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'''जग्गी वासुदेव'''([[अंग्रेज़ी]]: ''Jaggi Vasudev'', जन्म: [[3 सितम्बर]], [[1957]], [[कर्नाटक]]) एक योगी, सद्गुरु और दिव्यदर्शी हैं। उनको 'सद्गुरु' भी कहा जाता है। वह ईशा फाउंडेशन नामक मानव सेवी संस्थान के संस्थापक हैं। ईशा फाउंडेशन [[भारत]] सहित [[संयुक्त राज्य अमेरिका]], [[इंग्लैंड]], लेबनान, [[सिंगापुर]] और [[ऑस्ट्रेलिया]] में योग कार्यक्रम सिखाता है साथ ही साथ कई सामाजिक और सामुदायिक विकास योजनाओं पर भी काम करता है। इसे संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक परिषद में विशेष सलाहकार की पदवी प्राप्त है। उन्होंने 8 भाषाओं में 100 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। | |||
==प्रारंभिक जीवन== | |||
सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जन्म 3 सितंबर 1957 को कर्नाटक राज्य के [[मैसूर]] शहर में हुआ। उनके पिता एक डॉक्टर थे। बालक जग्गी को कुदरत से खूब लगाव था। अक्सर ऐसा होता था वे कुछ दिनों के लिये जंगल में गायब हो जाते थे, जहां वे पेड़ की ऊँची डाल पर बैठकर हवाओं का आनंद लेते और अनायास ही गहरे ध्यान में चले जाते थे। जब वे घर लौटते तो उनकी झोली सांपों से भरी होती थी जिनको पकड़ने में उन्हें महारत हासिल है। 11 वर्ष की उम्र में जग्गी वासुदेव ने योग का अभ्यास करना शुरु किया। इनके योग शिक्षक थे श्रीराघवेन्द्र राव, जिन्हें मल्लाडिहल्लि स्वामी के नाम से जाना जाता है। मैसूर विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। | |||
सद्गुरु श्री बह्मा ने फिर से इस धरती पर जन्म लिया। सुशीला और उनके पति वासुदेव के पुत्र, जगदीश का जन्म 3 सितंबर 1957 को मैसूर शहर में हुआ। आगे चलकर जगदीश को घर में ‘जग्गी’ कहकर बुलाया जाने लगा। बड़े होकर जग्गी एक सफल कारोबारी के रूप में उभरे। पच्चीस साल की उम्र में, 23 सितंबर 1982 के दिन जग्गी के साथ कुछ अद्भुत हुआ जिसके बाद उनके जीवन में सबकुछ बदल गया। उस दिन को याद करते हुए जग्गी कहते हैं, ‘‘उस दोपहर को भी मेरे पास बहुत समय नहीं था, एक के बाद एक, दो बीजनेस मीटिंग्स थे। बीच में थोड़ा समय मिला तो मैं मैसूर की चामुण्डी पहाड़ी पर चला गया, जहां मैं अक्सर जाया करता था। दोपहर में तपते सूरज के नीचे एक बड़े से चट्टान पर, जिस पर मैं अक्सर बैठा करता था, जाकर बैठ गया। आंखें खुली थी। बस कुछ मिनटों बाद मुझे यह भी नहीं पता था कि मैं कहा हूं। उस पल तक, अधिकांश लोगों की तरह, मैंने हमेशा यही माना था कि यह देह ‘मैं’ हूं और ‘वह’ कोई अन्य व्यक्ति है। अचानक कुछ ही पलों में मुझे पता ही नहीं चला कि कौन ‘मैं’ हूं और कौन ‘मैं’ नहीं हूं। जो ‘मैं’ था वही हर जगह था। जिस चट्टान पर मैं बैठा था, जिस हवा में मैं सांस ले रहा था, मेरे आस-पास का वातावरण सब कुछ बस ‘मैं’ ही बन गया था। | |||
सद्गुरु श्री बह्मा ने फिर से इस धरती पर जन्म लिया। सुशीला और उनके पति वासुदेव के पुत्र, जगदीश का जन्म 3 सितंबर 1957 को मैसूर शहर में हुआ। आगे चलकर जगदीश को घर में ‘जग्गी’ कहकर बुलाया जाने लगा। बड़े होकर जग्गी एक | |||
मेरे पास बताने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वह बताया ही नहीं जा सकता, मुझे सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे एक सोने की खान मिल गई है, मेरे भीतर एक गुमनाम सोने की खान थी जिसे मैं एक पल के लिए भी खोना नहीं चाहता था। मुझे पता था कि जो हो रहा है वह निरा पागलपन है, लेकिन मैं एक पल के लिए भी इसे खोना नहीं चाहता था, क्योंकि मेरे अंदर कुछ बहुत ही अद्भुत घटित हो रहा था। मेरे भीतर आनंद फूट रहा था, और मुझे पता था कि यह हर इंसान में हो सकता है। हर इंसान में एक ही आंतरिक तत्व होता है, पर यह उनके साथ नहीं हो रहा। इसलिए मैंने सोचा कि सबसे अच्छा काम तो यही होगा कि किसी तरह उनमें यह अनुभव जगाया जाए। मुझे पता था कि मुझे कुछ करना है, लेकिन क्या, यह मैं नहीं जानता था। फि र मैंने तरीकों की तलाश शुरू कर दी। | मेरे पास बताने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वह बताया ही नहीं जा सकता, मुझे सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे एक सोने की खान मिल गई है, मेरे भीतर एक गुमनाम सोने की खान थी जिसे मैं एक पल के लिए भी खोना नहीं चाहता था। मुझे पता था कि जो हो रहा है वह निरा पागलपन है, लेकिन मैं एक पल के लिए भी इसे खोना नहीं चाहता था, क्योंकि मेरे अंदर कुछ बहुत ही अद्भुत घटित हो रहा था। मेरे भीतर आनंद फूट रहा था, और मुझे पता था कि यह हर इंसान में हो सकता है। हर इंसान में एक ही आंतरिक तत्व होता है, पर यह उनके साथ नहीं हो रहा। इसलिए मैंने सोचा कि सबसे अच्छा काम तो यही होगा कि किसी तरह उनमें यह अनुभव जगाया जाए। मुझे पता था कि मुझे कुछ करना है, लेकिन क्या, यह मैं नहीं जानता था। फि र मैंने तरीकों की तलाश शुरू कर दी। | ||
बहुत खुशामद और विवश करने के बाद मुझे सात व्यक्ति मिले। वे कोई सप्तऋ षि नहीं थे। वे उस स्तर की तैयारी या तीव्रता के साथ नहीं आए थे। कुछ जिज्ञासावश आए थे और कुछ शिष्टता वश आ गए थे, क्योंकि वे मुझे ‘ना’ नहीं कहना चाहते थे। | बहुत खुशामद और विवश करने के बाद मुझे सात व्यक्ति मिले। वे कोई सप्तऋ षि नहीं थे। वे उस स्तर की तैयारी या तीव्रता के साथ नहीं आए थे। कुछ जिज्ञासावश आए थे और कुछ शिष्टता वश आ गए थे, क्योंकि वे मुझे ‘ना’ नहीं कहना चाहते थे। जो सबसे पहला कार्यक्रम मैंने किया था वह, दो-दो घंटे का एक चार-दिवसीय कार्यक्रम था। लेकिन दूसरे ही दिन यह पांच, छह घंटों में बदल गया। तीसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। चौथे दिन उन्होंने कहा, ‘यह बहुत अच्छा है, इसे और दो दिन के लिए बढ़ा देते हैं।’ इस तरह, यह छह दिवसीय कार्यक्रम बन गया। | ||
जो सबसे पहला कार्यक्रम मैंने किया था वह, दो-दो घंटे का एक चार-दिवसीय कार्यक्रम था। लेकिन दूसरे ही दिन यह पांच, छह घंटों में बदल गया। तीसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। चौथे दिन उन्होंने कहा, ‘यह बहुत अच्छा है, इसे और दो दिन के लिए बढ़ा देते हैं।’ इस तरह, यह छह दिवसीय कार्यक्रम बन गया। | |||
अपने स्वप्न का वर्णन करते हुए, सद्गुरु अक्सर कहते हैं, ‘‘जिस तरह से भारत में सडक़ों पर चलते हुए, आप कहीं न कहीं सब्ज़ी बेचने वाले से टकरा ही जाते हो, उसी तरह, यह मेरा स्वप्न है कि एक दिन जब मैं सडक़ों पर चलूं, तो मैं बुद्ध पुरुषों से टकराऊं।’’ | तब से, मैंने फिर पीछे मुडक़र नहीं देखा, लाखों लोगों ने इन कार्यक्रमों में भाग लिया है तथा इसके कारण लाखों जीवन परिवर्तित हुए हैं। आज मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि घरों और बाजारों में, समान रूप से, हम ने ऐसे लोगों का निर्माण किया है जो जीवन की असीमता और समरूपता में स्थापित हैं, सीमित की संकीर्ण मानसिकत में नहीं। मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि सिर्फ शहरी और संपन्न लोग ही नहीं, बल्कि गरीब लोग भी, जो रोज़मर्रा की जिंदगी के संघर्ष से जूझ रहे हैं, अपने कल्याण के अंदरूनी मार्ग पर चलने में समर्थ हैं।’’ अपने स्वप्न का वर्णन करते हुए, सद्गुरु अक्सर कहते हैं, ‘‘जिस तरह से भारत में सडक़ों पर चलते हुए, आप कहीं न कहीं सब्ज़ी बेचने वाले से टकरा ही जाते हो, उसी तरह, यह मेरा स्वप्न है कि एक दिन जब मैं सडक़ों पर चलूं, तो मैं बुद्ध पुरुषों से टकराऊं।’’ |
12:59, 11 अगस्त 2017 का अवतरण
जग्गी वासुदेव(अंग्रेज़ी: Jaggi Vasudev, जन्म: 3 सितम्बर, 1957, कर्नाटक) एक योगी, सद्गुरु और दिव्यदर्शी हैं। उनको 'सद्गुरु' भी कहा जाता है। वह ईशा फाउंडेशन नामक मानव सेवी संस्थान के संस्थापक हैं। ईशा फाउंडेशन भारत सहित संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, लेबनान, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में योग कार्यक्रम सिखाता है साथ ही साथ कई सामाजिक और सामुदायिक विकास योजनाओं पर भी काम करता है। इसे संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक परिषद में विशेष सलाहकार की पदवी प्राप्त है। उन्होंने 8 भाषाओं में 100 से अधिक पुस्तकों की रचना की है।
प्रारंभिक जीवन
सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जन्म 3 सितंबर 1957 को कर्नाटक राज्य के मैसूर शहर में हुआ। उनके पिता एक डॉक्टर थे। बालक जग्गी को कुदरत से खूब लगाव था। अक्सर ऐसा होता था वे कुछ दिनों के लिये जंगल में गायब हो जाते थे, जहां वे पेड़ की ऊँची डाल पर बैठकर हवाओं का आनंद लेते और अनायास ही गहरे ध्यान में चले जाते थे। जब वे घर लौटते तो उनकी झोली सांपों से भरी होती थी जिनको पकड़ने में उन्हें महारत हासिल है। 11 वर्ष की उम्र में जग्गी वासुदेव ने योग का अभ्यास करना शुरु किया। इनके योग शिक्षक थे श्रीराघवेन्द्र राव, जिन्हें मल्लाडिहल्लि स्वामी के नाम से जाना जाता है। मैसूर विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
सद्गुरु श्री बह्मा ने फिर से इस धरती पर जन्म लिया। सुशीला और उनके पति वासुदेव के पुत्र, जगदीश का जन्म 3 सितंबर 1957 को मैसूर शहर में हुआ। आगे चलकर जगदीश को घर में ‘जग्गी’ कहकर बुलाया जाने लगा। बड़े होकर जग्गी एक सफल कारोबारी के रूप में उभरे। पच्चीस साल की उम्र में, 23 सितंबर 1982 के दिन जग्गी के साथ कुछ अद्भुत हुआ जिसके बाद उनके जीवन में सबकुछ बदल गया। उस दिन को याद करते हुए जग्गी कहते हैं, ‘‘उस दोपहर को भी मेरे पास बहुत समय नहीं था, एक के बाद एक, दो बीजनेस मीटिंग्स थे। बीच में थोड़ा समय मिला तो मैं मैसूर की चामुण्डी पहाड़ी पर चला गया, जहां मैं अक्सर जाया करता था। दोपहर में तपते सूरज के नीचे एक बड़े से चट्टान पर, जिस पर मैं अक्सर बैठा करता था, जाकर बैठ गया। आंखें खुली थी। बस कुछ मिनटों बाद मुझे यह भी नहीं पता था कि मैं कहा हूं। उस पल तक, अधिकांश लोगों की तरह, मैंने हमेशा यही माना था कि यह देह ‘मैं’ हूं और ‘वह’ कोई अन्य व्यक्ति है। अचानक कुछ ही पलों में मुझे पता ही नहीं चला कि कौन ‘मैं’ हूं और कौन ‘मैं’ नहीं हूं। जो ‘मैं’ था वही हर जगह था। जिस चट्टान पर मैं बैठा था, जिस हवा में मैं सांस ले रहा था, मेरे आस-पास का वातावरण सब कुछ बस ‘मैं’ ही बन गया था।
मेरे पास बताने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वह बताया ही नहीं जा सकता, मुझे सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे एक सोने की खान मिल गई है, मेरे भीतर एक गुमनाम सोने की खान थी जिसे मैं एक पल के लिए भी खोना नहीं चाहता था। मुझे पता था कि जो हो रहा है वह निरा पागलपन है, लेकिन मैं एक पल के लिए भी इसे खोना नहीं चाहता था, क्योंकि मेरे अंदर कुछ बहुत ही अद्भुत घटित हो रहा था। मेरे भीतर आनंद फूट रहा था, और मुझे पता था कि यह हर इंसान में हो सकता है। हर इंसान में एक ही आंतरिक तत्व होता है, पर यह उनके साथ नहीं हो रहा। इसलिए मैंने सोचा कि सबसे अच्छा काम तो यही होगा कि किसी तरह उनमें यह अनुभव जगाया जाए। मुझे पता था कि मुझे कुछ करना है, लेकिन क्या, यह मैं नहीं जानता था। फि र मैंने तरीकों की तलाश शुरू कर दी।
बहुत खुशामद और विवश करने के बाद मुझे सात व्यक्ति मिले। वे कोई सप्तऋ षि नहीं थे। वे उस स्तर की तैयारी या तीव्रता के साथ नहीं आए थे। कुछ जिज्ञासावश आए थे और कुछ शिष्टता वश आ गए थे, क्योंकि वे मुझे ‘ना’ नहीं कहना चाहते थे। जो सबसे पहला कार्यक्रम मैंने किया था वह, दो-दो घंटे का एक चार-दिवसीय कार्यक्रम था। लेकिन दूसरे ही दिन यह पांच, छह घंटों में बदल गया। तीसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। चौथे दिन उन्होंने कहा, ‘यह बहुत अच्छा है, इसे और दो दिन के लिए बढ़ा देते हैं।’ इस तरह, यह छह दिवसीय कार्यक्रम बन गया।
तब से, मैंने फिर पीछे मुडक़र नहीं देखा, लाखों लोगों ने इन कार्यक्रमों में भाग लिया है तथा इसके कारण लाखों जीवन परिवर्तित हुए हैं। आज मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि घरों और बाजारों में, समान रूप से, हम ने ऐसे लोगों का निर्माण किया है जो जीवन की असीमता और समरूपता में स्थापित हैं, सीमित की संकीर्ण मानसिकत में नहीं। मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि सिर्फ शहरी और संपन्न लोग ही नहीं, बल्कि गरीब लोग भी, जो रोज़मर्रा की जिंदगी के संघर्ष से जूझ रहे हैं, अपने कल्याण के अंदरूनी मार्ग पर चलने में समर्थ हैं।’’ अपने स्वप्न का वर्णन करते हुए, सद्गुरु अक्सर कहते हैं, ‘‘जिस तरह से भारत में सडक़ों पर चलते हुए, आप कहीं न कहीं सब्ज़ी बेचने वाले से टकरा ही जाते हो, उसी तरह, यह मेरा स्वप्न है कि एक दिन जब मैं सडक़ों पर चलूं, तो मैं बुद्ध पुरुषों से टकराऊं।’’