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'''रामकृष्ण गोपाल भंडारकर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''R. G. Bhandarkar'', जन्म: [[6 जुलाई]], 1837, [[रत्नागिरि]], [[महाराष्ट्र]]; मृत्यु: [[24 अगस्त]], [[1925]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध इतिहासविद, समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री थे। 'ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस' (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर [[विधवा विवाह]] का समर्थन किया। साथ ही उन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया। प्राचीन [[संस्कृत साहित्य]] के विद्वान की हैसियत से इन्होंने [[संस्कृत]] की प्रथम पुस्तक और संस्कृत की द्वितीय पुस्तक की रचना भी की, जो [[अंग्रेज़ी]] माध्यम से संस्कृत सीखने की सबसे आरम्भिक पुस्तकों में से एक हैं।
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'''सखाराम गणेश देउसकर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Sakharam Ganesh Deuskar'', जन्म: [[17 दिसंबर]], [[1869]], [[बिहार|बिहार प्रदेश]]; मृत्यु: [[23 नवंबर]], [[1912]]) क्रांतिकारी लेखक, [[इतिहासकार]] तथा पत्रकार थे। ये भारतीय जन जागरण के ऐसे विचारक थे जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र [[इतिहास]], [[अर्थशास्त्र]], [[समाज]] एवं [[साहित्य]] था।
==परिचय==
==परिचय==
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का जन्म 6 जुलाई, 1837 ई. को [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरी ज़िले के मालवण नामक स्थान में एक साधारण [[परिवार]] में हुआ था। इनके [[पिता]] मालवण के मामलेदार के अधीनस्थ मुंशी (क्लर्क) थे। शुरुआती शिक्षा में आयी कठिनाई के बाद जब इनके पिता का स्थानांतरण रत्नागिरी ज़िले के राजस्व विभाग में हुआ तो इन्हें [[अंग्रेज़ी]] स्कूल में पढ़ने का मौका मिला।<ref>{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=725|url=}}</ref>
सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब [[झारखंड]] राज्य में है। मराठी मूल के देउस्कर के पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरि ज़िले में [[शिवाजी]] के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के देउस गांव से आकर 'करौं' में बस गए थे। पाँच साल की अवस्था में माँ का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण इनकी विधवा बुआ के पास हुआ जो [[मराठी साहित्य]] से भली भाँति परिचित थीं। इनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में [[वेद|वेदों]] के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने [[बंगाली भाषा]] भी सीखी। [[इतिहास]] इनका प्रिय विषय था। ये [[बाल गंगाधर तिलक]] को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।
====शिक्षा====
==शिक्षा==
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने रत्नागिरी से स्कूली शिक्षा पूरी करके 1853 में [[मुम्बई]] के एल्फ़िंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया, जहाँ इन्होंने जिन जानी मानी हस्तियों से शिक्षा प्राप्त की, उनमें प्रथम राष्ट्रवादी 'चिंतक' और 'ड्रेन थियरी' के प्रतिपादक [[दादाभाई ]] प्रमुख थे। दादाभाई नौरोज़ी के प्रोत्साहन के कारण ही [[अंग्रेज़ी साहित्य]], प्राकृतिक विज्ञान और गणित के प्रति रुचि के बावजूद भण्डारकर ने [[संस्कृत]] और [[पालि]] के ज्ञान के सहारे गौरवशाली अतीत के पुनर्निर्माण हेतु इतिहास-लेखन को अपनाया। [[1862]] में ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज के पहले बैच से ग्रेजुअट होने वालों में से एक थे। वहाँ पर बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षाओं में इन्होंने सर्वोत्तम अंक प्राप्त किए। [[1863]] में ही इन्होंने परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।
सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् [[1891]] में देवघर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् [[1893]] से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि का विकास करते रहे। दूसरी ओर उसकी अभिव्यक्ति के लिए [[बांग्ला]] की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे। सन् [[1894]] में देवघर में हार्ड नाम का एक [[अंग्रेज]] मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउस्कर ने उसके विरुद्ध [[कलकत्ता]] से प्रकाशित होने वाले 'हितवादी' नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउस्कर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउस्कर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता जाकर 'हितवादी अखबार' में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे 'हितवादी' के संपादक बना दिए गए।
== शिक्षाशास्त्री के रूप में==
==समाज सेवा==
रामकृष्ण गोपाल भंडारकर कुछ समय तक [[सिंध]] के [[हैदराबाद]] और रत्नागिरी के राजकीय विद्यालयों में प्रधानाध्यपक के तौर पर कार्य करने के बाद ये एल्फ़िंस्टन कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए और आगे चल कर [[पुणे]] के डेक्कन कॉलेज में संस्कृत के प्रथम भारतीय प्रोफ़ेसर हुए। [[1894]] में अपनी सेवानिवृत्ति से पूर्व भण्डारकर [[मुम्बई विश्वविद्यालय]] के उपकुलपति रहे। [[1885]] में [[जर्मनी]] की गोतिन्गे युनिवर्सिटी ने इन्हें 'डॉक्टरेट' की उपाधि प्रदान की। प्राच्यवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मे शामिल होने के लिए ये [[लंदन]] ([[1874]]) और वियना ([[1886]]) भी गये। शिक्षाशास्त्री के तौर पर भण्डारकर [[1903]] में भारतीय परिषद के अनाधिकारिक सदस्य चुने गये। [[गोपाल कृष्ण गोखले]] भी उस परिषद के सदस्य थे। [[1911]] में रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर को 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया गया।
सखाराम गणेश देउसकर ने सार्वजनिक सेवा [[कोलकाता]] में जाकर की। इन्होंने कोलकाता में [[शिवाजी]] महोत्सव आरंभ करके युवकों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना भरी। ये बंग भंग आंदोलन से पहले ही स्वदेशी के प्रवर्तक थे। देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले सखाराम ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योगदान दिया। सखाराम गणेश देउसकर की अध्यक्षता में कोलकाता में 'बुद्धिवर्धिनी' सभा का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी, साथ ही साथ इन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था और लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा मिलती थी। [[1905]] मे बंग-भंग के विरोद्ध में जो आंदोलन चला, उसमें सखाराम गणेश देउसकर का बड़ा योगदान था।<ref name="a">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=882|url=}}</ref>
==कार्य==
==संपादन==
रामकृष्ण गोपाल भंडारकर की सबसे बड़ी देन लुप्तप्राय [[इतिहास]] के तत्वों को प्रकाश में आना है। उस समय तक [[भारत]] में इस विषय की ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। इन्होंने [[ब्राह्मी |ब्राह्मी]], [[खरोष्ठी]] आदि [[प्राकृत]] भाषाओं का अध्ययन करके शोध के इस क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक का काम किया। सरकार ने इन्हें हस्तलिखित ग्रंथों की खोज और प्रकाशन का कार्य सौंपा था। शोध के बाद जो पांच विशाल खंड प्रकाशित किए वे पुरातत्व के इतिहासकारों के लिए आज भी मार्गदर्शक हैं। [[1883]] के वियना के प्राच्य भाषा सम्मेलन में इनकी विद्वता से विदेशी विद्वान चकित रह गए थे। इनके सम्मान में [[1917]] में [[पूना]] में 'भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की गई।
सखाराम गणेश देउस्कर [[संस्कृत]], [[मराठी]] और [[हिन्दी भाषा]] के अच्छे ज्ञाता थे। [[बंगला भाषा]] के प्रसिद्ध पत्र 'हितवादी' का ये संपादन करते थे। इनकी प्रेरणा से इस पत्र का 'हितवार्ता' के नाम से हिन्दी संस्करण निकला जिसका संपादन पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया। हिन्दी में भी बंगला, मराठी आदि की भाँति विभक्ति शब्द से मिला कर लिखी जाए, इसके लिए देउस्कर ने एक आंदोलन चलाया था। इनका एक बड़ा योगदान था 'देशेर कथा' नामक ग्रंथ की रचना। इसके प्रथम संस्करण का पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' नाम से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक में पराधीन देश की दशा पर प्रकाश डाला गया था। विदेशी सरकार ने इसे प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया था, पर गुप्त रूप से देश भर में इसका बहुत प्रचार हुआ। सखाराम गणेश देउसकर का घर [[अरविन्द घोष]] और वारीन्द्र घोष जैसे क्रांतिकारियों का मिलने का स्थान था जो दिन में पत्रकारिता करते और रात्रि में अपने दल के कार्यों में संलग्न रहते। ये [[लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य]] के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागृति लाने के कारण ये 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी ये निरंतर प्रयत्नशील रहे।
==राजनीतिक जीवन==
 
भंडारकर समाजसुधारक और सार्वजनिक नेता के रूप में भी प्रसिद्ध थे। ये '[[प्रार्थना समाज]]' के सक्रिय सदस्य थे। राजनीति में भी ये [[भारत]] को ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत बनाए रखने के पक्षधर में थे। ऑल इण्डिया सोशल कांफ़्रेंस (अखिल भारतीय सामाजिक सम्मलेन) के सक्रिय सदस्य रहे रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने अपने समय के सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाते हुए अपने शोध आधारित निष्कर्षों के आधार पर विधवा विवाह का समर्थन किया। साथ ही इन्होंने जाति-प्रथा एवं [[बाल विवाह]] की कुप्रथा का खण्डन भी किया। सामाजिक रूढ़िवादी माहौल के बावजूद भण्डारकर ने अपनी पुत्रियों और पौत्रियों को विश्वविद्यालयी शिक्षा दिलायी और अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने की परिपक्वता प्राप्ति तक उनका [[विवाह]] नहीं किया। इन्होंने अपनी विधवा पुत्री के पुनर्विवाह के लिए भी अनुमति दी और इन्होंने अपनी विधवा पुत्री का पुनर्विवाह करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया था।
सखाराम गणेश देउस्कर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। डॉ॰ प्रभुनारायण विद्यार्थी ने एक लेंख में देउस्कर की रचनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। इनके प्रमुख ग्रंथ है-
 
#महामति रानाडे ([[1901]])
#झासीर राजकुमार (1901)
#बाजीराव ([[1902]])  
#आनन्दी बाई ([[1903]])
#शिवाजीर महत्व ([[1903]])
#शिवाजीर शिक्षा ([[1904]])
#शिवाजी ([[1906]])
#देशेर कथा ([[1904]])
#देशेर कथा (परिशिष्ट) ([[1907]])
#कृषकेर सर्वनाश ([[1904]])
#तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित ([[1908]])
 
आदि। इन पुस्तकों के साथ-साथ [[इतिहास]], [[धर्म]], [[संस्कृति]] और [[मराठी साहित्य]] से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
 
==निधन==
==निधन==
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का [[24 अगस्त]] [[1925]] को निधन हो गया।
राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउसकर का अल्प आयु में ही [[23 नवंबर]], [[1912]] को निधन हो गया।<ref name="a"/>




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'''श्वेतकेतु''' एक तत्वज्ञानी आचार्य थे, जिनका उल्लेख [[शतपथ ब्राह्मण]], [[छान्दोग्य उपनिषद|छान्दोग्य]], [[बृहदारण्यक]] आदि [[उपनिषद|उपनिषदों]] में मिलता है। उनकी [[कथा]] उपनिषद में मूलत: आती है।
 
'''आशुतोष दास''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Ashutosh Dash'', जन्म: [[1888]], [[हुगली ज़िला]], [[बंगाल]]; मृत्यु: [[31 जुलाई]], [[1941]]) भारत के स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवी थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=78|url=}}</ref>
==परिचय==
==परिचय==
कौशीतकि उपनिषद के अनुसार ये [[गौतम ऋषि]] के वंशज और [[आरुणि]] के पुत्र थे। छांदोग्य में इसको उद्दालक आरुणि का पुत्र बताया गया है। ये [[पांचाल|पांचाल देश]] के निवासी थे और [[जनक|विदेहराज जनक]] की सभा में भी गए थे। अद्वैत वेदांत के महावाक्य 'तत्वमसि' का, जिसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में है, उपदेश इन्हें अपने पिता से मिला था। इसके एक प्रश्न के उत्तर में पिता ने कहा था- "तुम एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएं एक है एवं इन सारी वस्तुओं का तू ही है (तत्त्वमसि)।" इन्होंने एक बार [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] के साथ दुर्व्यवहार किया, जिससे इनके पिता ने इनका परित्याग कर दिया था।<ref>{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=864|url=}}</ref> इनका [[विवाह]] [[देवल|देवल श्रषि]] की कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था और [[अष्टावक्र]] इनके मामा थे।
डॉ. आशुतोष दास का जन्म 1888 ई. में बंगाल के हुगली ज़िले में सेरामपुर नामक स्थान में हुआ था। विद्यार्थी जीवन में ही ये 'अनुशीलन समिति' में सम्मिलित हो गए थे। इस क्रांतिकारी संगठन से ही बाद में क्रांतिकारी 'जुगांतर पार्टी' अस्तित्व में आई थी। इस बीच इनका संपर्क अनेक क्रांतिकायों से हुआ और इन्होंने अपने ज़िले में इस संगठन को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
==समाज सुधारक==
==समाज सेवा==
श्वेतकेतु का समय [[पाणिनी]] से पहले माना जाता है। ये देश के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज कल्याण की दृष्टि से इन्होंने अनेक नियमों की स्थापना की। एक [[महाभारत]] में आए उल्लेख के अनुसार एक [[ब्राह्मण]] ने इनकी माता का हरण कर लिया था। इसी पर श्वेतेकेतु ने पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत और महिलाओं के लिए प्रतिव्रत का नियम बनाया और परस्त्री गमन पर रोक लगाई। इन्होंने यह नियम प्रचारित किया कि पति को छोड़कर पर पुरुष के पास जाने वाली स्त्री तथा अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से संबंध कर लेने वाला पुरुष दोनों ही भ्रूणहत्या के अपराधी माने जाएँ।
आशुतोष दास [[1914]] में कोलकाता मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर की डिग्री लेने के बाद इंडियन मेडिकल सर्विस में भर्ती हुए। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होते ही [[गांधीजी]] के आह्वान पर इन्होंने यह सरकारी नौकरी छोड़ दी और ग्रामीण जनता के उत्थान के कार्यों में लग गए। इन्होंने हरिपाल नामक ऐसे गांव को सर्वप्रथम अपना केंद्र बनाया जो सदा मलेरिया और काला अजार की महामारी से ग्रस्त रहता था। इनकी सेवा से उस क्षेत्र में यह रोग समाप्त हो गया। अविवाहित डॉ.दास ने अपना तन, मन, धन पूरी तरह से जन सेवा को समर्पित कर दिया था।
 
==आंदोलन में भाग==
श्वेतकेतु की [[कथा]] महाभारत के [[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]] में है और उनके द्वारा प्रचारित यह नियम धर्मशास्त्र में अब तक मान्य है। एक बार अतिथि सत्कार में [[उद्दालक]] ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय [[आरण्यक]] लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अब भी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया।
आशुतोष दास ने [[1930]] से [[1934]] तक के [[सत्याग्रह आंदोलन]] में सक्रिय भाग लिया और इस कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ये अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे और गांधीजी से इनका निकट का संबंध था। इन्हीं के प्रयत्न से 'कांग्रेस चक्षु चिकित्सा समिति' का गठन हुआ था। इस समिति की ओर से डॉ. आशुतोष दास ने डॉक्टरों के दल दूर-दूर के देहातों में भेजकर लोगों के अंखों के रोगों का इलाज कराया था।
==निधन==
डॉ. आशुतोष दास व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय [[1941]] में गांवों में [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के विरुद्ध प्रचार करते समय बीमार पड़ जाने के कारण इनका [[31 जुलाई]], [[1941]] को निधन हो गया।

11:01, 13 दिसम्बर 2016 का अवतरण

कविता बघेल
सखाराम गणेश देउसकर
सखाराम गणेश देउसकर
पूरा नाम सखाराम गणेश देउसकर
जन्म 17 दिसंबर, 1869
जन्म भूमि बिहार प्रदेश
मृत्यु 23 नवंबर, 1912
मुख्य रचनाएँ महामति रानाडे (1901), झासीर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902)
शिक्षा मैट्रिक
प्रसिद्धि क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी सखाराम गणेश देउस्कर ने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योगदान दिया।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

सखाराम गणेश देउसकर (अंग्रेज़ी: Sakharam Ganesh Deuskar, जन्म: 17 दिसंबर, 1869, बिहार प्रदेश; मृत्यु: 23 नवंबर, 1912) क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार थे। ये भारतीय जन जागरण के ऐसे विचारक थे जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज एवं साहित्य था।

परिचय

सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। मराठी मूल के देउस्कर के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में शिवाजी के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर 'करौं' में बस गए थे। पाँच साल की अवस्था में माँ का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण इनकी विधवा बुआ के पास हुआ जो मराठी साहित्य से भली भाँति परिचित थीं। इनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में वेदों के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने बंगाली भाषा भी सीखी। इतिहास इनका प्रिय विषय था। ये बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।

शिक्षा

सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् 1891 में देवघर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1893 से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि का विकास करते रहे। दूसरी ओर उसकी अभिव्यक्ति के लिए बांग्ला की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे। सन् 1894 में देवघर में हार्ड नाम का एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउस्कर ने उसके विरुद्ध कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'हितवादी' नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउस्कर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउस्कर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता जाकर 'हितवादी अखबार' में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे 'हितवादी' के संपादक बना दिए गए।

समाज सेवा

सखाराम गणेश देउसकर ने सार्वजनिक सेवा कोलकाता में जाकर की। इन्होंने कोलकाता में शिवाजी महोत्सव आरंभ करके युवकों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना भरी। ये बंग भंग आंदोलन से पहले ही स्वदेशी के प्रवर्तक थे। देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले सखाराम ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योगदान दिया। सखाराम गणेश देउसकर की अध्यक्षता में कोलकाता में 'बुद्धिवर्धिनी' सभा का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी, साथ ही साथ इन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था और लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा मिलती थी। 1905 मे बंग-भंग के विरोद्ध में जो आंदोलन चला, उसमें सखाराम गणेश देउसकर का बड़ा योगदान था।[1]

संपादन

सखाराम गणेश देउस्कर संस्कृत, मराठी और हिन्दी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। बंगला भाषा के प्रसिद्ध पत्र 'हितवादी' का ये संपादन करते थे। इनकी प्रेरणा से इस पत्र का 'हितवार्ता' के नाम से हिन्दी संस्करण निकला जिसका संपादन पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया। हिन्दी में भी बंगला, मराठी आदि की भाँति विभक्ति शब्द से मिला कर लिखी जाए, इसके लिए देउस्कर ने एक आंदोलन चलाया था। इनका एक बड़ा योगदान था 'देशेर कथा' नामक ग्रंथ की रचना। इसके प्रथम संस्करण का पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' नाम से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक में पराधीन देश की दशा पर प्रकाश डाला गया था। विदेशी सरकार ने इसे प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया था, पर गुप्त रूप से देश भर में इसका बहुत प्रचार हुआ। सखाराम गणेश देउसकर का घर अरविन्द घोष और वारीन्द्र घोष जैसे क्रांतिकारियों का मिलने का स्थान था जो दिन में पत्रकारिता करते और रात्रि में अपने दल के कार्यों में संलग्न रहते। ये लोकमान्य के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागृति लाने के कारण ये 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी ये निरंतर प्रयत्नशील रहे।

सखाराम गणेश देउस्कर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। डॉ॰ प्रभुनारायण विद्यार्थी ने एक लेंख में देउस्कर की रचनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। इनके प्रमुख ग्रंथ है-

  1. महामति रानाडे (1901)
  2. झासीर राजकुमार (1901)
  3. बाजीराव (1902)
  4. आनन्दी बाई (1903)
  5. शिवाजीर महत्व (1903)
  6. शिवाजीर शिक्षा (1904)
  7. शिवाजी (1906)
  8. देशेर कथा (1904)
  9. देशेर कथा (परिशिष्ट) (1907)
  10. कृषकेर सर्वनाश (1904)
  11. तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908)

आदि। इन पुस्तकों के साथ-साथ इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

निधन

राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउसकर का अल्प आयु में ही 23 नवंबर, 1912 को निधन हो गया।[1]




आशुतोष दास (अंग्रेज़ी:Ashutosh Dash, जन्म: 1888, हुगली ज़िला, बंगाल; मृत्यु: 31 जुलाई, 1941) भारत के स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवी थे।[2]

परिचय

डॉ. आशुतोष दास का जन्म 1888 ई. में बंगाल के हुगली ज़िले में सेरामपुर नामक स्थान में हुआ था। विद्यार्थी जीवन में ही ये 'अनुशीलन समिति' में सम्मिलित हो गए थे। इस क्रांतिकारी संगठन से ही बाद में क्रांतिकारी 'जुगांतर पार्टी' अस्तित्व में आई थी। इस बीच इनका संपर्क अनेक क्रांतिकायों से हुआ और इन्होंने अपने ज़िले में इस संगठन को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

समाज सेवा

आशुतोष दास 1914 में कोलकाता मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर की डिग्री लेने के बाद इंडियन मेडिकल सर्विस में भर्ती हुए। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त होते ही गांधीजी के आह्वान पर इन्होंने यह सरकारी नौकरी छोड़ दी और ग्रामीण जनता के उत्थान के कार्यों में लग गए। इन्होंने हरिपाल नामक ऐसे गांव को सर्वप्रथम अपना केंद्र बनाया जो सदा मलेरिया और काला अजार की महामारी से ग्रस्त रहता था। इनकी सेवा से उस क्षेत्र में यह रोग समाप्त हो गया। अविवाहित डॉ.दास ने अपना तन, मन, धन पूरी तरह से जन सेवा को समर्पित कर दिया था।

आंदोलन में भाग

आशुतोष दास ने 1930 से 1934 तक के सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय भाग लिया और इस कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। ये अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे और गांधीजी से इनका निकट का संबंध था। इन्हीं के प्रयत्न से 'कांग्रेस चक्षु चिकित्सा समिति' का गठन हुआ था। इस समिति की ओर से डॉ. आशुतोष दास ने डॉक्टरों के दल दूर-दूर के देहातों में भेजकर लोगों के अंखों के रोगों का इलाज कराया था।

निधन

डॉ. आशुतोष दास व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय 1941 में गांवों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रचार करते समय बीमार पड़ जाने के कारण इनका 31 जुलाई, 1941 को निधन हो गया।

  1. 1.0 1.1 भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 882 |
  2. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 78 |