थान पर औरंगज़ेब बराबर दृष्टि रखे हुए था। पूना और उसके आसपास के क्षेत्रों, जो [[अहमद नगर]] राज्य के हिस्से थे और 1636 की संधि के अंतर्गत बीजापुर को सौंप दिए गए थे, को अब मुग़ल वापस माँगने लगे। पहले तो बीजापुर ने मुग़लों की इस बात को मान लिया था कि वह शिवाजी से निपट लेगा और इस पर कुछ सीमा तक अमल भी किया गया किंतु बीजापुर का सुल्तान यह भी नहीं चाहता था कि शिवाजी पूरी तरह नष्ट हो जाएँ। क्योंकि तब उसे मुग़लों का सीधा सामना करना पड़ता। [[चित्र:Shivaji-Maharaj-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा]] औरंगज़ेब ने अपने संबंधी [[शाइस्ता ख़ाँ]] को शिवाजी से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाइस्ता ख़ाँ दक्षिणी सूबे का सूबेदार था। आत्मविश्वास भरे सूबेदार शाहस्ता ख़ाँ ने पूना पर कब्ज़ा कर लिया, चाकण के क़िलों को अपने अधिकार में ले लिया और दो वर्षों के भीतर ही उसने कल्याण सहित संपूर्ण उत्तरी कोंकण पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल दक्षिण कि कुछ जागीरें ही शिवाजी के पास रह गईं। शाइस्ता ख़ाँ को आशा थी कि वर्षा समाप्त होने पर वह उन्हें भी जीत लेगा। शिवाजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने चुने हुए चार सौ सिपाही लेकर बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए। आधी रात के समय उन्होंने सूबेदार के घर धावा बोल दिया। सूबेदार और उसके सिपाही तैयार नहीं थे। नौकरानी की होशियारी से शाइस्ता ख़ाँ तो बच निकला किंतु मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया गया।


इस घटना ने मुग़ल साम्राज्य की शान को घटाया और शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। औरंगज़ेब के क्रोध की सीमा न रही। [[जसवंत सिंह (राजा)|जसवंत सिंह]] की निष्ठा पर संदेह हुआ और शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने [[सूरत]] पर धावा बोल दिया। सूरत मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण क़िला था। शिवाजी ने उसे जी भर कर लूटा (1664) और धनदौलत से लद कर घर लौटे। 1665 ई. के आरंभ में औरंगज़ेब ने राजा [[जयसिंह]] के नेतृत्व में एक अन्य सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। जयसिंह जो कि [[कछवाहा वंश|कछवाहा]] राजा था, युद्ध और शांति, दोनों ही की कलाओं में निपुण था। वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ था और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अतः पुरन्धर के क़िले पर मुग़लों की विजय और रायगढ़ की घेराबंदी के बावजूद उसने शिवाजी से संधि की। पुरन्धर की यह संधि जून 1665 ई. में हुई जिसके अनुसार—
प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि क़िले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीक़े से निर्मित क़िलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा क़िले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण क़िले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है। परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे। ऐसी मज़बूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए क़िले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था। यहाँ स्वस्तिक किला / दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था।
[[चित्र:Shivaji-Statue-2.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा|250px|left]]
====स्वस्तिक की ऊर्जा====
*शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आमदनी वाले तेईस क़िले मुग़लों को सौंपने पड़े और उन्होंने अपने लिए सामान्य आय वाले केवल बारह क़िले रखे।
स्वस्तिक का आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), [[सिन्दूर]] व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है- '''बोविस''' । इस यंत्र का आविष्कार जर्मन और फ्रांस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा '''विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट''' में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है। ॐ  (70000 बोविस) चिह्न से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में है। इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर, गुरुद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफ़ी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं, कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों, मन्दिरों, पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिह्नों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।
*मुग़लों ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पंज हज़ारी मन्सुबदारी एवं उचित जागीर देना स्वीकर किया।
==लाल रंग का स्वस्तिक==
*मुग़लों ने शिवाजी के विवेकरहित और बेवफ़ा व्यवहार को क्षमा करना स्वीकार कर लिया।
भारतीय संस्कृति में [[लाल रंग]] का सर्वाधिक महत्त्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग [[सिन्दूर]], रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग [[मंगल ग्रह]] का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्त्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिह्न व शृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, [[करवाचौथ]] की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया [[गुलाब|लाल गुलाब]] आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वस्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।
*शिवाजी को कोंकण और [[बालाघाट]] में जागीरें दी जानी थी जिनके बदले उन्हें मुग़लों को तेरह किस्तों में चालीस लाख हूण की रक़म अदा करनी थी। साथ ही उन्हें बीजापुर के ख़िलाफ़ मुग़लों की सहायता भी करनी थी।
==भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व==
[[वेद|वेदों]] में स्वस्तिक चिह्न के बनावट की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को [[विष्णु]], [[सूर्य देव|सूर्य]], सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे [[गणेश]] का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। धार्मिक नज़रिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रूप है। स्वस्तिक में बाएं भाग में बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें [[गौरी]], [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। [[शिव]] के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए।
[[चित्र:Hindu-Swastika.jpg|स्वस्तिक|250px|thumb|left]]
[[ऋग्वेद]] की ऋचा में स्वस्तिक को [[सूर्य]] का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सूर्य को समस्त देव शक्तियों का केंद्र और भूतल तथा अन्तरिक्ष में जीवनदाता माना गया है। स्वस्तिक को सूर्य की प्रतिमा मान कर इन्हीं विशेषताओं के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत करने का उपक्रम किया जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।


====शाही नौकरी====
[[पुराण|पुराणों]] में स्वस्तिक को [[विष्णु]] का [[सुदर्शन चक्र]] माना गया है। उसमें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है। विष्णु की चार भुजाओं की संगति भी कहीं-कहीं सुदर्शन चक्र के साथ बिठाई गई है। स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-चक्र का भी प्रतीक माना गया है। सूर्य का प्रतीक सदैव विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर मंडल हैं। वह भगवान विष्णु का महान सुदर्शन चक्र है जो समस्त लोक की सृजनात्मक एवं चालक सर्वोच्च सता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के रूप में माना गया है जो विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाकर सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल, यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-स्थल। इससे सिद्ध होता है कि स्वस्तिक सृजनात्मक है। स्वस्तिक शास्त्रीय दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।
यह संधि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्तिशाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा था अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध उसका सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। किंतु उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। दरबार में शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसुबदारों की श्रेणी में रखा गया। यह ओहदा उनके नाबालिग पुत्र को पहले ही प्रदान कर दिया गया था। इसे शिवाजी ने अपना अपमान समझा। बादशाह का जन्मदिन मनाया जा रहा था और उसके पास शिवाजी से बात करने की फुर्सत भी नहीं थी अपमानित होकर शिवाजी वहाँ से चले आए और उन्होंने शाही नौकरी करना अस्वीकार कर दिया। तुरंत मुग़ल अदब के ख़िलाफ़ कार्य करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। दरबारियों का गुट उन्हें दंड दिए जाने के पक्ष में था किंतु जयसिंह ने बादशाह से प्रार्थना की कि मामले में नरमी बरतें। किंतु कोई भी निर्णय लिए जाने से पूर्व ही शिवाजी क़ैद से भाग निकले।
[[चित्र:Purandarh-Fort-Pune-1.jpg|thumb|250px|पुरंदर क़िला, [[पुणे]]|250px]]
====उच्चकुल क्षत्रिय====
इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने [[वाराणसी]] के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में [[कर्नाटक]] क्षेत्र पर उनकी विजय जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।


==दुर्गों पर नियंत्रण==
वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को [[हिन्दू धर्म|हिन्दुओं]] के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को [[ब्रह्मा]] के चार मुख, चार हाथ और चार [[वेद|वेदों]] के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं [[ज्योतिर्लिंग]] का सूचन तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।
शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था [[सिंहगढ़ दुर्ग]], जिसे जीतने के लिए उन्होंने ताना जी को भेजा था। और वे वहाँ से विजयी हुए। ताना जी शिवाजी के बहुत विश्वासपात्र सेनापति थे। जिन्होंने सिंहगढ़ की लड़ाई में वीरगति पाई थी। ताना जी के पास बहुत अच्छी तरह से सधाई हुई गोह थी। जिसका नाम यशवन्ती था। शिवाजी ने [[ताना जी]] की मृत्यु पर कहा था- <blockquote>'''गढ़ आला पण सिंह गेला''' (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)।</blockquote> बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] (1646) में [[चाकन]], [[सिंहगढ़ दुर्ग|सिंहगढ़]] और [[पुरन्दर क़िला|पुरन्दर]] सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफ़ज़ल ख़ाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।
[[चित्र:Shivaji-Maharaj.jpg|thumb|250px|छत्रपति शिवाजी महाराज का सिक्का]]
अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता ख़ाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता ख़ाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता ख़ाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता ख़ाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई. में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।


==आगरा से बच निकलना==
[[ॐ]] को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब [[लिपि]] लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिह्न ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।
शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे ग़रीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ़ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके [[पुर्तग़ाली]] और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्त्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिन्दुओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।
==राज्याभिषेक==
[[मई]] 1666 ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसुबदारों से सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र [[शम्भुजी]] और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नज़रबंदी से भाग निकले। सन्न्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही। [[चित्र:Shivaji-Throne.jpg|thumb|250px|शिवाजी महाराज का सिंहासन, [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]|left]] शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई. में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार [[सूरत]] को लूटा। 6 जून 1674 ई. में रायगढ़ के दुर्ग में [[महाराष्ट्र]] के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।


==कर्नाटक अभियान==
स्वस्तिक को इण्डो-यूरोपीय प्राचीन [[देवता]], [[वायुदेव|वायु देवता]], अग्नि पैदा करने का यंत्र नारी और पुरुष का मिलन, नारी, गणपति एवं सूर्य का प्रतीक माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस प्रकार स्वस्तिक छोटा-सा प्रतीक है, पर उसमें विराट सम्भावनाएं समाई हैं। हम उसका महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा करें, यही उचित है।
राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अन्तिम महत्त्वपूर्ण अभियान 'कर्नाटक का अभियान' (1676 ई.) था। [[गोलकुण्डा]] के 'मदन्ना' एवं 'अकन्ना' के सहयोग से शिवाजी ने [[बीजापुर]] और [[कर्नाटक]] पर आक्रमण करना चाहा, परन्तु आक्रमण के पूर्व ही शिवाजी एवं कुतुबशाह के बीच संधि सम्पन्न हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं-
#शिवाजी को कुतुबशाह ने प्रति वर्ष एक लाख हूण देना स्वीकार किया।
#दोनों ने कर्नाटक की सम्पत्ति को आपस में बांटने पर सहमति जताई।


शिवाजी ने [[जिंजी]] एवं [[वेल्लोर]] जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जिंजी को उन्होंने अपने राज्य की राजधानी बनाया। शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनियाई सिद्दकियों से भी हुआ। सिद्दकियों पर अधिकार करने के लिए उन्होंने नौसेना का भी निर्माण किया था, परन्तु वह [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] से [[गोवा]] तथा सिद्दकियों से [[चैल हिमाचल प्रदेश|चैल]] और [[जंजीरा क़िला|जंजीरा]] नहीं छीन सके। सिद्दकी पहले [[अहमदनगर]] के अधिपत्य को मानते थे, परन्तु 1638 ई. के बाद वे बीजापुर की अधीनता में आ गए। शिवाजी के लिए जंजीरा को जीतना अपने [[कोंकण]] प्रदेश की रक्षा के लिए आवश्यक था। 1669 ई. में उन्होंने दरिया सारंग के नेतृत्व में अपने जल बेड़े को जंजीरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
====स्वस्ति मंत्र====
==शिवाजी का प्रशासन==
स्वस्तिक में भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरुआत की जाती है। यह मंत्र है -
सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। किंतु नागरिक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता आज भी स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं की जाती। यूरोपीय इतिहासकारों में दृष्टि में मराठा प्रभुत्व, जो लूट पर आधारित था, को किसी भी प्रकार का कर लेने का अधिकार नहीं था। कुछ अन्य इतिहासकारों की मान्यता है कि शिवाजी के प्रशासन के पीछे कोई आधारभूत सिद्धांत नहीं था और इसी कारण प्रशासन के क्षेत्र में उनका कोई स्थायी योगदान नहीं रहा। शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी सीमा तक दक्षिणी राज्यों और मुग़लों की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनका पुर्तग़ालियों के अधिकार क्षेत्र के अतिरिक्त लगभग समस्त (मराठा) देश में फैला हुआ था। पुर्तग़ालियों का आधिपत्य उत्तर में रामनगर से बंबई ज़िले में गंगावती नदी के तट पर करवार तक था। शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर [[नासिक]] एवं पूना ज़िलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के ज़िले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। इस सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्र को ही मरी अभिलेखों में शिवाजी का "स्वराज" कहा गया है। पश्चिमी [[कर्नाटक]] के क्षेत्र कुछ देर बाद सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था और प्रत्येक भाग की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया गया था-
;ॐ स्वस्ति इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
*पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, [[पेशवा]] मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे [[गरुड़]] भगवान हमारा मंगल करो। [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] हमारा मंगल करो। इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।
*उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
*दक्षिणी देश के ज़िले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ़ और मौजे आते थे। हाल ही में जीते गए आषनी, जिन्जी, बैलोर, अन्सी एवं अन्य ज़िले, जिन्हें समयाभाव के कारण प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाया जा सका था, अधिग्रहण सेना की देखरेख में थे।
[[चित्र:Chhatrapati-Shivaji-Terminus.jpg|thumb|250px|[[छत्रपति शिवाजी टर्मिनस]], [[मुंबई]]]]
केंद्र में आठ मंत्रियों की परिषद् होती थी जिसे अष्ट प्रधान कहते थे जिसे किसी भी अर्थ में मंत्रिमडल नहीं कहा जा सकता था। शिवाजी अपने प्रधानमंत्री स्वयं थे और प्रशासन की बागडोर अपने ही हाथों में रखते थे। अष्ट प्रधान केवल उनके सचिवों के रूप में कार्य करते थे; वे तो आगे बढ़कर कोई कार्य कर सकते थे और ही नीति निर्धारण कर सकते थे। उनका कार्य शुद्ध रूप से सलाहकार का था। जब कभी उनकी इच्छा होती तो वे उनकी सलाह पर ध्यान देते भी थे अन्यथा सामान्यतः उनका कार्य शिवाजी के निर्दशों का पालन करना और उनके अपने विभागों की निगरानी करना मात्र होता था। संभव है कि शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभागों के काम-काज में दख़ल देते हों किंतु इसका कारण उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता ही रही होगी। [[पेशवा]] का कार्य लोक हित का ध्यान रखना था। पंत आमात्य, आय-व्यय की लेखा परीक्षा करता था। मंत्री या वकनीस या विवरणकार राजा का रोज़नामचा रखता था। सुमंत या विदेश सचिव विदेशी मामलों की देखभाल करता था। पंत सचिव पर राजा के पत्राचार का दायित्व था। पंडितराव, विद्वानों और धार्मिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का दायित्व निभाता था। सेनापति एवं न्यायधीश अपना-अपना कार्य करते थे। वे क्रमशः सेना एवं न्याय विभाग के कार्यों की देखते थे।
==सेना ==
शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी और वर्षाकाल के दौरान सैनिकों को वहाँ रहने का स्थान भी उपलब्ध कराया जाता रहा था। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हज़ार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंतु इतना ज्ञात है कि उन्होंने सूरत और अन्य स्थानों पर आक्रमण करते समय तोपखाने का उपयोग किया था। नागरिक प्रशासन की भाँति ही सैन्य-प्रशासन में भी समुचित संस्तर बने हुए थे। घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी-
*बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे
*सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी।
[[चित्र:Pratapgarh-Fort.jpg|प्रतापगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|250px|thumb|left]]
'''घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पाँच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था; दस जुमलादारों की एक हज़ारी होती थी और पाँच हज़ारियो के ऊपर एक पंजहज़ारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले।''' विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 क़िले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रक़म खर्च करते थे। प्रत्येक क़िले को तिहरे नियंत्रण में रखा जाता था जिसमें एक ब्राह्मण, एक मरा, एक कुनढ़ी होता था। ब्राह्मण नागरिक और राजस्व प्रशासन देखता था, शेष दो सैन्य संचालन और रसद के पहलुओं को देखते थे। यह आम धारणा है कि शिवाजी के सैनिकों को वेतन नगद दिया जाता था। किंतु उस समय की परिस्थितियों और क्षेत्र की सामान्य स्थिति को देखते हुए यह व्यवस्था भी एक आदर्श थी जिसे शिवाजी साकार करना चाहते थे। सिपाहियों, हवलदारों इत्यादि का वेतन या तो ख़जाने से दिया जाता था या ग्रामीण क्षेत्रों की बारत (आज्ञा) द्वारा जिनका भुगतान कारकून करते थे। किंतु निश्चित रक़म के लिए भूमि या गाँव देने की पहले से चली आ रही प्रथा को भी पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया था।
==स्वतंत्र प्रभुसत्ता==
1674 की [[ग्रीष्म ऋतु]] में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिन्दू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के ज़रिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिन्दू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती [[मुसलमान]] बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को [[हिन्दू धर्म]] में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि [[ईसाई]] और मुसलमान बल प्रयोग के ज़रिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान [[दक्षिण भारत]] का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।
==राजस्व प्रशासन==
शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। [[बीजापुर]] के [[सुल्तान]], मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। [[मलिक अम्बर]] की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्होंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था।
[[चित्र:Fort-Raigarh-Maharashtra.jpg|thumb|250px|रायगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|left]]
शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी की मृत्यु हो गई, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल ख़राब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी।


यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे-सरदेशमुखी और चौथ। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं।
==स्वस्तिक की प्राचीनता==
[[चित्र:Shivaji-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]|250px]]  
[[चित्र:Swastika-3.jpg|उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में 7000 साल पुराने स्वस्तिक|350px|thumb]]
रानाडे के अनुसार यह 'सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी।
स्वस्तिक [[आर्य|आर्यत्व]] का चिह्न माना जाता है। [[वैदिक साहित्य]] में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई॰ सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे [[हड़प्पा सभ्यता|हड़प्पा]] से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।<ref>एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24</ref> स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।<ref>यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72</ref> स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।<ref name="दानी एंड मैसन">दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242</ref> और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।<ref name="दानी एंड मैसन"/> शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग [[श्राद्ध]] वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।<ref> दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394</ref> `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।
मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।"
 
==अन्तिम समय==
ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। [[मोहन जोदड़ो|मोहन जोदड़ों]], [[हड़प्पा संस्कृति]], [[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]], [[रामायण]], [[हरिवंश पुराण]], [[महाभारत]] आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। [[भारत]] में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त [[पुरावशेष|पुरावशेषों]] में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। [[सिन्धु घाटी]] सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। [[सिन्धु घाटी सभ्यता|सिन्धु-घाटी सभ्यता]] के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में [[हाथी]] स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है। [[पश्चिम भारत]] के अनेक गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, कार्ले, जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। [[साँची]], भरहुत और अमरावती के स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, [[उदयगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। [[मत्स्य पुराण]] में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। [[पाणिनी]] की [[व्याकरण]] में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। [[पाली भाषा]] में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत [[अष्टमंगल]] द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।
शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। [[चित्र:Chatrapati-Shivaj-1.jpg|thumb|250px|left|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, [[महाराष्ट्र]]]] [[लॉर्ड मैकाले]] द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।
 
==उपसंहार==
ईसा पूर्व में स्वस्तिक आकृति के दायें और बायें पक्ष से आदमी लापरवाह थे। उस समय इस रहस्यमय आकृति की गंभीरता से लोग बेखबर थे। तब यह धार्मिक रूप से दो सिद्धान्तों के विकास और विनाश को दर्शाता था। स्वस्तिक का महत्त्व समाज और धर्म दोनों ही स्थानों में है। भारतवर्ष में एक विशाल जनसमूह स्वस्तिक निशान का उपयोग करता है। कोई इसे सजाने के तौर पर तो कोई इसका उपयोग धर्म और आत्मा को जोड़कर करता है। दक्षिण भारत में जहां इसका उपयोग दीवारों और दरवाजों को सजाने में किया जाता है, वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में इस आकृति को तंत्र-मंत्र से जोड़कर देखा जाता है। भारत के पूर्वी क्षेत्रों में इस आकृति को एक पवित्र धार्मिक चिह्न के रूप में माना जाता है।
इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, [[गोवा]] के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य [[बेलगांव कर्नाटक|बेलगांव]] से लेकर [[तुंगभद्रा नदी]] के तट तक समस्त पश्चिमी [[कर्नाटक]] में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल [[मराठा साम्राज्य]] की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे।<ref>[[यदुनाथ सरकार]] द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तथा एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी</ref>
====विश्वव्यापी प्रभाव====
हमारे मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक एक ऐसा चिह्न है, जो अत्यन्त प्राचीन काल से लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है। [[भारत]] में तो इसकी जड़ें गहरायी से पैठी हुई हैं ही, विदेशों में भी इसका काफ़ी अधिक प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान है कि व्यापारी और पर्यटकों के माध्यम से ही हमारा यह मांगलिक प्रतीक विदेशों में पहुँचा। [[भारत]] के समान विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक चिह्न माना गया। इसके नाम अवश्य ही अलग-अलग स्थानों में, समय-समय पर अलग-अलग रहे। स्वस्तिक संस्कृत का शब्द है। स्वस्तिक शब्द स्वस्ति से बना है। यह हम सभी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। संभवत:यहीं से विश्व के अनेक देशों में स्वस्तिक का विस्तार हुआ होगा। स्वस्तिक शब्द का प्रयोग पश्चिमी देशों में भी होता है। विभिन्न देशों में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न है। स्वस्तिक चिह्न का डिजाइन इजिप्सन क्रास, चाइनीज ताउ, रोसीक्रूसियंस और क्रिश्चियन क्रास से मिलता जुलता है। विभिन्न आकृतिओं से मिलने वाला यह चिह्न हर युग में अपना अलग-अलग महत्त्व भी रखता है। सनातन धर्म और [[जैन धर्म]] हो या [[बौद्ध धर्म]], हर धर्म और युग में अपनी महत्ता के साथ स्वस्तिक उपस्थित है।
[[चित्र:many svt.jpg|विभिन्न धर्मों में स्वस्तिक|300px|thumb|left]]
स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा [[पीपल]] की दो लकड़ियाँ मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद, रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री' लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और स अक्षर अंकित किया जाता है जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।
 
स्वस्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। 'आर्य धर्म' और उसकी शाखा-प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। [[बौद्ध]], [[जैन]], [[सिक्ख|सिख]] धर्मो में उसकी समान मान्यता है। '''बौद्ध और जैन''' लेखों से सम्बन्धित प्राचीन गुफाओं में भी यह प्रतीक मिलता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वस्तिक का प्रयोग होता रहा है। महात्मा [[बुद्ध]] की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्न हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में [[बौद्ध धर्म]] के प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही [[जापान]] में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हुए मिले हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को मन जी कहते हैं और धर्म-प्रतीकों में उसका समावेश करते हैं। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिह्न मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। '''नेपाल''' में हेरंब तथा '''बर्मा''' में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। '''मिस्र''' में सभी देवताओं के पहले कुमकुम से क्रॉस की आकृति बनाई जाती है। वह एक्टोन के नाम से पूजित है। '''यूरोप और अमेरिका''' की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। '''ईरान, यूनान, मिश्र, मैक्सिको और साइप्रस''' में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्न हैं। '''आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड''' के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में [[अपोलो|अपोलो देवता]] की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्न बना हुआ है। '''टर्की''' में ईसा से 2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। '''एथेन्स''' में शत्रागार के सामने यह चिह्न बना हुआ है। '''स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड''' में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्न देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि '''[[ईसाई धर्म]]''' के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में '''चीनी''' राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी। '''तिब्बती''' स्वस्तिक को अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है। <ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक"/>
 
'''बेल्जियम''' में नामूर संग्रहालय में एक ऐसा उपकरण है जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिह्न बने हुए हैं तथा उन चिह्नों के बीच में एक स्वस्तिक चिह्न भी है। '''[[इटली]]''' के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न हैं। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिह्न हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। स्वस्तिक को सुख और सौभाग्य का प्रतीक मानते हैं। वे आज भी इसे अपने आभूषणों में धारण करते हैं। जब [[जर्मनी]] में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की नाजी पार्टी के लोग स्वस्तिक के निशान को बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं संभावनाओं से भरा हुआ माध्यम मानते थे। '''जर्मनी''' के तानाशाह एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न (वामावर्त स्वस्तिक) अपनी सेना के प्रतीक रूप में और ध्वज में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई।
 
==स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण==
वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं। स्वस्तिक चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर। चारों दिशाओं के देव पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण, उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं का बोध कराती हैं। ईशान, अग्नि, नेऋत्य, वायव्य। स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक की चारों दिशाएँ से चार युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग की जानकारी मिलती है। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्न्यास। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।
[[चित्र:lantauBuddha.jpg|[[बुद्ध|महात्मा बुद्ध]] की प्रतिमा पर स्वस्तिक|300px|thumb]]
स्वस्तिक की चार भुजाओं में जिन धर्म के मूल सिद्धांतों का बोध होता है। समवसरण में भगवान का दर्शन चतुर्थ दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य। उपवन भूमि में चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन होते हैं। चार अनुयोग- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग। चार निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ। मुख्य चार प्राण- इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास। चार संज्ञा- आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप। चार गतियाँ- देव, मनुष्य, तिर्यन्च, नरक।
 
प्राचीन काल में जिन वास्तु नियमों को विद्वानो ने लिख गए हैं उनका महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ है। परन्तु कई कारणों से इन नियमों को पालन न करने की सूरत में घर में किसी न किसी तरह का वास्तु दोष आ ही जाता है। इन वास्तु दोषों के निवारण के उपाय किसी प्रशिक्षित वास्तु विशेषज्ञ से कराने चाहिए। लेकिन फौरी तौर पर एक स्वस्तिक प्रयोग बता रहें हैं जिससे वास्तु की समस्या का कुछ हद तक निवारण हो सकता है।
 
वास्तु दोष को दूर करने के लिए बनाया गया स्वस्तिक 6 इंच से कम नहीं होना चाहिए। घर के मुख्य़ द्वार के दोनों ओर ज़मीन से 4 से 5 फुट ऊपर [[सिन्दूर]] से यह स्वस्तिक बनाऐं। घर में जहां भी वास्तु दोष है और उसे दूर करना संभव न हो तो वहां पर भी इस तरह का स्वस्तिक बना दें। जिस भी दिशा की शांति करानी हो उस दिशा में 6" x 6" का तांबे का स्वस्तिक यंत्र पूजन कर लगा देना चाहिए। इस यंत्र के साथ उस दिशा स्वामी का रत्न भी यंत्र के साथ लगा दें। नींव पूजन के समय भी इस तरह के यंत्र आठों दिशाओं व ब्रह्म स्थान पर दिशा स्वामियों के रत्न के साथ लगा कर गृहस्वामी के हाथ के बराबर गड्ढा खोद कर, चावल बिछा कर, दबा देना चाहिए। पृथ्वी में इन अभिमंत्रित रत्न जड़े स्वस्तिक यंत्र की स्थापना से इनका प्रभाव काफ़ी बड़े क्षेत्र पर होने लगता है। दिशा स्वामियों की स्थिति इस प्रकार है- ब्रह्म स्थान-माणिक, पूर्व-हीरा, आग्नेय-मूंगा, दक्षिण-नीलम, नैऋत्य-पुखराज, पश्चिम-पन्ना, वायव्य-गोमेद, उत्तर-मोती, इशान-स्फटिक।
 
विधि  :--  शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90 डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनाएँ। [[केसर]] से, कुमकुम से, [[सिन्दूर]] और तेल के मिश्रण से [[अनामिका (उँगली)|अनामिका]] अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है।
 
स्वस्तिक चिह्न लगभग हर समाज में आदर से पूजा जाता है क्योंकि स्वस्तिक के चिह्न की बनावट ऐसी होती है, कि वह दसों दिशाओं से सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ खींचता है। इसीलिए किसी भी शुभ काम की शुरुआत से पहले पूजन कर स्वस्तिक का चिह्न बनाया जाता है। ऐसे ही शुभ कार्यो में [[आम]] की पत्तियों को आपने लोगों को अक्सर घर के दरवाज़े पर बांधते हुए देखा होगा क्योंकि आम की पत्ती, इसकी लकड़ी, फल को ज्योतिष की दृष्टी से भी बहुत शुभ माना जाता है। आम की लकड़ी और स्वस्तिक दोनों का संगम आम की लकड़ी का स्वस्तिक उपयोग किया जाए तो इसका बहुत ही शुभ प्रभाव पड़ता है। यदि किसी घर में किसी भी तरह वास्तुदोष हो तो जिस कोण में वास्तु दोष है उसमें आम की लकड़ी से बना स्वस्तिक लगाने से वास्तुदोष में कमी आती है क्योंकि आम की लकड़ी में सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करती है। यदि इसे घर के प्रवेश द्वार पर लगाया जाए तो घर के सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। इसके अलावा पूजा के स्थान पर भी इसे लगाये जाने का अपने आप में विशेष प्रभाव बनता है।
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://prachinsabyata.blogspot.in/2013/06/mystery-of-swastika-pyramids-and.html स्वस्तिक , पिरामिड और पुनर्जन्म के रहस्य]
*[http://www.panditastro.com/2009/12/symbol-of-life-and-preservation.html भारतीय संस्कृ्ति का महान प्रतीक चिन्ह- स्वस्तिक]
*[http://www.livehindustan.com/news/astronews/vastushastra/article1-vastu-117-120-294761.html स्वास्थ्य व सौभाग्य घर लाते हैं, स्वस्तिक और मंगल कलश]
==संबंधित लेख==
{{भारतीय संस्कृति के प्रतीक}}
[[Category:भारतीय संस्कृति के प्रतीक]][[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:धार्मिक चिह्न]][[Category:वैदिक धर्म]]
[[Category:पौराणिक कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]]
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12:29, 20 सितम्बर 2016 का अवतरण

यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण
स्वस्तिक एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- स्वस्तिक (बहुविकल्पी)
रविन्द्र प्रसाद/अभ्यास
स्वस्तिक
स्वस्तिक
विवरण पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।
स्वस्तिक का अर्थ सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। संस्कृत व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
आकृति भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।
ऐतिहासिक उल्लेख मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।
स्वस्ति मंत्र ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
अन्य जानकारी भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।

स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाओं का संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

धार्मिक मान्यताएँ

  • हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं।
  • किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
  • इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।
  • देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। स्वस्तिक का चिह्न वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वस्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नज़र नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।
  • पूजा स्थल, तिज़ोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वस्तिक स्थापित करना चाहिए। महिलाएँ अपने हाथों में मेंहदी से स्वस्तिक चिह्न बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।[1]
  • कभी पूजा की थाली में, कभी दरवाज़े पर, वेदों-पुराणों में प्रयुक्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ पवित्र धर्मचिह्न के रूप में प्रयुक्त स्वस्तिक चिह्न आज फैशन की दुनिया में भी शुमार होता जा रहा है। अब यह पूजा की थाली से उठकर घर की दीवारों तथा सुंदरियों के परिधानों और आभूषणों में सजने लगा है।
  • स्वस्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।
  • स्वस्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से उचित स्थान पर करना चाहिए। इसके अपमान व ग़लत प्रयोग से बचना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वस्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा, चिन्ता रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति भी दिलाता है।
  • ज्योतिष में इस मांगलिक चिह्न को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वस्तिक बनाकर लगाने से से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं।
  • हल्दी से अंकित स्वस्तिक शत्रु शमन करता है। स्वस्तिक 27 नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिह्न नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।
    स्वस्तिक

स्वस्तिक का अर्थ

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। संस्कृत व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करनेवाला - स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न 'स्वस्तिक' कहा गया है।

स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम सवालों के एक जवाब के रूप में किया जाता है। शायद इसलिए भी यह निशान मानव जीवन में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दर, श्रेयस्कर, अस् अर्थात् उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश हो, वह स्वस्तिक है।

स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वस्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।

अमरकोश में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिह्न की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।[2]

स्वस्तिक का आकृति

स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। ( या स्वस्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वस्तिक बन जाता है। ) रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक (घडी की सूई चलने की दिशा) कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।

स्वस्तिक

एवं स्वस्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। स्वस्तिक चिह्न की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल की प्रतीक माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल और केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह ॐ का ही विकृत रूप है। इन रेखाओं को आचार्य अभिनव गुप्त ने नाद ब्रह्म अथवा अक्षर ब्रह्म का परिचायक माना है। नाद के पश्यंती, मध्यमा तथा बैखरी-तीन रूप हैं। अत:स्वस्तिक ब्रह्म का प्रतीक है।

श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।

प्राचीन काल में राजा महाराज द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि क़िले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीक़े से निर्मित क़िलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात सेना द्वारा क़िले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण क़िले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है। परन्तु स्वस्तिक नुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे। ऐसी मज़बूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए क़िले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था। यहाँ स्वस्तिक किला / दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था।

स्वस्तिक की ऊर्जा

स्वस्तिक का आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है । आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है- बोविस । इस यंत्र का आविष्कार जर्मन और फ्रांस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है। इसी स्वस्तिक को थोड़ा टेड़ा बना देने पर इसकी ऊर्जा मात्र 1,000 बोविस रह जाती है। ॐ (70000 बोविस) चिह्न से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में है। इसके साथ ही विभिन्न धार्मिक स्थलों यथा मन्दिर, गुरुद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर काफ़ी उंचा मापा गया है जिसके चलते वहां जाने वालों को शांति का अनुभव और अपनी समस्याओं, कष्टों से मुक्ति हेतु मन में नवीन आशा का संचार होता है। यही नहीं हमारे घरों, मन्दिरों, पूजा पाठ इत्यादि में प्रयोग किए जाने वाले अन्य मांगलिक चिह्नों यथा ॐ इत्यादि में भी इसी तरह की ऊर्जा समाई है। जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में मिलता ही रहता हैं।

लाल रंग का स्वस्तिक

भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्त्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्त्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिह्न व शृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वस्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व

वेदों में स्वस्तिक चिह्न के बनावट की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। धार्मिक नज़रिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रूप है। स्वस्तिक में बाएं भाग में बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए।

स्वस्तिक

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सूर्य को समस्त देव शक्तियों का केंद्र और भूतल तथा अन्तरिक्ष में जीवनदाता माना गया है। स्वस्तिक को सूर्य की प्रतिमा मान कर इन्हीं विशेषताओं के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत करने का उपक्रम किया जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का सुदर्शन चक्र माना गया है। उसमें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है। विष्णु की चार भुजाओं की संगति भी कहीं-कहीं सुदर्शन चक्र के साथ बिठाई गई है। स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-चक्र का भी प्रतीक माना गया है। सूर्य का प्रतीक सदैव विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर मंडल हैं। वह भगवान विष्णु का महान सुदर्शन चक्र है जो समस्त लोक की सृजनात्मक एवं चालक सर्वोच्च सता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के रूप में माना गया है जो विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाकर सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल, यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-स्थल। इससे सिद्ध होता है कि स्वस्तिक सृजनात्मक है। स्वस्तिक शास्त्रीय दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।

वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं ज्योतिर्लिंग का सूचन तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।

को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिह्न ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।

स्वस्तिक को इण्डो-यूरोपीय प्राचीन देवता, वायु देवता, अग्नि पैदा करने का यंत्र नारी और पुरुष का मिलन, नारी, गणपति एवं सूर्य का प्रतीक माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है। इस प्रकार स्वस्तिक छोटा-सा प्रतीक है, पर उसमें विराट सम्भावनाएं समाई हैं। हम उसका महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा करें, यही उचित है।

स्वस्ति मंत्र

स्वस्तिक में भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरुआत की जाती है। यह मंत्र है -

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥

महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरुड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो। इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।

स्वस्तिक की प्राचीनता

उत्तर पश्चिमी बुल्गारिया में 7000 साल पुराने स्वस्तिक

स्वस्तिक आर्यत्व का चिह्न माना जाता है। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई॰ सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।[3] स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।[4] स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।[5] और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।[5] शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।[6] `मैकेंजी' ने इस समस्या का विषद् रूप से विवेचन किया है और बताया है कि विभिन्न देशों में स्वस्तिक अनेक प्रतीकार्यों को निर्देशित करता है। उन्होंने स्वस्तिक को पजनन प्रतीक उर्वरता का प्रतीक, पुरातन व्यापारिक चिह्न अलंकरण का चिह्न एवं अलंकरण का चिह्न माना है।

ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्त्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है। भारत में आज तक लगभग जितनी भी पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त पुरावशेषों में स्वस्तिक का अंकन बराबर मिलता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है तथा जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में भी मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु-घाटी सभ्यता के लोग सूर्य-पूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से ऐसी अनेक मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर स्वस्तिक अंकित है। मोहन-जोदड़ों की एक मुद्रा में हाथी स्वस्तिक के सम्मुख झुका हुआ दिखलाया गया है। अशोक के शिला-लेखों में स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से हुआ है। पालि अभिलेखों में भी इस प्रतीक का अंकन है। पश्चिम भारत के अनेक गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, कार्ले, जूनर और शेलारवाड़ी में यह प्रतीक विशेष अवलोकनीय है। साँची, भरहुत और अमरावती के स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से अंकित नहीं है, पर सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, उदयगिरि की रानी की गुफ़ा में भी स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। मत्स्य पुराण में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। पाणिनी की व्याकरण में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। पाली भाषा में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है। प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के जो बीज उकेरे थे उनमें `सीधी, तिरछी या आड़ी रेखाएँ, त्रिकोणात्मक आकृतियाँ थीं। यही आकृतियाँ उस युग की लिपि थी। मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

ईसा पूर्व में स्वस्तिक आकृति के दायें और बायें पक्ष से आदमी लापरवाह थे। उस समय इस रहस्यमय आकृति की गंभीरता से लोग बेखबर थे। तब यह धार्मिक रूप से दो सिद्धान्तों के विकास और विनाश को दर्शाता था। स्वस्तिक का महत्त्व समाज और धर्म दोनों ही स्थानों में है। भारतवर्ष में एक विशाल जनसमूह स्वस्तिक निशान का उपयोग करता है। कोई इसे सजाने के तौर पर तो कोई इसका उपयोग धर्म और आत्मा को जोड़कर करता है। दक्षिण भारत में जहां इसका उपयोग दीवारों और दरवाजों को सजाने में किया जाता है, वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में इस आकृति को तंत्र-मंत्र से जोड़कर देखा जाता है। भारत के पूर्वी क्षेत्रों में इस आकृति को एक पवित्र धार्मिक चिह्न के रूप में माना जाता है।

विश्वव्यापी प्रभाव

हमारे मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक एक ऐसा चिह्न है, जो अत्यन्त प्राचीन काल से लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है। भारत में तो इसकी जड़ें गहरायी से पैठी हुई हैं ही, विदेशों में भी इसका काफ़ी अधिक प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान है कि व्यापारी और पर्यटकों के माध्यम से ही हमारा यह मांगलिक प्रतीक विदेशों में पहुँचा। भारत के समान विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक चिह्न माना गया। इसके नाम अवश्य ही अलग-अलग स्थानों में, समय-समय पर अलग-अलग रहे। स्वस्तिक संस्कृत का शब्द है। स्वस्तिक शब्द स्वस्ति से बना है। यह हम सभी जानते हैं कि भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। संभवत:यहीं से विश्व के अनेक देशों में स्वस्तिक का विस्तार हुआ होगा। स्वस्तिक शब्द का प्रयोग पश्चिमी देशों में भी होता है। विभिन्न देशों में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न है। स्वस्तिक चिह्न का डिजाइन इजिप्सन क्रास, चाइनीज ताउ, रोसीक्रूसियंस और क्रिश्चियन क्रास से मिलता जुलता है। विभिन्न आकृतिओं से मिलने वाला यह चिह्न हर युग में अपना अलग-अलग महत्त्व भी रखता है। सनातन धर्म और जैन धर्म हो या बौद्ध धर्म, हर धर्म और युग में अपनी महत्ता के साथ स्वस्तिक उपस्थित है।

विभिन्न धर्मों में स्वस्तिक

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन, अमरीका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन है। स्वस्तिक की रेखाओं को कुछ विद्वान अग्नि उत्पन्न करने वाली अश्वत्थ तथा पीपल की दो लकड़ियाँ मानते हैं। प्राचीन मिस्त्र के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद, रूप से काष्ठ दण्डों का प्रतीक मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन के कारण इसे प्रकाश का भी प्रतीक माना जाता है। अधिकांश लोगों की मान्यता है कि स्वस्तिक सूर्य का प्रतीक है। जैन धर्मावलम्बी अक्षत पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न बनाकर तीन बिन्दु बनाते हैं। पारसी उसे चतुर्दिक दिशाओं एवं चारों समय की प्रार्थना का प्रतीक मानते हैं। व्यापारी वर्ग इसे शुभ-लाभ का प्रतीक मानते हैं। बहीखातों में ऊपर की ओर 'श्री' लिखा जाता है। इसके नीचे स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें न और स अक्षर अंकित किया जाता है जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक माना जाता है।

स्वस्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। 'आर्य धर्म' और उसकी शाखा-प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मो में उसकी समान मान्यता है। बौद्ध और जैन लेखों से सम्बन्धित प्राचीन गुफाओं में भी यह प्रतीक मिलता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वस्तिक का प्रयोग होता रहा है। महात्मा बुद्ध की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्न हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में बौद्ध धर्म के प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक का प्रचार महात्मा बुद्ध की चरण पूजा से बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही जापान में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हुए मिले हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को मन जी कहते हैं और धर्म-प्रतीकों में उसका समावेश करते हैं। मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक चिह्न मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता रहा है। नेपाल में हेरंब तथा बर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं। मिस्र में सभी देवताओं के पहले कुमकुम से क्रॉस की आकृति बनाई जाती है। वह एक्टोन के नाम से पूजित है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ईरान, यूनान, मिश्र, मैक्सिको और साइप्रस में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्न हैं। आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल से स्वस्तिक को मंगल प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा हैं। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में अपोलो देवता की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्न बना हुआ है। टर्की में ईसा से 2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्न मिले हैं। एथेन्स में शत्रागार के सामने यह चिह्न बना हुआ है। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्न अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्न देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि ईसाई धर्म के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में चीनी राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी। तिब्बती स्वस्तिक को अपने शरीर पर गुदवाते हैं तथा चीन में इसे दीर्घायु एवं कल्याण का प्रतीक माना जाता है। विभिन्न देशों की रीति-रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में परिवर्तन होता रहता है। सुख समृद्धि एवं रक्षित जीवन के लिए ही स्वस्तिक पूजा का विधान है। [1]

बेल्जियम में नामूर संग्रहालय में एक ऐसा उपकरण है जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिह्न बने हुए हैं तथा उन चिह्नों के बीच में एक स्वस्तिक चिह्न भी है। इटली के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न हैं। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिह्न हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक चिह्न मिलते हैं। स्वस्तिक को सुख और सौभाग्य का प्रतीक मानते हैं। वे आज भी इसे अपने आभूषणों में धारण करते हैं। जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की नाजी पार्टी के लोग स्वस्तिक के निशान को बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं संभावनाओं से भरा हुआ माध्यम मानते थे। जर्मनी के तानाशाह एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न (वामावर्त स्वस्तिक) अपनी सेना के प्रतीक रूप में और ध्वज में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई।

स्वस्तिक से वास्तु दोष निवारण

वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं। स्वस्तिक चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर। चारों दिशाओं के देव पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण, उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं का बोध कराती हैं। ईशान, अग्नि, नेऋत्य, वायव्य। स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक की चारों दिशाएँ से चार युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग की जानकारी मिलती है। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्न्यास। चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।

महात्मा बुद्ध की प्रतिमा पर स्वस्तिक

स्वस्तिक की चार भुजाओं में जिन धर्म के मूल सिद्धांतों का बोध होता है। समवसरण में भगवान का दर्शन चतुर्थ दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य। उपवन भूमि में चारों दिशाओं में क्रमशः अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन होते हैं। चार अनुयोग- प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग। चार निक्षेप- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ। मुख्य चार प्राण- इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास। चार संज्ञा- आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप। चार गतियाँ- देव, मनुष्य, तिर्यन्च, नरक।

प्राचीन काल में जिन वास्तु नियमों को विद्वानो ने लिख गए हैं उनका महत्त्व आज भी कम नहीं हुआ है। परन्तु कई कारणों से इन नियमों को पालन न करने की सूरत में घर में किसी न किसी तरह का वास्तु दोष आ ही जाता है। इन वास्तु दोषों के निवारण के उपाय किसी प्रशिक्षित वास्तु विशेषज्ञ से कराने चाहिए। लेकिन फौरी तौर पर एक स्वस्तिक प्रयोग बता रहें हैं जिससे वास्तु की समस्या का कुछ हद तक निवारण हो सकता है।

वास्तु दोष को दूर करने के लिए बनाया गया स्वस्तिक 6 इंच से कम नहीं होना चाहिए। घर के मुख्य़ द्वार के दोनों ओर ज़मीन से 4 से 5 फुट ऊपर सिन्दूर से यह स्वस्तिक बनाऐं। घर में जहां भी वास्तु दोष है और उसे दूर करना संभव न हो तो वहां पर भी इस तरह का स्वस्तिक बना दें। जिस भी दिशा की शांति करानी हो उस दिशा में 6" x 6" का तांबे का स्वस्तिक यंत्र पूजन कर लगा देना चाहिए। इस यंत्र के साथ उस दिशा स्वामी का रत्न भी यंत्र के साथ लगा दें। नींव पूजन के समय भी इस तरह के यंत्र आठों दिशाओं व ब्रह्म स्थान पर दिशा स्वामियों के रत्न के साथ लगा कर गृहस्वामी के हाथ के बराबर गड्ढा खोद कर, चावल बिछा कर, दबा देना चाहिए। पृथ्वी में इन अभिमंत्रित रत्न जड़े स्वस्तिक यंत्र की स्थापना से इनका प्रभाव काफ़ी बड़े क्षेत्र पर होने लगता है। दिशा स्वामियों की स्थिति इस प्रकार है- ब्रह्म स्थान-माणिक, पूर्व-हीरा, आग्नेय-मूंगा, दक्षिण-नीलम, नैऋत्य-पुखराज, पश्चिम-पन्ना, वायव्य-गोमेद, उत्तर-मोती, इशान-स्फटिक।

विधि  :-- शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90 डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनाएँ। केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है।

स्वस्तिक चिह्न लगभग हर समाज में आदर से पूजा जाता है क्योंकि स्वस्तिक के चिह्न की बनावट ऐसी होती है, कि वह दसों दिशाओं से सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ खींचता है। इसीलिए किसी भी शुभ काम की शुरुआत से पहले पूजन कर स्वस्तिक का चिह्न बनाया जाता है। ऐसे ही शुभ कार्यो में आम की पत्तियों को आपने लोगों को अक्सर घर के दरवाज़े पर बांधते हुए देखा होगा क्योंकि आम की पत्ती, इसकी लकड़ी, फल को ज्योतिष की दृष्टी से भी बहुत शुभ माना जाता है। आम की लकड़ी और स्वस्तिक दोनों का संगम आम की लकड़ी का स्वस्तिक उपयोग किया जाए तो इसका बहुत ही शुभ प्रभाव पड़ता है। यदि किसी घर में किसी भी तरह वास्तुदोष हो तो जिस कोण में वास्तु दोष है उसमें आम की लकड़ी से बना स्वस्तिक लगाने से वास्तुदोष में कमी आती है क्योंकि आम की लकड़ी में सकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करती है। यदि इसे घर के प्रवेश द्वार पर लगाया जाए तो घर के सुख समृद्धि में वृद्धि होती है। इसके अलावा पूजा के स्थान पर भी इसे लगाये जाने का अपने आप में विशेष प्रभाव बनता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक (हिन्दी) लेक्स पेराडाइस। अभिगमन तिथि: 8 अक्टूबर, 2010
  2. आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 8 अक्टूबर, 2010
  3. एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24
  4. यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72
  5. 5.0 5.1 दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242
  6. दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394

बाहरी कड़ियाँ

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