"त्रावणकोर": अवतरणों में अंतर

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'''त्रावणकोर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Travancore'') सन [[1949]] से पहले एक भारतीय रियासत थी। इस पर त्रावणकोर राजपरिवार का शासन था, जिनकी गद्दी पहले पद्मनाभपुरम और फिर तिरुवनन्तपुरम में थी। अपने चरम पर त्रावणकोर राज्य का विस्तार [[भारत]] के आधुनिक [[केरल]] के मध्य और दक्षिणी भाग पर और [[तमिलनाडु]] के [[कन्याकुमारी]] पर था। राजकीय ध्वज पर लाल पृष्टभूमि के ऊपर [[चांदी]] का [[शंख]] बना हुआ था। 19वीं शताब्दी में यह ब्रिटिश-अधीन भारत की एक रियासत बन गई और इसके राजा को स्थानीय रूप से 21 तोपों की और राज्य से बाहर 19 तोपों की सलामी की प्रतिष्ठा दी गई। महाराज श्री चितिरा तिरुनल बलराम वर्मा के [[1924]]-[[1949]] के राजकाल में राज्य सरकार ने सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिये कई प्रयत्न किये, जिनसे यह ब्रिटिश-अधीन भारत का दूसरा सबसे समृद्ध रियासत बन गया और शिक्षा, राजव्यवस्था, जनहित कार्यों और सामाजिक सुधार के लिये जाना जाने लगा।
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==इतिहास==
==इतिहास==
[[भारत]] में राजा के कर्तव्यों को राजधर्म की संज्ञा दी गई है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि शासक का दायित्व है कि वह [[धर्म]] की रक्षा करे अर्थात् अपने राज्य में शांति, समृद्धि, न्याय और व्यवस्था की स्थापना को सुनिश्चित करे। इन कर्तव्यों में कदाचित् सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य देवताओं और उनके मंदिरों की रक्षा करना था। श्रीपद्मनाभ के सेवक के रूप में त्रावणकोर के महाराजा अनेक अनुष्ठानों का पालन करते थे, जिनमें से अधिकांश की प्रथा अठारहवीं शताब्दी के मध्य में मार्तंड वर्मा द्वारा शुरू की गई थी। त्रावणकोर एक ऐसा राज्य था, जिसमें गैर-हिन्दुओं की, विशेषकर सीरियाई ईसाईयों की संख्या बहुत थी। [[1875]] में, राज्य की कुल आबादी में ईसाइयों की संख्या लगभग 20 प्रतिशत और मुसलमानों की संख्या 6 प्रतिशत थी। लगता है कि आधुनिक से पूर्व काल में [[हिन्दू]] बहुल त्रावणकोर में विभिन्न पंथावलम्बियों का सह-अस्तित्व था और सभी उस राज्य के एकीकृत अंग थे। इस सह-अस्तित्व का मुख्य कारण था, पांथिक सहिष्णुता की अर्ध-सरकारी नीति।'{{cite web |url=http://panchjanya.com/arch/2001/6/17/File30.htm |title=पंथनिरपेक्षता ही रहा आधार |accessmonthday=14 अक्टूबर |accessyear=2017 |last=गोरडिया |first=प्रफुल्ल |authorlink= |format= |publisher=panchjanya.com |language=हिन्दी }}
[[भारत]] में राजा के कर्तव्यों को राजधर्म की संज्ञा दी गई है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि शासक का दायित्व है कि वह [[धर्म]] की रक्षा करे अर्थात् अपने राज्य में शांति, समृद्धि, न्याय और व्यवस्था की स्थापना को सुनिश्चित करे। इन कर्तव्यों में कदाचित् सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य देवताओं और उनके मंदिरों की रक्षा करना था। श्रीपद्मनाभ के सेवक के रूप में त्रावणकोर के महाराजा अनेक अनुष्ठानों का पालन करते थे, जिनमें से अधिकांश की प्रथा अठारहवीं शताब्दी के मध्य में मार्तंड वर्मा द्वारा शुरू की गई थी। त्रावणकोर एक ऐसा राज्य था, जिसमें गैर-हिन्दुओं की, विशेषकर सीरियाई ईसाईयों की संख्या बहुत थी। [[1875]] में, राज्य की कुल आबादी में ईसाइयों की संख्या लगभग 20 प्रतिशत और मुसलमानों की संख्या 6 प्रतिशत थी। लगता है कि आधुनिक से पूर्व काल में [[हिन्दू]] बहुल त्रावणकोर में विभिन्न पंथावलम्बियों का सह-अस्तित्व था और सभी उस राज्य के एकीकृत अंग थे। इस सह-अस्तित्व का मुख्य कारण था, पांथिक सहिष्णुता की अर्ध-सरकारी नीति।'<ref>{{cite web |url=http://panchjanya.com/arch/2001/6/17/File30.htm |title=पंथनिरपेक्षता ही रहा आधार |accessmonthday=14 अक्टूबर |accessyear=2017 |last=गोरडिया |first=प्रफुल्ल |authorlink= |format= |publisher=panchjanya.com |language=हिन्दी }}</ref>
 
लेफ्टिनेंट वार्ड और कानर ने 1816 से 1820 ई. के बीच त्रावणकोर और [[कोच्चि]] का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने इस विषय में कहा है कि इन दोनों राज्यों में [[ईसाई धर्म|ईसाई मत]] को मुख्य अधिकारियों द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त थी, और उनकी न्याय व्यवस्था में अथवा उपेक्षा के कारण ईसाइयों को यातना पहुंचाई गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। [[चित्र:Map-of-Travancore.jpg|thumb|left|200px|त्रावणकोर रियासत का नक्शा]][[1904]] में श्रीमुलम विधानमंडल की पहली बैठक में [[दीवान]] वी.पी. माधव राव ने कहा था कि सभी पंथों के साथ बराबरी का व्यवहार करना त्रावणकोर राज्य की एक विशेषता है। मिशनरियों ने भी न्यूनाधिक रूप में इस बात को मान्यता दी। जे. नावल्स नामक मिशनरी ने [[1898]] में यह कहा था कि त्रावणकोर राज्य में गैर-हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता उस राज्य की एक अलग पहचान है। वस्तुत: हिन्दू राजाओं ने सीरियाई ईसाईयों को विशेष अधिकार और सम्मान दिया, जिससे उनकी पहचान उच्च जाति के रूप में होती थी। सीरियाई ईसाइयों के चर्च में जब पुरोहिताई की सत्ता से सम्बंधित कोई आपसी विवाद होता तो वे भी राजा का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। साथ ही, लेस्ली ब्राउन के कथनानुसार, सीरियाई ईसाई [[ओणम]] और विशुत आदि त्योहारों में भाग लेते थे, मंदिरों के उत्सवों में शामिल होते थे और हिन्दुओं की भांति मंदिरों में भेंट चढ़ाते थे।


लेफ्टिनेंट वार्ड और कानर ने 1816 से 1820 ई. के बीच त्रावणकोर और [[कोच्चि]] का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने इस विषय में कहा है कि इन दोनों राज्यों में [[ईसाई धर्म|ईसाई मत]] को मुख्य अधिकारियों द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त थी, और उनकी न्याय व्यवस्था में अथवा उपेक्षा के कारण ईसाइयों को यातना पहुंचाई गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। [[1904]] में श्रीमुलम विधानमंडल की पहली बैठक में [[दीवान]] वी.पी. माधव राव ने कहा था कि सभी पंथों के साथ बराबरी का व्यवहार करना त्रावणकोर राज्य की एक विशेषता है। मिशनरियों ने भी न्यूनाधिक रूप में इस बात को मान्यता दी। जे. नावल्स नामक मिशनरी ने [[1898]] में यह कहा था कि त्रावणकोर राज्य में गैर-हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता उस राज्य की एक अलग पहचान है। वस्तुत: हिन्दू राजाओं ने सीरियाई ईसाईयों को विशेष अधिकार और सम्मान दिया, जिससे उनकी पहचान उच्च जाति के रूप में होती थी। सीरियाई ईसाइयों के चर्च में जब पुरोहिताई की सत्ता से सम्बंधित कोई आपसी विवाद होता तो वे भी राजा का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। साथ ही, लेस्ली ब्राउन के कथनानुसार, सीरियाई ईसाई [[ओणम]] और विशुत आदि त्योहारों में भाग लेते थे, मंदिरों के उत्सवों में शामिल होते थे और हिन्दुओं की भांति मंदिरों में भेंट चढ़ाते थे।


स्पष्टत: त्रावणकोर का हिन्दू राज्य अन्य मतावलंबियों के साथ कोई भेदभाव नहीं करता था। वर्तमान [[केरल]] में, जिसका बड़ा भाग पहले त्रावणकोर राज्य में था, आज भी सर्वाधिक पांथिक सहिष्णुता दिखाई देती है। यह उल्लेखनीय है कि आज के केरल राज्य में शामिल होने वाले अन्य प्रमुख राज्य [[कोच्चि]] और मालाबार थे। दोनों राज्यों पर [[हिन्दू]] राजा राज करते थे। कोच्चि का राजा 'महाराजा' और मालाबार का राजा 'जमोरिन' कहलाता था। दोनों में त्रावणकोर के समान ही पांथिक सहिष्णुता थी। वस्तुत: तीनों राज्यों में इतनी पांथिक सहिष्णुता थी कि वहां मत-परिवर्तन की पूरी छूट थी। इसका निहितार्थ यह है कि हिन्दू चिंतन में राज्य का कोई दृढ़ प्रारूप नहीं है।
स्पष्टत: त्रावणकोर का हिन्दू राज्य अन्य मतावलंबियों के साथ कोई भेदभाव नहीं करता था। वर्तमान [[केरल]] में, जिसका बड़ा भाग पहले त्रावणकोर राज्य में था, आज भी सर्वाधिक पांथिक सहिष्णुता दिखाई देती है। यह उल्लेखनीय है कि आज के केरल राज्य में शामिल होने वाले अन्य प्रमुख राज्य [[कोच्चि]] और मालाबार थे। दोनों राज्यों पर [[हिन्दू]] राजा राज करते थे। कोच्चि का राजा 'महाराजा' और मालाबार का राजा 'जमोरिन' कहलाता था। दोनों में त्रावणकोर के समान ही पांथिक सहिष्णुता थी। वस्तुत: तीनों राज्यों में इतनी पांथिक सहिष्णुता थी कि वहां मत-परिवर्तन की पूरी छूट थी। इसका निहितार्थ यह है कि हिन्दू चिंतन में राज्य का कोई दृढ़ प्रारूप नहीं है।

10:43, 14 अक्टूबर 2017 का अवतरण

त्रावणकोर
त्रावणकोर के महाराजा का निवास स्थान
त्रावणकोर के महाराजा का निवास स्थान
विवरण 'त्रावणकोर' भारत की आज़ादी से पूर्व तक एक रियासत थी। इसका विस्तार भारत के आधुनिक केरल के मध्य और दक्षिणी भाग पर और तमिलनाडु के कन्याकुमारी पर था।
देश भारत
राजधानी पद्मनाभपुरम (1729-1795), तिरुवनंतपुरम (1795–1949)
भाषाएँ मलयालम, तेलुगू
धर्म हिन्दू
संबंधित लेख केरल का इतिहास, केरल के पर्यटन स्थल
अन्य जानकारी सन 1932 के संवैधानिक सुधारों के विरुद्ध त्रावणकोर में एक व्यापक जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में त्रावणकोर तथा कोचीन की स्टेट कांग्रेस का गठन हुआ।
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त्रावणकोर (अंग्रेज़ी: Travancore) सन 1949 से पहले एक भारतीय रियासत थी। इस पर त्रावणकोर राजपरिवार का शासन था, जिनकी गद्दी पहले पद्मनाभपुरम और फिर तिरुवनन्तपुरम में थी। अपने चरम पर त्रावणकोर राज्य का विस्तार भारत के आधुनिक केरल के मध्य और दक्षिणी भाग पर और तमिलनाडु के कन्याकुमारी पर था। राजकीय ध्वज पर लाल पृष्टभूमि के ऊपर चांदी का शंख बना हुआ था। 19वीं शताब्दी में यह ब्रिटिश-अधीन भारत की एक रियासत बन गई और इसके राजा को स्थानीय रूप से 21 तोपों की और राज्य से बाहर 19 तोपों की सलामी की प्रतिष्ठा दी गई। महाराज श्री चितिरा तिरुनल बलराम वर्मा के 1924-1949 के राजकाल में राज्य सरकार ने सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिये कई प्रयत्न किये, जिनसे यह ब्रिटिश-अधीन भारत का दूसरा सबसे समृद्ध रियासत बन गया और शिक्षा, राजव्यवस्था, जनहित कार्यों और सामाजिक सुधार के लिये जाना जाने लगा।

इतिहास

भारत में राजा के कर्तव्यों को राजधर्म की संज्ञा दी गई है। इसकी व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि शासक का दायित्व है कि वह धर्म की रक्षा करे अर्थात् अपने राज्य में शांति, समृद्धि, न्याय और व्यवस्था की स्थापना को सुनिश्चित करे। इन कर्तव्यों में कदाचित् सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य देवताओं और उनके मंदिरों की रक्षा करना था। श्रीपद्मनाभ के सेवक के रूप में त्रावणकोर के महाराजा अनेक अनुष्ठानों का पालन करते थे, जिनमें से अधिकांश की प्रथा अठारहवीं शताब्दी के मध्य में मार्तंड वर्मा द्वारा शुरू की गई थी। त्रावणकोर एक ऐसा राज्य था, जिसमें गैर-हिन्दुओं की, विशेषकर सीरियाई ईसाईयों की संख्या बहुत थी। 1875 में, राज्य की कुल आबादी में ईसाइयों की संख्या लगभग 20 प्रतिशत और मुसलमानों की संख्या 6 प्रतिशत थी। लगता है कि आधुनिक से पूर्व काल में हिन्दू बहुल त्रावणकोर में विभिन्न पंथावलम्बियों का सह-अस्तित्व था और सभी उस राज्य के एकीकृत अंग थे। इस सह-अस्तित्व का मुख्य कारण था, पांथिक सहिष्णुता की अर्ध-सरकारी नीति।'[1]

लेफ्टिनेंट वार्ड और कानर ने 1816 से 1820 ई. के बीच त्रावणकोर और कोच्चि का सर्वेक्षण किया था। उन्होंने इस विषय में कहा है कि इन दोनों राज्यों में ईसाई मत को मुख्य अधिकारियों द्वारा पूर्ण मान्यता प्राप्त थी, और उनकी न्याय व्यवस्था में अथवा उपेक्षा के कारण ईसाइयों को यातना पहुंचाई गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।

त्रावणकोर रियासत का नक्शा

1904 में श्रीमुलम विधानमंडल की पहली बैठक में दीवान वी.पी. माधव राव ने कहा था कि सभी पंथों के साथ बराबरी का व्यवहार करना त्रावणकोर राज्य की एक विशेषता है। मिशनरियों ने भी न्यूनाधिक रूप में इस बात को मान्यता दी। जे. नावल्स नामक मिशनरी ने 1898 में यह कहा था कि त्रावणकोर राज्य में गैर-हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता उस राज्य की एक अलग पहचान है। वस्तुत: हिन्दू राजाओं ने सीरियाई ईसाईयों को विशेष अधिकार और सम्मान दिया, जिससे उनकी पहचान उच्च जाति के रूप में होती थी। सीरियाई ईसाइयों के चर्च में जब पुरोहिताई की सत्ता से सम्बंधित कोई आपसी विवाद होता तो वे भी राजा का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। साथ ही, लेस्ली ब्राउन के कथनानुसार, सीरियाई ईसाई ओणम और विशुत आदि त्योहारों में भाग लेते थे, मंदिरों के उत्सवों में शामिल होते थे और हिन्दुओं की भांति मंदिरों में भेंट चढ़ाते थे।


स्पष्टत: त्रावणकोर का हिन्दू राज्य अन्य मतावलंबियों के साथ कोई भेदभाव नहीं करता था। वर्तमान केरल में, जिसका बड़ा भाग पहले त्रावणकोर राज्य में था, आज भी सर्वाधिक पांथिक सहिष्णुता दिखाई देती है। यह उल्लेखनीय है कि आज के केरल राज्य में शामिल होने वाले अन्य प्रमुख राज्य कोच्चि और मालाबार थे। दोनों राज्यों पर हिन्दू राजा राज करते थे। कोच्चि का राजा 'महाराजा' और मालाबार का राजा 'जमोरिन' कहलाता था। दोनों में त्रावणकोर के समान ही पांथिक सहिष्णुता थी। वस्तुत: तीनों राज्यों में इतनी पांथिक सहिष्णुता थी कि वहां मत-परिवर्तन की पूरी छूट थी। इसका निहितार्थ यह है कि हिन्दू चिंतन में राज्य का कोई दृढ़ प्रारूप नहीं है।

देशी राज्यों के विरुद्ध संघर्ष-कुछ तथ्य

  • त्रावणकोर व कोचीन केरल के प्रमुख देशी राज्य थे।
  • त्रावणकोर में कुशासन का पर्दाफाश करने के कारण रामकृष्ण पिल्लै को 1910 में देश से निर्वासित कर दिया गया था।
  • त्रावणकोर में स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेस का पहला सम्मेलन सन 1928 में हुआ।
  • सन 1932 के संवैधानिक सुधारों के विरुद्ध त्रावणकोर में एक व्यापक जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में त्रावणकोर तथा कोचीन की स्टेट कांग्रेस का गठन हुआ।
  • त्रावणकोर कोचीन पॉलिटिकल कांफ्रेंस का सम्मेलन सन 1937 में हुआ।
  • सन 1938 में कोचीन राज्य में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना हुई। त्रावणकोर में उत्तरदायी सरकार की माँग को लेकर जन आंदोलन हुआ।
  • सन 1946 में पुन: त्रावणकोर में जन आन्दोलन हुआ। उसके दबाव में उत्तरदायी शासन की स्थापना तथा स्वतंत्र त्रावणकोर का सी. पी. रामास्वामी आयर का स्वप्न भंग।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोरडिया, प्रफुल्ल। पंथनिरपेक्षता ही रहा आधार (हिन्दी) panchjanya.com। अभिगमन तिथि: 14 अक्टूबर, 2017।

बाहरी कड़ियाँ

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