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'''विवेकी राय''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Viveki Rai''  जन्म- [[19 नवम्बर]], [[1924]], ज़िला- [[गाजीपुर]], [[उत्तरप्रदेश]]; मृत्यु- [[22 नवम्बर]], [[2016]], [[वाराणसी ]]) [[हिन्दी]] और [[भोजपुरी]] [[भाषा]] के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे 50 से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। विवेकी राय ललित निबंध, कथा साहित्य और कविता कर्म में समभ्यस्त हैं।
विवेकी राय देहाती धरती की ऊष्मा से बने एक सीधे सच्चे कर्मठ इंसान हैं। उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से अपने को कहाँ से कहाँ तक उठाया। वे गाँव की खेती-बारी भी देखते हैं और गाजीपुर में अध्यापन तथा साहित्य सेवा में भी लीन रहे। गाँव के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करते हुए भी उन्होंने बहुत लगन से विपुल साहित्य पढ़ा और लिखा। वे अपने मित्रों और परिचतों में तथा पाठकों में भी बहुत प्यार से जाने जाते हैं।
 
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==परिचय==
विवेकी राय देहाती धरती की ऊष्मा से बने एक सीधे सच्चे कर्मठ इंसान थे। उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से अपने को कहाँ से कहाँ तक उठाया। विवेकी राय गाँव की खेती-बारी भी देखते थे और [[गाजीपुर]] में अध्यापन तथा साहित्य सेवा में भी लीन रहते थे। गाँव के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करते हुए भी उन्होंने बहुत लगन से विपुल साहित्य पढ़े और लिखे थे। विवेकी राय अपने मित्रों और परिचतों में तथा पाठकों में भी बहुत प्यार से जाने जाते थे।


'प्रभात प्रकाशन' ने डोर बाँधी और खींचना शुरू किया। लगा कि अंत में बिदक ही जाएंगे लेकिन बिदकते-बिदकते भी खिंचे चले आये। महानगर-भीरू होते हुए भी उन्होंने मुझे स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन पहुँचना ही था। लम्बे प्लेटफोर्म पर मैंने कोशिश की कि उन्हें कहीं से पकड़ लूँ, लेकिन डिब्बे का पता न होने पर पकड़ पाना आसान होता है क्या? वे नहीं मिले और मैं यह मानकर बस में बैठ गया कि वे नहीं आए होंगे। तब तक उन्हें सामने की सड़क पर भटकते हुए देखा और लपककर जा मिला। वे मुझे देखते ही प्रसन्न हुए किंतु पहला सवाल यही किया, ''अरे आप मुझे लेने के लिये सवेरे-सवेरे स्टेशन पर क्यों आएँ? मैं तो आ ही जाता।''
'प्रभात प्रकाशन' ने डोर बाँधी और खींचना शुरू किया। लगा कि अंत में बिदक ही जाएंगे लेकिन बिदकते-बिदकते भी खिंचे चले आये। महानगर-भीरू होते हुए भी उन्होंने मुझे स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन पहुँचना ही था। लम्बे प्लेटफोर्म पर मैंने कोशिश की कि उन्हें कहीं से पकड़ लूँ, लेकिन डिब्बे का पता न होने पर पकड़ पाना आसान होता है क्या? वे नहीं मिले और मैं यह मानकर बस में बैठ गया कि वे नहीं आए होंगे। तब तक उन्हें सामने की सड़क पर भटकते हुए देखा और लपककर जा मिला। वे मुझे देखते ही प्रसन्न हुए किंतु पहला सवाल यही किया, ''अरे आप मुझे लेने के लिये सवेरे-सवेरे स्टेशन पर क्यों आएँ? मैं तो आ ही जाता।''
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''ह्कहाँ रह गये थे बंधु, हम लोग तो बहुत परेशान हो रहे थे?'' वे ठठाकर हँसे। बोले, ''अरे क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, नोएडा से प्रगति मैदान आया और किसी ने गलत नंबर बता दिया और मैं फिर नोएडा जाने वाली बस में बैठ गया। नोएडा पहुँचने पर लगा- अरे, यहीं से तो मैं गया था। किसी से पूचा तो मालूम पड़ा कि यह नोएडा  है। यानी मैं कई घंटों नोएडा से नोएडा को यात्रा करता रह गया। वाह री दिल्ली!'' और वे फिर हँसे। हम भी हँसने लगे और अम सबकी परेशानी हँसी में बह गई।
''ह्कहाँ रह गये थे बंधु, हम लोग तो बहुत परेशान हो रहे थे?'' वे ठठाकर हँसे। बोले, ''अरे क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, नोएडा से प्रगति मैदान आया और किसी ने गलत नंबर बता दिया और मैं फिर नोएडा जाने वाली बस में बैठ गया। नोएडा पहुँचने पर लगा- अरे, यहीं से तो मैं गया था। किसी से पूचा तो मालूम पड़ा कि यह नोएडा  है। यानी मैं कई घंटों नोएडा से नोएडा को यात्रा करता रह गया। वाह री दिल्ली!'' और वे फिर हँसे। हम भी हँसने लगे और अम सबकी परेशानी हँसी में बह गई।
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उनसे फिर मेरी भेंट कलकत्ता में हुई। कथा-समारोह में मैं दिल्ली से गया था और वे गाजीपुर से अये थे। वे ठहरे थे कलकत्ता के उपांत में अपने जवार के किसी व्यापारी के यहाँ। वे उन्हीं की गाड़ी से रोज समारोह में आते थे और शाम को लौट जाते थे। मैं सपत्नीक गया था। मेरे जमाता अश्विनीकुमार तिवारी और बेटी अंजलि उस समय कलकत्ता में ही थे। हमें वहाँ ठहरना था किंतु रोज-रोज वहाँ से समारोह स्थल जाने में काफी समय लगता था और बस की यात्रा बड़ी कष्टकर थी अत: मैं समारोह -स्थल के पास ही (जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था थी) ठहर गया। एक कमरे में मैं और डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल थे और दूसरे में निर्मल वर्मा और अवधनारायण मुद्गल।
उनसे फिर मेरी भेंट कलकत्ता में हुई। कथा-समारोह में मैं दिल्ली से गया था और वे गाजीपुर से अये थे। वे ठहरे थे कलकत्ता के उपांत में अपने जवार के किसी व्यापारी के यहाँ। वे उन्हीं की गाड़ी से रोज समारोह में आते थे और शाम को लौट जाते थे। मैं सपत्नीक गया था। मेरे जमाता अश्विनीकुमार तिवारी और बेटी अंजलि उस समय कलकत्ता में ही थे। हमें वहाँ ठहरना था किंतु रोज-रोज वहाँ से समारोह स्थल जाने में काफी समय लगता था और बस की यात्रा बड़ी कष्टकर थी अत: मैं समारोह -स्थल के पास ही (जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था थी) ठहर गया। एक कमरे में मैं और डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल थे और दूसरे में निर्मल वर्मा और अवधनारायण मुद्गल।
दिन का समारोह संपन्न हुआ। कुछ लोगों ने समकालीन कथा-साहित्य पर परचे पढ़े कुछ बोले। डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर ने पाँच उपन्यासों की चर्चा की जिनमें 'सोनामाटी' पर उनकी टिप्पणी खट्टी-मीठी थी। उस दिन विवेकी राय को पहली बार तिक्त होते हुए देखा। उन्होंने बांदिवडेकर को ललकारते हुए कहा, ''लगता है इन्होंने उपन्यास पढ़ा ही नहीं है। ऐसे ही टिप्प्णी जड़ दी है।'' यह एक रचनाकार का आत्विक आक्रोश था। रचनाकार अपने को गला-पचाकर, वेदना सहकर एक सृष्टि करता है और आलोचक बड़ी आसानी से उस पर मन चाही टिप्प्णी दे देता है। चंद्रकान्त जी की टिप्प्णी अपनी जगह सही होगी किंतु एक रचनाकार की सात्विक तिलमिलाहट भी सही है।  
दिन का समारोह संपन्न हुआ। कुछ लोगों ने समकालीन कथा-साहित्य पर परचे पढ़े कुछ बोले। डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर ने पाँच उपन्यासों की चर्चा की जिनमें 'सोनामाटी' पर उनकी टिप्पणी खट्टी-मीठी थी। उस दिन विवेकी राय को पहली बार तिक्त होते हुए देखा। उन्होंने बांदिवडेकर को ललकारते हुए कहा, ''लगता है इन्होंने उपन्यास पढ़ा ही नहीं है। ऐसे ही टिप्प्णी जड़ दी है।'' यह एक रचनाकार का आत्विक आक्रोश था। रचनाकार अपने को गला-पचाकर, वेदना सहकर एक सृष्टि करता है और आलोचक बड़ी आसानी से उस पर मन चाही टिप्प्णी दे देता है। चंद्रकान्त जी की टिप्प्णी अपनी जगह सही होगी किंतु एक रचनाकार की सात्विक तिलमिलाहट भी सही है।  
वैसे विवेकी राय आलोचक भी हैं, बहुत अच्छे आलोचक हैं किंतु बहुत सहृदय आलिचक हैं। इतने सहृदय कि किसी रचना की अशक्तियों के प्रति तिक्त होते ही नहीं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे रचनाओं की शक्तियाँ ही ज्यादा देखते हैं, बल्कि उसे ही देखते हैं। अनेक धाराओं, प्रवृतियों और दृष्टियों की रचनाओं को समान सहृदयता से परखते हैं और प्राय: उन्हें रचनात्मक उपलब्धि की एक कतार में खड़ी कर देते हैं। मैंने उनसे एक बार उनके इस प्रकार के समीक्षा-कार्य के प्रति शिकायत की तो बोले, ''मैं क्या करूँ, मुझे रचनाओं में दोष दिखाई ही नहीं पड़ता, मैं हर रचना में उसकी खूबी ही ढूढने लगता हूँ।'' यह भी द्र्ष्टव्य हैं कि मैंने उनके उपन्यासों की शक्तियों के साथ अशक्तियों की बार-बार चर्चा की है किंतु उन्हें मेरे यहाँ अच्छ-ही-अच्छा दिखायी पड़ता रहा है। इसलिये अपनी महत्वपूर्ण रचना के प्रति किसी को असहृदय होते देखकर उनका रोष में आ जाना स्वाभाविक ही है।  
वैसे विवेकी राय आलोचक भी हैं, बहुत अच्छे आलोचक हैं किंतु बहुत सहृदय आलिचक हैं। इतने सहृदय कि किसी रचना की अशक्तियों के प्रति तिक्त होते ही नहीं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे रचनाओं की शक्तियाँ ही ज्यादा देखते हैं, बल्कि उसे ही देखते हैं। अनेक धाराओं, प्रवृतियों और दृष्टियों की रचनाओं को समान सहृदयता से परखते हैं और प्राय: उन्हें रचनात्मक उपलब्धि की एक कतार में खड़ी कर देते हैं। मैंने उनसे एक बार उनके इस प्रकार के समीक्षा-कार्य के प्रति शिकायत की तो बोले, ''मैं क्या करूँ, मुझे रचनाओं में दोष दिखाई ही नहीं पड़ता, मैं हर रचना में उसकी खूबी ही ढूढने लगता हूँ।'' यह भी द्र्ष्टव्य हैं कि मैंने उनके उपन्यासों की शक्तियों के साथ अशक्तियों की बार-बार चर्चा की है किंतु उन्हें मेरे यहाँ अच्छ-ही-अच्छा दिखायी पड़ता रहा है। इसलिये अपनी महत्वपूर्ण रचना के प्रति किसी को असहृदय होते देखकर उनका रोष में आ जाना स्वाभाविक ही है।  
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उनके सहज साहचर्य के अनेक छोटे-छोटे प्रसंग हैं जिनके सुख से मन अंटा पड़ा है। विवेकी राय आंचलिक कथाकार हैं और अनेक आंचलिक कथाकारों के विपरीत वे आंचलिकता के प्रति गर्व करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ अन्य आंचलिक कथाकार अपने अंचल से अलग हो कर शहर में आ गये हैं और अंचल से प्राप्त पूँजी का अपने लेखन के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहाँ विवेकी राय लगातार अपने अंचल के बीच रहे।
उनके सहज साहचर्य के अनेक छोटे-छोटे प्रसंग हैं जिनके सुख से मन अंटा पड़ा है। विवेकी राय आंचलिक कथाकार हैं और अनेक आंचलिक कथाकारों के विपरीत वे आंचलिकता के प्रति गर्व करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ अन्य आंचलिक कथाकार अपने अंचल से अलग हो कर शहर में आ गये हैं और अंचल से प्राप्त पूँजी का अपने लेखन के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहाँ विवेकी राय लगातार अपने अंचल के बीच रहे।


गाजीपुर के एक कॉलेज़ में प्रवक्ता होने के साथ-साथ अपने गाँव का किसान बने रहे। गाँव की बनती-बिगड़ती जिंदगी के बीच जीते हुए और उसे पहचानते हुए वे चलते रहे। इसलिए गाँव के जीवन से सम्बंधित उनके अनुभवों का खजाना चुका नहीं, नित भरता ही गया। अपने के बीच लगातार जीते चलने के कारण वहाँ, के पात्रों, उनके सम्बंधों, समस्याओं, मूल्य-संक्रमण, लोकगीतों लोक-व्यापारों आदि की प्रमाणिक छवि उसके साहित्य में उभरती रही है, उभरती जा रही है। लगता है उनके अनुभवों में लगातार बदलता हुआ अंचल अपने बहुआयामी यथार्थ के साथ खलबला रहा है और उनके उपन्यासों, निबंधों और कहानियों के माध्यम से फूट पड़ने को आकुल-व्याकुल है।  
गाजीपुर के एक कॉलेज़ में प्रवक्ता होने के साथ-साथ अपने गाँव का किसान बने रहे। गाँव की बनती-बिगड़ती जिंदगी के बीच जीते हुए और उसे पहचानते हुए वे चलते रहे। इसलिए गाँव के जीवन से सम्बंधित उनके अनुभवों का खजाना चुका नहीं, नित भरता ही गया। अपने के बीच लगातार जीते चलने के कारण वहाँ, के पात्रों, उनके सम्बंधों, समस्याओं, मूल्य-संक्रमण, लोकगीतों लोक-व्यापारों आदि की प्रमाणिक छवि उसके साहित्य में उभरती रही है, उभरती जा रही है। लगता है उनके अनुभवों में लगातार बदलता हुआ अंचल अपने बहुआयामी यथार्थ के साथ खलबला रहा है और उनके उपन्यासों, निबंधों और कहानियों के माध्यम से फूट पड़ने को आकुल-व्याकुल है।  
 
==विवेकी राय की रचनाएँ==
;ललित निबंध
*  किसानों का देश (1956)
*  गाँवों की दुनियाँ (1957)
*  त्रिधारा (1958)
*  फिर बैतलवा डाल पर (1962)
*  गंवई गंध गुलाब (1980)
*  नया गाँवनाम (1984)
*  यह आम रास्ता नहीं है (1988)
*  आस्था और चिंतन (1991)
*  जगत् तपोवन सो कियो (1995)
*  वन तुलसी की गंध (2002)
*  जीवन अज्ञात का गणित है (2004)
*  उठ जाग मुसाफ़िर (2012)
 
;उपन्यास
*  बबूल (1964, डायरी-शैली में)
*  पुरुष पुराण (1975)
*  लोकऋण (1977)
*  श्वेत पत्र (1979)
*  सोनमाटी (1983)
*  समर शेष है (1988)
*  मंगल भवन (1994)
*  नमामि ग्रामम् (1997)
*  देहरी के पार (2003)
 
;कहानी-संग्रह
*  जीवन-परिधि (1952)
*  नयी कोयल (1975)
*  गूंगा जहाज (1977)
*  बेटे की बिक्री (1981)
*  कलातीत (1982)
*  चित्रकूट के घाट पर (1988)
*  सर्कस (2005)
*  मेरी तेरह कहानियाँ
*  आंगन के बंधनवार
*  अतिथि
*  लौटकर देखना
*  लोकरिन
 
;संस्मरण
*  मेरे शुद्ध श्रद्धेय
 
;रिपोर्ताज
*  जुलूस रुका है (1977)
 
;डायरी
*  मनबोध मास्टर की डायरी (2006)
 
;काव्य
*  दीक्षा
 
;साहित्य समालोचना
*  कल्पना और हिन्दी साहित्य (1999)
*  नरेन्द्र कोहली अप्रतिम कथा यात्री


विवेकी राय की रचनाएँ
;अन्य
ललित निबंध
* मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1984)
•  किसानों का देश (1956)
* सवालों के सामने
•  गाँवों की दुनियाँ (1957)
* ये जो है गायत्री
•  त्रिधारा (1958)
* मुहम्मद इलियास हुसैम
•  फिर बैतलवा डाल पर (1962)
•  गंवई गंध गुलाब (1980)
•  नया गाँवनाम (1984)
•  यह आम रास्ता नहीं है (1988)
•  आस्था और चिंतन (1991)
•  जगत् तपोवन सो कियो (1995)
•  वन तुलसी की गंध (2002)
•  जीवन अज्ञात का गणित है (2004)
•  उठ जाग मुसाफ़िर (2012)
 
उपन्यास
•  बबूल (1964, डायरी-शैली में)
•  पुरुष पुराण (1975)
•  लोकऋण (1977)
•  श्वेत पत्र (1979)
•  सोनमाटी (1983)
•  समर शेष है (1988)
•  मंगल भवन (1994)
•  नमामि ग्रामम् (1997)
•  देहरी के पार (2003)
कहानी-संग्रह
•  जीवन-परिधि (1952)
•  नयी कोयल (1975)
•  गूंगा जहाज (1977)
•  बेटे की बिक्री (1981)
•  कलातीत (1982)
•  चित्रकूट के घाट पर (1988)
•  सर्कस (2005)
•  मेरी तेरह कहानियाँ
•  आंगन के बंधनवार
•  अतिथि
•  लौटकर देखना
•  लोकरिन
संस्मरण
•  मेरे शुद्ध श्रद्धेय
रिपोर्ताज
•  जुलूस रुका है (1977)
डायरी
•  मनबोध मास्टर की डायरी (2006)
काव्य
•  दीक्षा
साहित्य समालोचना
•  कल्पना और हिन्दी साहित्य (1999)
•  नरेन्द्र कोहली अप्रतिम कथा यात्री
अन्य
मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1984)
सवालों के सामने
ये जो है गायत्री
  
  -  मुहम्मद इलियास हुसैम


Pasted from <http://hindisahityavimarsh.blogspot.in/2014/07/blog-post.html>  
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अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लडकियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।
अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लड़कियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।
    ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं।
    ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं।
(श्री सतीश पंचम जी के पोस्ट से साभार)  
(श्री सतीश पंचम जी के पोस्ट से साभार)  

12:24, 7 दिसम्बर 2016 का अवतरण

विवेकी राय (अंग्रेज़ी: Viveki Rai जन्म- 19 नवम्बर, 1924, ज़िला- गाजीपुर, उत्तरप्रदेश; मृत्यु- 22 नवम्बर, 2016, वाराणसी ) हिन्दी और भोजपुरी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे 50 से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं। विवेकी राय ललित निबंध, कथा साहित्य और कविता कर्म में समभ्यस्त हैं।

परिचय

विवेकी राय देहाती धरती की ऊष्मा से बने एक सीधे सच्चे कर्मठ इंसान थे। उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से अपने को कहाँ से कहाँ तक उठाया। विवेकी राय गाँव की खेती-बारी भी देखते थे और गाजीपुर में अध्यापन तथा साहित्य सेवा में भी लीन रहते थे। गाँव के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करते हुए भी उन्होंने बहुत लगन से विपुल साहित्य पढ़े और लिखे थे। विवेकी राय अपने मित्रों और परिचतों में तथा पाठकों में भी बहुत प्यार से जाने जाते थे।

'प्रभात प्रकाशन' ने डोर बाँधी और खींचना शुरू किया। लगा कि अंत में बिदक ही जाएंगे लेकिन बिदकते-बिदकते भी खिंचे चले आये। महानगर-भीरू होते हुए भी उन्होंने मुझे स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन आने से मना किया। लेकिन मुझे तो स्टेशन पहुँचना ही था। लम्बे प्लेटफोर्म पर मैंने कोशिश की कि उन्हें कहीं से पकड़ लूँ, लेकिन डिब्बे का पता न होने पर पकड़ पाना आसान होता है क्या? वे नहीं मिले और मैं यह मानकर बस में बैठ गया कि वे नहीं आए होंगे। तब तक उन्हें सामने की सड़क पर भटकते हुए देखा और लपककर जा मिला। वे मुझे देखते ही प्रसन्न हुए किंतु पहला सवाल यही किया, अरे आप मुझे लेने के लिये सवेरे-सवेरे स्टेशन पर क्यों आएँ? मैं तो आ ही जाता। मैं मुस्कराया, हाँ, जरूर आ जाते , तभी तो सड़क पर भटक रहे थे। अरे, मैं भटक नहीं रहा था, यह सोच रहा था कि किस सवारी से आपके यहाँ चलूँ। अब जब आ ही गया हूँ तो महानगर मेरा क्या लेगा? कर तो कुछ नहीं लेगा, उसे भटकाने से कौन रोक सकता है? और दो दिन आद विवेकी राय नोएडा गये। वैसे तो प्रभात प्रकाशन के श्यामसुंदर जी ने अपनी गाड़ी से उन्हें काफी घुमाया-फिराया, लेकिन आखिर दूसरे की गाड़ी कहाँ-कहाँ साथ देती। सो वे मेरे घर से सुबह-सुबह निकले नोएडा के लिये। वहाँ किसी से मिलना था। कहा कि तीन-चार बजे तक लौट आऊँगा। चार बजे, पाँच बजे, सात बजे, आठ बजे हमारी चिंता बढ‌ती गयी। महानगर ने कहीं उन्हें प्रेम से तो नहीं भटका दिया। अखिर दस बजे पहुँचे, लस्त-पस्त्। हम आश्वस्त तो हुए किंतु उनकी गहरी थकान ने हमें चिंतित कर दिया। ह्कहाँ रह गये थे बंधु, हम लोग तो बहुत परेशान हो रहे थे? वे ठठाकर हँसे। बोले, अरे क्या बताऊँ डॉक्टर साहब, नोएडा से प्रगति मैदान आया और किसी ने गलत नंबर बता दिया और मैं फिर नोएडा जाने वाली बस में बैठ गया। नोएडा पहुँचने पर लगा- अरे, यहीं से तो मैं गया था। किसी से पूचा तो मालूम पड़ा कि यह नोएडा है। यानी मैं कई घंटों नोएडा से नोएडा को यात्रा करता रह गया। वाह री दिल्ली! और वे फिर हँसे। हम भी हँसने लगे और अम सबकी परेशानी हँसी में बह गई। पेज 149 उनसे फिर मेरी भेंट कलकत्ता में हुई। कथा-समारोह में मैं दिल्ली से गया था और वे गाजीपुर से अये थे। वे ठहरे थे कलकत्ता के उपांत में अपने जवार के किसी व्यापारी के यहाँ। वे उन्हीं की गाड़ी से रोज समारोह में आते थे और शाम को लौट जाते थे। मैं सपत्नीक गया था। मेरे जमाता अश्विनीकुमार तिवारी और बेटी अंजलि उस समय कलकत्ता में ही थे। हमें वहाँ ठहरना था किंतु रोज-रोज वहाँ से समारोह स्थल जाने में काफी समय लगता था और बस की यात्रा बड़ी कष्टकर थी अत: मैं समारोह -स्थल के पास ही (जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था थी) ठहर गया। एक कमरे में मैं और डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल थे और दूसरे में निर्मल वर्मा और अवधनारायण मुद्गल। दिन का समारोह संपन्न हुआ। कुछ लोगों ने समकालीन कथा-साहित्य पर परचे पढ़े कुछ बोले। डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर ने पाँच उपन्यासों की चर्चा की जिनमें 'सोनामाटी' पर उनकी टिप्पणी खट्टी-मीठी थी। उस दिन विवेकी राय को पहली बार तिक्त होते हुए देखा। उन्होंने बांदिवडेकर को ललकारते हुए कहा, लगता है इन्होंने उपन्यास पढ़ा ही नहीं है। ऐसे ही टिप्प्णी जड़ दी है। यह एक रचनाकार का आत्विक आक्रोश था। रचनाकार अपने को गला-पचाकर, वेदना सहकर एक सृष्टि करता है और आलोचक बड़ी आसानी से उस पर मन चाही टिप्प्णी दे देता है। चंद्रकान्त जी की टिप्प्णी अपनी जगह सही होगी किंतु एक रचनाकार की सात्विक तिलमिलाहट भी सही है। वैसे विवेकी राय आलोचक भी हैं, बहुत अच्छे आलोचक हैं किंतु बहुत सहृदय आलिचक हैं। इतने सहृदय कि किसी रचना की अशक्तियों के प्रति तिक्त होते ही नहीं। यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे रचनाओं की शक्तियाँ ही ज्यादा देखते हैं, बल्कि उसे ही देखते हैं। अनेक धाराओं, प्रवृतियों और दृष्टियों की रचनाओं को समान सहृदयता से परखते हैं और प्राय: उन्हें रचनात्मक उपलब्धि की एक कतार में खड़ी कर देते हैं। मैंने उनसे एक बार उनके इस प्रकार के समीक्षा-कार्य के प्रति शिकायत की तो बोले, मैं क्या करूँ, मुझे रचनाओं में दोष दिखाई ही नहीं पड़ता, मैं हर रचना में उसकी खूबी ही ढूढने लगता हूँ। यह भी द्र्ष्टव्य हैं कि मैंने उनके उपन्यासों की शक्तियों के साथ अशक्तियों की बार-बार चर्चा की है किंतु उन्हें मेरे यहाँ अच्छ-ही-अच्छा दिखायी पड़ता रहा है। इसलिये अपनी महत्वपूर्ण रचना के प्रति किसी को असहृदय होते देखकर उनका रोष में आ जाना स्वाभाविक ही है। बहरहाल मैं बात कर रहा था कथा-समारोह की। उस संगोष्ठी मे6 मैं भी बोला था और कथा में व्यक्तिवादी और समाजिक चेतना के संदर्भ में मैंने निष्कर्ष निकाला था कि सामाजिक चेतना के कथाकारों का निरंतर विकास हो रहा है और व्यक्तिवादी कथाकारों की कथा-यात्रा थोड़ी दूर के बाद चुकने लगती है। पेज-150 इस संदर्भ में निर्मल वर्मा का भी नाम लिया था। शाम को हम आवास स्थल में बैठे हुए अग्नि-सेवन कर रहे थे। वह नववर्ष की पूर्व संध्या थी। हम नए वर्ष के आगमन का भी सुख ले रहे थे। निर्मल जी कहीं से पीकर आए थे और किसी बात के संदर्भ में मुझ पर इनायत बरसानी शुरू कर दी। फिर अनेक अध्यापक उनकी इनायत की लपेट में आ गए। मैं तो कुछ देर अवाक् देखता रहा। विश्वास नहीं हो रहा था कि निर्मल जी जैसा संभ्रांत दीखने वाला व्यक्ति इस तरह कटु और फूहड़ हो सकता है। कुछ देर तक उन्हें झेलने के बाद मैंने प्रतिवाद किया और उठकर अपने कमरे में चला गया। रातभर परिताप से जो खिन्न रहा। दूसरे दिन विवेकी राय से घटना बतायी तो बहुत दु:खी हुए और कहा कि दरअसल, ठेठ शहरी लोगों के साथ अपनी पटरी बैठ ही नहीं सकती। आप मेरे साथ रहिए। आप के होने से मुझे कितना सुख मिलेगा, इसका अनुभव मैं कर सकता हूँ। बहरहाल, पूरे दो दिन में उनके साथ ही रहा और पहले दिन के शहरी साहचर्य की कटुता इस निपट देहाती व्यक्ति के साहचर्य की ऊष्मा में गलकर बह गई और मन खुले आसमान की तरह साफ हो गया। उनके सहज साहचर्य के अनेक छोटे-छोटे प्रसंग हैं जिनके सुख से मन अंटा पड़ा है। विवेकी राय आंचलिक कथाकार हैं और अनेक आंचलिक कथाकारों के विपरीत वे आंचलिकता के प्रति गर्व करते हैं। इसका कारण यही हो सकता है कि जहाँ अन्य आंचलिक कथाकार अपने अंचल से अलग हो कर शहर में आ गये हैं और अंचल से प्राप्त पूँजी का अपने लेखन के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहाँ विवेकी राय लगातार अपने अंचल के बीच रहे।

गाजीपुर के एक कॉलेज़ में प्रवक्ता होने के साथ-साथ अपने गाँव का किसान बने रहे। गाँव की बनती-बिगड़ती जिंदगी के बीच जीते हुए और उसे पहचानते हुए वे चलते रहे। इसलिए गाँव के जीवन से सम्बंधित उनके अनुभवों का खजाना चुका नहीं, नित भरता ही गया। अपने के बीच लगातार जीते चलने के कारण वहाँ, के पात्रों, उनके सम्बंधों, समस्याओं, मूल्य-संक्रमण, लोकगीतों लोक-व्यापारों आदि की प्रमाणिक छवि उसके साहित्य में उभरती रही है, उभरती जा रही है। लगता है उनके अनुभवों में लगातार बदलता हुआ अंचल अपने बहुआयामी यथार्थ के साथ खलबला रहा है और उनके उपन्यासों, निबंधों और कहानियों के माध्यम से फूट पड़ने को आकुल-व्याकुल है।

विवेकी राय की रचनाएँ

ललित निबंध
  • किसानों का देश (1956)
  • गाँवों की दुनियाँ (1957)
  • त्रिधारा (1958)
  • फिर बैतलवा डाल पर (1962)
  • गंवई गंध गुलाब (1980)
  • नया गाँवनाम (1984)
  • यह आम रास्ता नहीं है (1988)
  • आस्था और चिंतन (1991)
  • जगत् तपोवन सो कियो (1995)
  • वन तुलसी की गंध (2002)
  • जीवन अज्ञात का गणित है (2004)
  • उठ जाग मुसाफ़िर (2012)
उपन्यास
  • बबूल (1964, डायरी-शैली में)
  • पुरुष पुराण (1975)
  • लोकऋण (1977)
  • श्वेत पत्र (1979)
  • सोनमाटी (1983)
  • समर शेष है (1988)
  • मंगल भवन (1994)
  • नमामि ग्रामम् (1997)
  • देहरी के पार (2003)
कहानी-संग्रह
  • जीवन-परिधि (1952)
  • नयी कोयल (1975)
  • गूंगा जहाज (1977)
  • बेटे की बिक्री (1981)
  • कलातीत (1982)
  • चित्रकूट के घाट पर (1988)
  • सर्कस (2005)
  • मेरी तेरह कहानियाँ
  • आंगन के बंधनवार
  • अतिथि
  • लौटकर देखना
  • लोकरिन
संस्मरण
  • मेरे शुद्ध श्रद्धेय
रिपोर्ताज
  • जुलूस रुका है (1977)
डायरी
  • मनबोध मास्टर की डायरी (2006)
काव्य
  • दीक्षा
साहित्य समालोचना
  • कल्पना और हिन्दी साहित्य (1999)
  • नरेन्द्र कोहली अप्रतिम कथा यात्री
अन्य
  • मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1984)
  • सवालों के सामने
  • ये जो है गायत्री
  • मुहम्मद इलियास हुसैम

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अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लड़कियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।     ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं। (श्री सतीश पंचम जी के पोस्ट से साभार) डॉ. विवेकी राय हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। वे ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। श्री राय उनका जन्म 19 नवम्बर सन् 1924 को भरौली (बलिया) नामक ग्राम में हुआ है। इनकी आरमिभिक शिक्षा इनके पैतृक गाँव सोनवानी (गाजीपुर) में हुई।  स्नातकोत्तर परीक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1970 ई. में स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा साहित्य और ग्राम जीवन विषय पर काशी विद्यापीठ, वाराणसी से आपको पी. एच. डी. की उपाधि मिली। डॉ. विवेकी राय जी के अध्यापकीय जीवन की जो शुरूआत ‘सोनवानी’ के लोअर प्राइमरी स्कूल शुरू हुई वह हाई स्कूल नरहीं (बलिया), श्री सर्वोदय इण्टर कॉलेज खरडीहां (गाज़ीपुर) होते हुए स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाज़ीपुर में सन् 1988 ई. तक चली। यह अपने आप में शैक्षिक मूल्यों की प्राप्ति और प्रदेय का अनूठा उदाहरण है। जब 7वीं कक्षा में अध्यन कर रहे थे उसी समय से डॉ.विवेकी राय जी ने लिखना शुरू किया। सन् 1945 ई. में आपकी प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमनें का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़ा रहा। अब तक इन सभी विधाओं से सम्बन्धित लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग 10 प्रकाशनाधीन हैं। प्रकाशित कृतियाँ निम्न हैं- काव्य संग्रह : अर्गला,राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि। कहानी संग्रह : जीवन परिधि, नई कोयल, गूंगा जहाज बेटे की बिक्री, कालातीत, चित्रकूट के घाट पर, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ , श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, अतिथि, विवेकी राय की तेरह कहानियाँ आदि। उपन्यास : बबूल,पूरुष पुराण, लोक ऋण, बनगंगी मुक्त है, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम्, अमंगल हारी, देहरी के पार आदि। फिर बैतलवा डाल पर, जुलूस रुका है, मन बोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनाम, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ,जगत तपोवन सो कियो, आम रास्ता नहीं है, जावन अज्ञात की गणित है, चली फगुनाहट, बौरे आम आदि अन्य रचनाओं का प्रणयन भी डॉ. विवेकी राय ने किया है। इसके अलावा डॉ. विवेकी राय ने 5 भोजपुरी ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। सर्वप्रथम इन्होंने अपना लेखन कार्य कविता से शुरू किया। इसीलिए उन्हें आज भी ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है। विवेकी राय स्वभावतः गम्भीर एवं खुश-मिज़ाज़ रचनाकार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सीधे, सच्चे, उदार एवं कर्मठ व्यक्ति हैं। ललाट पर एक बड़ा सा तिल, सादगी, सौमनस्य, गंगा की तरह पवित्रता, ठहाका मारकर हँसना, निर्मल आचार-विचार आपकी विशेषताएँ हैं। सदा खादी के घवल वस्त्रों में दिखने वाले, अतिथियों का ठठाकर आतिथ्य सत्कार करने वाले साहित्य सृजन हेतु नवयुवकों को प्रेरित करने वाले आप भारतीय संस्कृति की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। डॉ. विवेकी राय का जीवन सादगी पूर्ण है। गम्भीरता उनका आभूषण है। दूसरों के प्रति अपार स्नेह एवं सम्मान का भाव सदा वे रखते हैं। सबसे खुलकर गम्भीर विषय की निष्पत्ति एवं चर्चा करना उनका स्वभाव है। अपने इन्हीं गुणों के कारण पहुतों के लिए वे परम पूज्य एवं आदरणीय बने हुए हैं। कुल मिलाकर वे संत प्रकृति के सज्जन हैं। विशुद्ध भोजपुरी अंचल के महान् साहित्यकार हैं। सत्पथ पर दृढ़ निश्चय के साथ बढ़ते रहने का सतत् प्रेरणा देने वाले डॉ. विवेकी राय मूलतः गँवई सरोकार के रचनाकार हैं। बदलते समय के साथ गाँवों में होने वाले परिवर्तनों एवं  आँचलिक चेतना विवेकी राय के कथा साहित्य की एव विशेषता है। इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों तथा उपेक्षितों की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान की है। अपनी रचनाधार्मिता के कारण इन्हें हम प्रेमचन्द और फणीश्वर नाथ रेणु के बीच का स्थान दे सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन में परिलक्षित परिवर्तनों को इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। इनके कथा साहित्य में गाँव की खूबियाँ एवं अन्तर्विरोध हमें स्वष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उनकी सृजन यात्रा अर्धशती से आगे निकली है। जीवन के साकारात्मक पहलुओं की ओर, लोक मंगल की ओर इन्होंने अब तक विशेष ध्यान दिया है। डॉ. विवेकी राय को अनेकों पुरस्कारों एवं मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया है। हिन्दी संस्थान (उ.प्र.) द्वारा ‘सोनामाटी’ उपन्यास पर दिया गया प्रेमचन्द पुरस्कार , हिन्दी संस्थान लखनऊ (उ.प्र. ) द्वारा दिया गया साहित्य भूषण पुस्स्कार, बिहार सरकार द्वारा प्रदान किया गया आचार्य शिवपूजन सहाय सम्मान; ‘आचार्य शिवपूजन सहाय’ पुरस्कार मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘शरद चन्द जोशी ; सम्मान केन्द्रीय हिन्दी संस्थान एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में दिया गया ‘पंडित राहुल सांकृत्यायन’ सम्मान तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ओर से प्रदत्त ‘साहित्य वाचस्पति’ उपाधि जैसे अनेकों सम्मान इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। डॉ. विवेकी राय के उपन्यासों, कहानियों, ललित निबन्धों; उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व, उनकी सम्पूर्ण साहित्य साधना पर पंजाब वि.वि, गोरखपुर विश्वविद्यालय, रुहेल खण्ड विश्वाद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, मगध विश्वविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय, मुम्बई विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सबा मद्रास, श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, डॉ. भीमराव अमबेडकर विश्वविद्यालय, पंडित दीन दयाल विश्वविद्यालय, शिवाजी विश्वविद्यालय, माहाराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजस्थान विश्वविद्यालय, वीर बहादुर सिंह पर्वांचल विश्वविद्यालय,बेंगलोर विश्वविद्यालय, जेयोति बाई विश्वविद्यालय, जम्मू विश्वविद्यालय, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय आदि विश्वविद्यालयों में एम, फिल,/ पी. एच. डी. के 70 शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं और कई विश्वविद्यालयों में छात्रों द्वारा इन पर शोध कार्य किया जा रहा है।

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हिंदी और भोजपुरी में किए गए उनके कार्य सदा उनकी याद दिलाएंगे. आज वाराणसी में अंतिम संस्कार होगा


हिंदी और भोजपुरी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. विवेकी राय का आज वाराणसी में निधन हो गया. 93 वर्षीय डॉ. राय ने आज तड़के पौने पांच बजे अंतिम सांस ली .सांस लेने में तकलीफ के कारण चलतेीे कुछ दिनों से वाराणसी के निजी अस्पताल उनका इलाज चल रहा था। बीते 19 नवंबर को ही उन्होंने अपना 93वां जन्मदिन मनाया था. आज वाराणसी में अंतिम संस्कार होगा.

डॉ. राय ने हिंदी के साथ ही भोजपुरी साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी. उन्होंने आंचलिक उपन्यासकार के रुप में ख्याति अर्जित की. डॉ. विवेकी राय को उत्तर प्रदेश सरकार ने यश भारती पुरस्कार दिया था. श्रीमठ,काशी ने तीन साल पहले डॉ. राय को जगदगुरु रामानंदाचार्य पुरस्कार से सम्मानित किया था.देश भर से लोगों ने  डॉ राय को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा है कि ५० से अधिक पुस्तकों के लेखक के  जाने से आंचलिक साहित्य के एक बड़े युग का अंत हो गया. केन्द्रीय संचार औऱ रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ने दिवंगत विवेकी राय को उनके घर पहुँच कर  पुष्पांजलि दी.इस दौरान उन्होंने कहा कि साहित्य जगत को डॉ विवेकी राय के निधन से सहती जगत को अपूरणीय क्षति हुई है .


डॉ विवेकी राय हिन्दी और भोजपुरी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार थे मूल रूप से ग़ाजीपुर के सोनवानी नामक ग्राम के रहने वाले थे. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने विभिन्न सम्मान दिये हैं. 50 से अधिक पुस्तकों की रचना कर चुके हैं. वे ललित निबंध, कथा साहित्य और कविता कर्म में समभ्यस्त हैं. उनकी रचनाएं गंवाई मन और मिज़ाज़ से सम्पृक्त हैं. विवेकी राय का रचना कर्म नगरीय जीवन के ताप से ताई हुई मनोभूमि पर ग्रामीण जीवन के प्रति सहज राग की रस वर्षा के सामान है जिसमें भींग कर उनके द्वारा रचा गया परिवेश गंवाई गंध में डूब जाता है.गाँव की माटी की (सोंधी) महक उनकी ख़ास पहचान है. ललित निबंध विधा में इनकी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की परम्परा में की जाती है. मनबोध मास्टर की डायरीऔर फिर बैतलवा डाल पर इनके सबसे चर्चित निबंध संकलन हैं और सोनामाटी उपन्यास राय का सबसे लोकप्रिय उपन्यास है. उन्हें हिन्दी साहित्य में योगदान के लिए २००१ में महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार एवं २००६ में यश भारती अवार्ड से नवाज़ा गया. उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा महात्मा गांधी सम्मान से भी पुरस्कृत किया गया. उन्होंने कुछ अच्छे निबंधों की भी रचना की थी मनबोध मास्टर की डायरी,गंवाई गंध गुलाब,फिर बैतलवा डाल पर,आस्था और चिंतन,जुलूस रुका है उठ जाग मुसाफ़िर प्रसिद्ध ललित निबंध थे. कथा साहित्य मंगल भवन,नममी ग्रामम्. देहरी के पार,सर्कस,सोनमती,कलातीत,गूंगा जहाज,पुरुष पुरान,समर शेष है, आम रास्ता नहीं है, आंगन के बंधनवार,आस्था और चिंतन,अतिथि,बबूल,जीवन अज्ञान का गणित है,लौटकर देखना,लोकरिन,मेरे शुद्ध श्रद्धेय,मेरी तेरह कहानियाँ,सवालों के सामने,श्वेत पत्र,ये जो है गायत्री काव्य दीक्षा साहित्य समालोचना कल्पना और हिन्दी साहित्य, अनिल प्रकाशन, १९९९ नरेन्द्र कोहली अप्रतिम कथा यात्री अन्य मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनायें, १९८४ भोजपुरी निबंध एवं कविता भोजपुरी निबंध निकुंज: भोजपुरी के तैन्तालिस गो चुनल निम्बंध, अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन, १९७७ गंगा, यमुना, सरवस्ती: भोजपुरी कहानी, निबंध, संस्मरण, भोजपुरी संस्थान, १९९२ जनता के पोखरा: तीनि गो भोजपुरी कविता, भोजपुरी साहित्य संस्थान, १९८४ विवेकी राय के व्याख्यान,भोजपुरी अकादमी, पटना, तिसरका वार्षिकोत्सव समारोहा, रविवारा, २ मई १९८२, के अवसर पर आयोजित व्याख्यानमाला में भोजपुरी कथा साहित्य के विकास विषय पर दो भोजपुरी अकादमी, १९८२ उपन्यास अमंगलहारी, भोजपुरी संस्थान, १९९८ के कहला चुनरी रंगा ला, भोजपुरी संसाद, १९६८ गुरु-गृह गयौ पढ़ान रघुराय, १९९२ उनकी  किताबों और निबंध में उनके जीवन का सार दिखाई पड़ता है जो उनकी ग्रामीण व्यवस्था के प्रति प्रेम और दूरदर्शिता का जीता जागता उदहारण है .

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गाजीपुर। प्रख्यात आंचलिक कथाकार डॉ.विवेकी राय(92) अब नहीं रहे। मंगलवार की भोर में वाराणसी के एक निजी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनके निधन की खबर के बाद गाजीपुर में शोक की लहर व्याप्त हो गई। रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा ने वाराणसी पहुंच कर उनके पार्थिव शरीर पर पुष्पांजलि अर्पित की। उनका अंतिम संस्कार वाराणसी के मणिकर्णिकाघाट पर दोपहर दो बजे के बाद होगा। डॉ.राय काफी दिनों से बीमार चल रहे थे। पहली नवंबर को अचानक तबीयत गंभीर होने के बाद उन्हें वाराणसी के निजी अस्पताल में दाखिल कराया गया था। डॉ.विवेकी राय का परिचय डॉ.विवेकी राय मूलतः मुहम्मदाबदा तहसील के सोनवानी गांव के रहने वाले थे। उनका जन्म अपने ननिहाल भरौली(बलिया) में 19 नवंबर 1924 को हुआ था। उनके जन्म से डेढ़ माह पहले पिता शिवपाल राय की प्लेग की महामारी में निधन हो गया था। मां जविता देवी थीं। पिता के अभाव में उनका बचपन ननिहाल में मामा बसाऊ राय की देख-रेख में बीता। प्रारंभिक शिक्षा पैतृक गांव सोनवानी में हुई। मिडिल की पढ़ाई 1940 में निकटवर्ती गांव महेंद में हुई। उर्दू मिडिल भी 1941 में उन्होंने महेंद से ही पढ़े। 1942 में वह अपने पैतृक गांव में लोअर प्राइमरी स्कूल में अध्यापक बने। साथ ही देश की स्वतंत्रता के लिए चल रहे राष्ट्रव्यापी जनांदोलन में गुप्त रूप से सहयोग किए। उसका वर्णन वह अपने बहुचर्चित उपान्यास श्वेत पत्र में भी किए हैं। आगे की पढ़ाई उन्होंने व्यक्तिगत छात्र के रूप में पूरी की। हिंदी विशेष योग्यता(1943), विशारद(1944), साहित्यरत्न(1946), साहित्यालंकार(1951), हाईस्कूल(1953), इंटर(1958), बीए(1961) और एमए की डिग्री उन्होंने 1964 में ली। उसी क्रम में वह 1948 में नार्मल स्कूल, गोरखपुर से हिंदुस्तानी टीचर्स सर्टिफेकेट भी प्राप्त किए। पीएचडी की डिग्री 1970 में काशी विद्यापीठ से उन्होंने हासिल की। 1964 में वह गाजीपुर के पीजी कॉलेज के हिंदी विभाग में नियुक्त हुए। सालों विभागाध्यक्ष रहे। 1988 में वहां से सेवानिवृत्त हुए। उसके पूर्व 13 साल तक वह अपने निकटवर्ती गांव खरडीहा के सर्वोदय इंटर कॉलेज में अध्यापन किए। …और साहित्यिक सफरनामा यूं तो उनका साहित्यिक सफर मिडिल स्कूल की पढ़ाई के वक्त ही शुरू हो गया था लेकिन लेखन का प्रामाणिक शुरुआत 1945 से माना जाता है। जब उनकी पहली कहानी पाकिस्तानी वाराणसी के लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र आज में प्रकाशित हुई। फिर 1947 से 1970 तक उसी समाचार पत्र में उन्होंने नियमित स्तंभ मनबोध मास्टर की डायरी लिखी। उसमें ललित निबंध, रेखाचित्र और रिपोर्ताज समाहित रहता। फिर तो वह लेखन में प्रतिष्ठापित हो गए। तब की हिंदी की चोटी की पत्रिकाएं धर्मयुग, कल्पना, ज्ञानोदय, कहानी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, नवनीत और कादंबिनी आदि पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं नियमित प्रकाशित होती रहीं। समीक्षा और प्रकर में उनकी रछनाओं की समीक्षाएं आतीं। रविवार में उनका स्तंभ गांव काफी लोकप्रिय हुआ। ज्योत्सना, शिखरवार्ता तथा जनसत्ता में भी उनके स्तंभ आते। ललित निबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ.विद्या निवास मिश्र जैसे महान रचानकार के समकक्ष उन्हें मान मिला। वर्ष 2004 तक उनके लेखन पर देश के जाने-माने विश्वविद्यालयों में कुल 61 शोध कार्य हो चुके थे। डॉ.राय आकाशवाणी, दूरदर्शन से भी जुड़े रहे। यह चर्चित रहे उपान्यास डॉ.विवेका राय का पहला उपान्यास बबूल(1967) था। उसके अलावा पुरुष-पुराण(1975), लोकऋण(1977), श्वेत पत्र(196), सोनामाटी(1983), समरशेष है(1988), मंगल भवन(1994), नमामि ग्रामम्(1996), अमंगलहारी(2000), तथा देहरी के पार(2002) है। साथ ही पांच काव्य संग्रह। दस कहानी संग्रह। नौ ललित निबंध, व्यंग्य, रेखाचित्र। 12 निबंध और शोध-समीक्षा। दो संस्मरण। साथ ही भोजपुरी साहित्य के लिए उन्होंने ललित निबंध, काव्य, समीक्षा, कहानी संग्रह, फीचर, उपन्यास तथा लघु लोककथा के रूप में कुल नौ पुस्तकें लिखीं। कई पत्रिकाओं का वह संपादन भी किए। यह मिले सम्मान और पुरस्कार डॉ.विवेकी राय को साहित्य के लिए मिले प्रमुख सम्मानों में हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश का प्रेमचंद सम्मान(1987)। केडिया सांस्कृतिक संस्थान, देवरिया का आनंद सम्मान। विक्रमशीला विद्यापीठ, गांधीनगर इशीपुर भागलपुर का विद्यासागर सम्मान। हिंदी सम्मेलन का विद्यावाचसपति। साहित्य महोपध्याय की मानद उपाधि। हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश का साहित्यभूषण(1994), अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद, उत्तर प्रदेश का भोजपुरी भास्कर(1994), राजभाषा विभाग, बिहार सरकार का आचार्य शिवपूजन सहाय पुरस्कार(1994)। मध्य प्रदेश सरकार का राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान(1997), साहित्य मंडल श्रीनाथ राजस्थान का हिंदी सेवी सम्मान(1999), अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन का अभय आनंद पुरस्कार। स्वामी सहजानंद सरस्वती हितकारी समाज, दिल्ली का स्वामी सहजानंद सरस्वती सेवा पुरस्कार। पूर्वांचल विश्वविद्यालय का पूर्वांचल रत्न सम्मान(2000), केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा का महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान(2002), विश्व भोजपुरी देवरिया का सेतु सम्मान(2004), उत्तर प्रदेशीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान(2004), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का साहित्य वाचस्पति(2004), दैनिक समाचार पत्र दैनिक जागरण का नरेंद्र मोहन आंचलिक लेखक सम्मान(2005) और उत्तर प्रदेश का यश भारती सम्मान(2006)।

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