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श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का | श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरूपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है। | ||
==वात्सल्य रस== | ==वात्सल्य रस== |
07:54, 6 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।
रस के भेद
कुछ आचार्यों ने श्रृंगार रस को रसराज और अन्य रसों की उसी से उत्पत्ति मानी है।
- आचार्य मम्मट ने रसों की संख्या आठ मानी है-
- अब विद्वानों ने भक्ति और वात्सल्य को भी रस मान लिया है।
- रसखान के काव्य में 'श्रृंगार रस', 'भक्ति रस' तथा 'वात्सल्य रस' आदि का विवेचन मिलता है।
श्रृंगार रस
श्रृंगार रस के दो भेद हैं-
- संयोग श्रृंगार
- विप्रलंभ श्रृंगार।
संयोग श्रृंगार
प्रिय और प्रेमी का मिलन दो प्रकार का हो सकता है- संभोग सहित और संभोग रहित। पहले का नाम संभोग श्रृंगार और दूसरे का नाम संयोग श्रृंगार है।
संभोग श्रृंगार
जहां नायक-नायिका की संयोगावस्था में जो पारस्परिक रति रहती है वहां संभोग श्रृंगार होता है। 'संभोग' का अर्थ संभोग सुख की प्राप्ति है। रसखान के काव्य में संभोग श्रृंगार के अनेक उदाहरण मिलते हैं। राधा-कृष्ण मिलन और गोपी-कृष्ण मिलन में कहीं-कहीं संभोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उदाहरण के लिए—
अँखियाँ अँखियाँ सो सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।
बतियाँ चित्त चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।
रसखानि के प्रान सुधा भरिबो अधरान पे त्यों अधरा धरिबो।
इतने सब मैन के मोहिनी जंत्र पे मन्त्र बसीकर सी करिबो॥[1] इस पद्य में रसखान ने संभोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक और नायिका की श्रृंगारी चेष्टाओं द्वारा करायी है। यद्यपि उन्होंने नायक तथा नायिका या कृष्ण-गोपी शब्द का प्रयोग नहीं किया, तथापि यह पूर्णतया ध्वनित हो रहा है कि यहाँ गोपी-कृष्ण आलंबन हैं। चित्त चोरन चेटक सी बतियां उद्दीपन विभाव हैं। अंखियां मिलाना, हिलाना, रिझाना आदि अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। संभोग श्रृंगार की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। संभोग श्रृंगार के आनंद-सागर में अठखेलियां करते हुए नायक-नायिका का रमणीय स्वरूप इस प्रकार वर्णित है—
सोई हुती पिय की छतियाँ लगि बाल प्रवीन महा मुद मानै।
केस खुले छहरैं बहरें फहरैं, छबि देखत मन अमाने।
वा रस में रसखान पगी रति रैन जगी अखियाँ अनुमानै।
चंद पै बिंब औ बिंब पै कैरव कैरव पै मुकतान प्रमानै॥[2]
विप्रलंभ श्रृंगार
श्रृंगार रस के दो भेद पहले ही बता दिये हैं। जहां अनुराग तो अति उत्कट हो, परंतु प्रिय समागम न हो उसे विप्रलंभ (वियोग) कहते हैं। विप्रलंभ पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण इन भेदों से चार प्रकार का होता है। रसखान ने करुण विप्रलंभ का निरूपण अपने काव्य में नहीं किया। रसखान का मन निप्रलंभ श्रृंगार-निरूपण में अधिक नहीं रमा। उसका कारण यह हो सकता है कि वे अपनी अन्तर्दृष्टि के कारण कृष्ण को सदैव अपने पास अनुभव करते थे और इस प्रकार की संयोगावस्था में भी वियोग का चित्रण कठिन होता है। रसखान के लौकिक जीवन में हमें घनानन्द की भांति किसी विछोह के दर्शन नहीं होते। इसीलिए उनसे घनानन्द की भांति जीते जागते और हृदयस्पर्शी विरहनिवेदन की आशा करना व्यर्थ ही होगा। रसखान ने वियोग के अनेक चित्र उपस्थित नहीं किये किन्तु जो लिखा है वह मर्मस्पर्शी है जिस पर संक्षेप में विचार किया जाता है।
वात्सल्य रस
पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है।
- पण्डित विश्वनाथ ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह माना है। पुत्रादि संतान इसके आलंबन हैं। उनकी चेष्टाएं उनकी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यादि उद्दीपन हैं और आलिंगन, स्पर्श, चुंबन, एकटक उसे देखना, पुत्रकादि अनुभाव तथा अनिष्ट-शंका, हर्ष, गर्व आदि उसके संचारी हैं। प्रस्फट चमत्कार के कारण वह इसे स्वतन्त्र रस मानते हैं। इसका वर्णन पद्मगर्भ छवि के समान तथा इसके देवता गौरी आदि षोडश मातृ चक्र हैं। यद्यपि रसखान ने सूरदास की भांति वात्सल्य रस सम्बन्धी अनेक पदों की रचना नहीं की तथापि उनका अल्पवर्णन ही मर्मस्पर्शी तथा रमणीय है।
भक्तिरस
- संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों- मम्मट, अभिनवगुप्त, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि ने रसों की संख्या नौ मानी है। उन्होंने भक्ति को रस-कोटि में नहीं रखा। उनके अनुसार भक्ति देव विषयक रति, भाव ही है। अभिनव गुप्त ने भक्ति का समावेश शांत रस के अंतर्गत किया।[3]
- धनंजय ने इसको हर्षोत्साह माना।[4]
- भक्ति को रसरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय वैष्णव आचार्यों को है। उन्होंने अपने मनोवैज्ञानिक शास्त्रीय विवेचन के आधार पर भक्ति रस को अन्य रसों से उत्तम बताया।
- मधुसूदन सरस्वती ने 'भक्ति रसायन' में भक्ति रस की स्थापना की। उनका तर्क है कि 'जब अनुभव के आधार पर सुखविरोधी क्रोध, शोक, भय आदि स्थायी भावों का रसत्व को प्राप्त होना मान लिया गया है तो फिर सहस्त्रगुणित अनुभव सिद्ध भक्ति को रस न मानना अपलाप है, जड़ता है।[5] वास्तविकता तो यह है कि भक्ति रस पूर्ण रस है, अन्य रस क्षुद्र हैं, भक्तिरस आदित्य है, अन्य रस खद्योत हैं।[6]
- काव्यशास्त्र की दृष्टि से भक्तिरस का स्थायी भाव भगवद्रति है।[7]
- भक्ति रस के आलंबन भगवान और उनके भक्तगण हैं।[8] भक्तिरस के आश्रय भक्तगण हैं। भगवान का रूप (वस्त्र आदि) और चेष्टाएं उद्दीपन विभाव मानी गई हैं।
शांतरस
संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व ज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। 'शांत रस वह रस है जिसमें 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद हुआ करता है। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति हैं, इसका वर्ण कुंद-श्वेत अथवा चंद्र-श्वेत है। इसके देवता श्री भगवान नारायण हैं। अनित्यता किंवा दु:खमयता आदि के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्म स्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन-विभाव है। इसके उद्दीपन हैं पवित्र आश्रम, भगवान की लीला भूमियां, तीर्थ स्थान, रम्य कानन, साधु-संतों के संग आदि आदि।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुजान रसखान, 120
- ↑ सुजान रसखान, 119
- ↑ अतएवेश्वर प्रणिधान विषये भक्ति श्रद्धे स्मृति मति घृत्युत्साहानुप्रविष्टे अन्यथैवांगम् इति न तयो: पृथग्सत्वेनगणनाम्। अभिनव भारती, जिल्द 1, पृ0 340
- ↑ दशरूपक, 4 । 83
- ↑ भक्तिरसायन, 2 । 77-78
- ↑ भक्तिरसायन, 2 । 76
- ↑ स्थायी भवो त्र सम्प्रोक्त: श्री कृष्ण विषया रति:। हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 5 । 2
- ↑ हरि भक्ति रसामृत सिंधु 2 । 1 । 16
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