"नील": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''नील''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Indigo'') एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। [[भारत]] में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया।
'''नील''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Indigo'') एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। [[भारत]] में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया।
==नील की खेती और चम्पारण सत्याग्रह==
चंपारण [[बिहार]] के उत्तर-पश्चिम में स्थित हैं। [[धान]] की भारी उपज होने के वजह से [[अंग्रेज़]] शासन के दौरान कई बार इसे "चावल का कटोरा" भी कहा जाता था। चंपारण के कई इलाकों में जल जमाव की समस्या रहती थी। नील की खेती के लिए इस प्रकार का खुश्क वातावरण वरदान था और इस वजह से यहाँ के किसानों से जबरदस्ती नील की खेती भी करवाई जाती थी। चंपारण में नील की खेती के लिए दो अलग अलग व्यवस्थायें प्रचलित थीं। जेरैत और असामीदार। जेरैत विभागीय खेती होती थी, निजी देख-रेख में। असामीदार किसान किरायेदार की तरह होता था, जहाँ उसे नील की खेती ही करनी होती थी। भू-भाग का एक चौथाई हिस्सा जेरैत के लिए आवंटित था तथा तीन चौथाई असामीदारी के लिए। इसी कारण इस व्ययवस्था को 'तिनहथिया' भी कहते थे। असामीदार किसान जेरैत खेतों में मज़दूर का काम भी करते थे या यूं कहिए बेगारी करते थे।<ref name="aa">{{cite web |url=http://naisadak.org/champaran-satyagrah/ |title=नील की खेती और चम्पारण सत्याग्रह |accessmonthday=12 अक्टूबर |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=naisadak.org |language=हिंदी }}</ref>


19वीं सदी के उत्तरार्ध में 47000 एकड़ से ज्यादा में नील की खेती होती थी। बेहतरीन जर्मन नील से प्रतिस्पर्धा की वजह से [[1914]] तक नील-रोपण तकरीबन 8100 एकड़ तक ही सीमित रह गयी थी। प्रथम विश्व युद्ध के वजह अंग्रेज़ हुकूमत नें [[जर्मनी]] से नील का आयात बंद कर दिया था। इस वजह से नील की माँग फिर बढ़ने लगी और चम्पारण नील की खेती के लिहाज से फिर से प्रासांगिक होने लगा। सरकार और जमीनदारों ने नील उत्पाद क्षेत्रफल विस्तृत करना आरंभ कर दिया। इसके अलावा शाषन व्यवस्था और ज़मींदारों ने एक 'तीन कठिआ' सिस्टम लगा रखा था, जिसमें एक बीघे में तीन कट्ठे नील की खेती आरक्षित होते थे। एक चम्पारणी बीघा<ref>जो तकरीबन 0.4 एकड़ के सामन होता है</ref> के अंदर 20 कट्ठे होते थे। फलस्वरूप इसका नाम 'तीन कठिआ' पड़ा। [[1967]] के पहले इन ज़मीनों पर पाँच कट्ठे आरक्षित होते थे नील खेती के लिए। फैक्ट्रियों में फसल देने के दौरान भी खेतिहरों पर अनेक तरह के कर लगते थे, जिसमें बपाही-पुताही, मरवच और सगौरा प्रमुख थे। इन सब करों के बावजूद फैक्ट्रियाँ फसलों का गलत मूल्यांकन करती थीं और किसानों को फसल अदायगी कभी समय पर नहीं होता था।इन परिस्तिथियों में भी नील कंपनियों के बहीखातों को सुधारने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत नें नए करों को लगाने और पुराने करों को बढ़ाने की इज़ाज़त दे दी। उस वक़्त ये कम्पनियाँ किसानों से जबरन वसूली के लिए 'खलीफ़ा'<ref>आज भी चम्पारण के कुछ इलाकों मे पहलवान को खलीफ़ा ही बोलते है</ref> रखा करती थीं। सन [[1914]] के दौरान खलीफ़ाओं के साथ-साथ [[अकाल]] भी किसानों के दरवाजे पर दस्तक देने लगे थे।
[[1914]] में पिपरा में नील की खेती करने वालों किसानों ने अनुबंधित मज़दूरों के साथ मिलकर इस नाइंसाफी का विरोध किया। यह अहिंसा पर आधारित एक असहयोग था। खलीफ़ाओं के छिटपुट दमन पर भी उनका असहयोग हिंसा से दूर रहा। पेट की आग ने आनन-फानन में इस असहाय असहयोग आंदोलन को निबटा जरूर दिया, पर किसानों-मज़दूरों को एक रास्ता दिख चुका था। सन [[1916]] में पुनः तुरकौलिया में एक अहिंसक असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। यह आंदोलन एक बड़े पैमाने पर था और कुछ लंबा भी खिंचा। स्व-निर्वाह के कारण इसका टूटना भी लाजिमी था और वही हुआ। इतना अवश्य था कि दोनों आंदोलन के दौरान किसानों, मज़दूरों पर दमन होने के बावजूद हिंसा नहीं हुई। शायद [[इतिहास]] ने कभी इन करुणामय मगर अद्वितीय परस्थितियों को महातम की निगाह से नहीं देखा, लेकिन यह एक बड़ी घटना थी जो [[महात्मा गाँधी]] के अहिंसा के विचारों से पंक्तिबद्ध थी और शायद इसी ने महात्मा गाँधी को चंपारण आने के लिए प्रेरित भी किया।<ref name="aa"/>
[[दिसंबर]], 1916 में [[लखनऊ]] में आयोजित 31वें [[कांग्रेस अधिवेशन]] में राजकुमार शुक्ल कई कांग्रेसी नेताओं से मिले। उन्होंने सभी बड़े नेताओं को चम्पारण के नील किसानों-मज़दूरों की बदहाली और नील कंपनियों की दलाली के बारे में अवगत कराया ताकि यह मुद्दा कॉन्स्टीटूएंट असेंबली में उठे। उन्होंने गाँधीजी को भी इस मसले पर विस्तार से बताया। पूरी तन्मयता से सुनने के बाद भी महात्मा गाँधी ने विशेष रुचि नहीं दिखायी। [[बिहार]] में कांग्रेस की तुलनात्मक पकड़ और फिर चंपारण जैसे पिछड़े इलाके में सविनय आंदोलन की पृष्ठभूमि महात्मा गाँधी के विशिष्ट मानसिक पटल पर शायद जगह नहीं बना पा रही थी। राजकुमार शुक्ल स्वयं एक जमींदार थे और उनके मुख से किसानों, मज़दूरों की बदहाली के विवरण ने गाँधीजी को प्रभावित किया था। अंततः जब शुक्ल जी ने पिपरा और तुरकौलिया में किसानों, मज़दूरों द्वारा किये गए अहिंसक असहयोग के बारे में बताया तो महात्मा गाँधी तुरंत राजी हो गए चम्पारण चलने के लिए। शायद अहिंसक असहयोग के उदाहरण के प्रस्तुति का वह अद्भुत संयोग था कि जिसकी परिकल्पना महात्मा गाँधी अपने ज़हन में कर रहे थे।
सन [[1917]] के आरम्भ में गाँधीजी कलकत्ता ([[कोलकाता]]) गए, पर संवाद के आभाव में उनका राजकुमार शुक्ल जी से संपर्क नहीं हो पाया। राजकुमार शुक्ल ने प्रयास ज़ारी रखा। [[अप्रैल]] में महात्मा गाँधी फिर कलकत्ता आए और [[10 अप्रैल]] को चम्पारण के ज़िला मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे। उनके आवभगत के लिए [[जे. बी. कृपलानी|आचार्य कृपलानी]]<ref>उस वक़्त मुज़्ज़फ़्फ़रपुर में आचार्य के पद पर स्थापित थे</ref>, [[महादेव देसाई]], दीन बंधु सी. एफ. एंड्रयू, एच. एस. पोलॉक, [[डॉ. राजेन्द्र प्रसाद]], बृजकिशोर प्रसाद, [[अनुग्रह नारायण सिंह]], रामश्री देव त्रिवेदी, धरणीधर प्रसाद तथा [[बिहार]] के अन्य गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद थे। [[महात्मा गाँधी]] के चंपारण आने के बाद एक नए [[इतिहास]] की कायावत का लेखा तैयार होने लगी।<ref name="aa"/>




पंक्ति 7: पंक्ति 16:
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://shabdbeej.com/what-was-indigo-revolution-in-hindi-neel-kranti-kya-thi/ नील क्रांति के बारे में जानिए]
*[http://www.amarujala.com/uttar-pradesh/kushinagar/Kushinagar-70190-70 यातना देकर नील की खेती कराते थे अंग्रेज]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==


[[Category:विविध]]
[[Category:विविध]]
__INDEX__
__INDEX__

10:37, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण

नील (अंग्रेज़ी: Indigo) एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। भारत में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया।

नील की खेती और चम्पारण सत्याग्रह

चंपारण बिहार के उत्तर-पश्चिम में स्थित हैं। धान की भारी उपज होने के वजह से अंग्रेज़ शासन के दौरान कई बार इसे "चावल का कटोरा" भी कहा जाता था। चंपारण के कई इलाकों में जल जमाव की समस्या रहती थी। नील की खेती के लिए इस प्रकार का खुश्क वातावरण वरदान था और इस वजह से यहाँ के किसानों से जबरदस्ती नील की खेती भी करवाई जाती थी। चंपारण में नील की खेती के लिए दो अलग अलग व्यवस्थायें प्रचलित थीं। जेरैत और असामीदार। जेरैत विभागीय खेती होती थी, निजी देख-रेख में। असामीदार किसान किरायेदार की तरह होता था, जहाँ उसे नील की खेती ही करनी होती थी। भू-भाग का एक चौथाई हिस्सा जेरैत के लिए आवंटित था तथा तीन चौथाई असामीदारी के लिए। इसी कारण इस व्ययवस्था को 'तिनहथिया' भी कहते थे। असामीदार किसान जेरैत खेतों में मज़दूर का काम भी करते थे या यूं कहिए बेगारी करते थे।[1]

19वीं सदी के उत्तरार्ध में 47000 एकड़ से ज्यादा में नील की खेती होती थी। बेहतरीन जर्मन नील से प्रतिस्पर्धा की वजह से 1914 तक नील-रोपण तकरीबन 8100 एकड़ तक ही सीमित रह गयी थी। प्रथम विश्व युद्ध के वजह अंग्रेज़ हुकूमत नें जर्मनी से नील का आयात बंद कर दिया था। इस वजह से नील की माँग फिर बढ़ने लगी और चम्पारण नील की खेती के लिहाज से फिर से प्रासांगिक होने लगा। सरकार और जमीनदारों ने नील उत्पाद क्षेत्रफल विस्तृत करना आरंभ कर दिया। इसके अलावा शाषन व्यवस्था और ज़मींदारों ने एक 'तीन कठिआ' सिस्टम लगा रखा था, जिसमें एक बीघे में तीन कट्ठे नील की खेती आरक्षित होते थे। एक चम्पारणी बीघा[2] के अंदर 20 कट्ठे होते थे। फलस्वरूप इसका नाम 'तीन कठिआ' पड़ा। 1967 के पहले इन ज़मीनों पर पाँच कट्ठे आरक्षित होते थे नील खेती के लिए। फैक्ट्रियों में फसल देने के दौरान भी खेतिहरों पर अनेक तरह के कर लगते थे, जिसमें बपाही-पुताही, मरवच और सगौरा प्रमुख थे। इन सब करों के बावजूद फैक्ट्रियाँ फसलों का गलत मूल्यांकन करती थीं और किसानों को फसल अदायगी कभी समय पर नहीं होता था।इन परिस्तिथियों में भी नील कंपनियों के बहीखातों को सुधारने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत नें नए करों को लगाने और पुराने करों को बढ़ाने की इज़ाज़त दे दी। उस वक़्त ये कम्पनियाँ किसानों से जबरन वसूली के लिए 'खलीफ़ा'[3] रखा करती थीं। सन 1914 के दौरान खलीफ़ाओं के साथ-साथ अकाल भी किसानों के दरवाजे पर दस्तक देने लगे थे।

1914 में पिपरा में नील की खेती करने वालों किसानों ने अनुबंधित मज़दूरों के साथ मिलकर इस नाइंसाफी का विरोध किया। यह अहिंसा पर आधारित एक असहयोग था। खलीफ़ाओं के छिटपुट दमन पर भी उनका असहयोग हिंसा से दूर रहा। पेट की आग ने आनन-फानन में इस असहाय असहयोग आंदोलन को निबटा जरूर दिया, पर किसानों-मज़दूरों को एक रास्ता दिख चुका था। सन 1916 में पुनः तुरकौलिया में एक अहिंसक असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। यह आंदोलन एक बड़े पैमाने पर था और कुछ लंबा भी खिंचा। स्व-निर्वाह के कारण इसका टूटना भी लाजिमी था और वही हुआ। इतना अवश्य था कि दोनों आंदोलन के दौरान किसानों, मज़दूरों पर दमन होने के बावजूद हिंसा नहीं हुई। शायद इतिहास ने कभी इन करुणामय मगर अद्वितीय परस्थितियों को महातम की निगाह से नहीं देखा, लेकिन यह एक बड़ी घटना थी जो महात्मा गाँधी के अहिंसा के विचारों से पंक्तिबद्ध थी और शायद इसी ने महात्मा गाँधी को चंपारण आने के लिए प्रेरित भी किया।[1]

दिसंबर, 1916 में लखनऊ में आयोजित 31वें कांग्रेस अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल कई कांग्रेसी नेताओं से मिले। उन्होंने सभी बड़े नेताओं को चम्पारण के नील किसानों-मज़दूरों की बदहाली और नील कंपनियों की दलाली के बारे में अवगत कराया ताकि यह मुद्दा कॉन्स्टीटूएंट असेंबली में उठे। उन्होंने गाँधीजी को भी इस मसले पर विस्तार से बताया। पूरी तन्मयता से सुनने के बाद भी महात्मा गाँधी ने विशेष रुचि नहीं दिखायी। बिहार में कांग्रेस की तुलनात्मक पकड़ और फिर चंपारण जैसे पिछड़े इलाके में सविनय आंदोलन की पृष्ठभूमि महात्मा गाँधी के विशिष्ट मानसिक पटल पर शायद जगह नहीं बना पा रही थी। राजकुमार शुक्ल स्वयं एक जमींदार थे और उनके मुख से किसानों, मज़दूरों की बदहाली के विवरण ने गाँधीजी को प्रभावित किया था। अंततः जब शुक्ल जी ने पिपरा और तुरकौलिया में किसानों, मज़दूरों द्वारा किये गए अहिंसक असहयोग के बारे में बताया तो महात्मा गाँधी तुरंत राजी हो गए चम्पारण चलने के लिए। शायद अहिंसक असहयोग के उदाहरण के प्रस्तुति का वह अद्भुत संयोग था कि जिसकी परिकल्पना महात्मा गाँधी अपने ज़हन में कर रहे थे।

सन 1917 के आरम्भ में गाँधीजी कलकत्ता (कोलकाता) गए, पर संवाद के आभाव में उनका राजकुमार शुक्ल जी से संपर्क नहीं हो पाया। राजकुमार शुक्ल ने प्रयास ज़ारी रखा। अप्रैल में महात्मा गाँधी फिर कलकत्ता आए और 10 अप्रैल को चम्पारण के ज़िला मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे। उनके आवभगत के लिए आचार्य कृपलानी[4], महादेव देसाई, दीन बंधु सी. एफ. एंड्रयू, एच. एस. पोलॉक, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, बृजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, रामश्री देव त्रिवेदी, धरणीधर प्रसाद तथा बिहार के अन्य गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद थे। महात्मा गाँधी के चंपारण आने के बाद एक नए इतिहास की कायावत का लेखा तैयार होने लगी।[1]



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 नील की खेती और चम्पारण सत्याग्रह (हिंदी) naisadak.org। अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2017।
  2. जो तकरीबन 0.4 एकड़ के सामन होता है
  3. आज भी चम्पारण के कुछ इलाकों मे पहलवान को खलीफ़ा ही बोलते है
  4. उस वक़्त मुज़्ज़फ़्फ़रपुर में आचार्य के पद पर स्थापित थे

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख