"अल्ताफ़ हुसैन हाली": अवतरणों में अंतर

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कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें</poem>
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें</poem>
==हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब==
अपने [[दिल्ली]] निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी [[कविता]] का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने [[साहित्य]] में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व [[भाषा]] की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।
किसान व मेहनतकश गरीब जनता से गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि उनकी रचनाओं में उनके जीवन के चित्र भरे पड़े हैं। हाली ने राजाओं-सामन्तों के मनोरंजन के लिए कविताओं की रचनाएं नहीं की थी, बल्कि दलितों, पीड़ितों, वंचितों और समाज के कमजोर वर्गों के जीवन की वास्तविकताओं व इच्छाओं-आकांक्षाओं को अपनी कविताओं में पेश किया। हाली और ग़ालिब के रिश्ते की तुलना प्रख्यात सूफ़ी [[निज़ामुद्दीन औलिया]] व उनके लाडले शागिर्द [[अमीर खुसरो]] के रिश्ते से की जा सकती है। जहां गुरू राजाओं और राजदरबारों से दूर भागता था, उनसे मिलना पसन्द नहीं करता था, वहीं शिष्य उम्र भर राज दरबारों की शोभा बढ़ाता रहा। औलिया और खुसरो के मुकाबले हाली और ग़ालिब के संबंध में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां शिष्य जनता के दु:ख तकलीफ बयान करता था तो गुरू की हाजिर-जबाबी, काव्य-प्रतिभा आभिजात्यों के काम आती थी।
हाली और [[मिर्ज़ा ग़ालिब]] के जीवन जीने के ढंग में बड़ा गहरा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के [[मुसलमान]] का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी [[नमाज़]] पढ़ी हो। यह भी सही है कि दोनों आम व्यवहार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। उनकी मृत्यु पर हाली ने ‘[[मर्सिया]]’ भी लिखा, जिसमें हाली व ग़ालिब के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है-
<poem>बुलबुले दिल मर गया हेहात
जिस की थी बात बात में एक बात
नुक्ता दाँ, नुक्ता सन्ज, नुक्ता शनास
पाक दिल, पाक ज़ात, पाक सिफ़ात
[[मर्सिया]] उसका लिखते हैं अहबाब
किस से इसलाह लें किधर जाएँ
पस्त मज़्मू है नोहए उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुँचाएं
इस से मिलने को याँ हम आते थे
जाके [[दिल्ली]] से आएगा अब कौन
मर गया क़द्रदाने फ़हमे सुख़न
शेर हम को सुनाएगा अब कौन
मर गया तशनए मज़ाके कलाम
हम को घर बुलाएगा अब कौन
था बिसाते सुख़न में शातिर एक
हम को चालें बताएगा अब कौन
शेर में नातमाम है ‘हाली’
[[ग़ज़ल]] उस की बनाएगा अब कौन
कम लना फ़ीहे मन बकी वो अवील
वएताबा मअल ज़माने तवील।</poem>
देश-कौम की चिंता ही अल्ताफ़ हुसैन हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।





11:34, 7 नवम्बर 2017 का अवतरण

अल्ताफ़ हुसैन हाली (अंग्रेज़ी: Altaf Hussain Hali, जन्म- 1837, पानीपत; मृत्यु- 30 सितम्बर, 1914) का नाम उर्दू साहित्य में बड़ी ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे सर सैयद अहमद ख़ान साहब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर ग़ज़ल, नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।

परिचय

अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म 11 नवम्बर, 1837 ई. में पानीपत (हरियाणा) हुआ था। उनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए वे अरबी व फ़ारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों- इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया।

शिक्षा

अपनी पारिवारिक स्थितियों को वे अपने अध्ययन के शौक को जारी रखने के अनुकूल नहीं पा रहे थे, तो 17 वर्ष की उम्र में घर से दिल्ली के लिए निकल पड़े, यद्यपि यहां भी वे अपने अध्ययन को व्यवस्थित ढंग से नहीं चला सके। इसके बारे में ‘हाली की कहानी हाली की जुबानी’ में बड़े पश्चाताप से लिखा कि ‘डेढ़ बरस दिल्ली में रहते हुए मैने कालिज को कभी आंख से देखा भी नहीं’। 1856 में हाली दिल्ली से वापस पानीपत लौट आए। 1856 में हाली ने हिसार जिलाधीश के कार्यालय में नौकरी कर ली। 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान अन्य जगहों की तरह हिसार में भी अंग्रेज़ी-शासन व्यवस्था समाप्त हो गई थी, इस कारण उन्हें घर आना पड़ा।

सन 1863 में नवाब मुहमद मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ्ता के बेटे को शिक्षा देने के लिए हाली जहांगीराबाद चले गए। 1869 में नवाब शेफ्ता की मृत्यु हो गई। इसके बाद हाली को रोजगार के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा। वहां पंजाब गवर्नमेंट बुक डिपो पर किताबों की भाषा ठीक करने की नौकरी की। चार साल नौकरी करने के बाद ऐंग्लो-अरेबिक कॉलेज, दिल्ली में फ़ारसी व अरबी भाषा के मुख्य अध्यापक के तौर पर कार्य किया। 1885 में हाली ने इस पद से त्याग पत्र दे दिया।

संतान

अल्ताफ़ हुसैन हाली के दो बेटे और एक बेटी थी। हाली के लिए बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं था। उस समय इस तरह के विचार रखना व उन पर अमल करना क्रांतिकारी काम से कम नहीं था। इस दौर में मां-बाप अपनी औलाद का विवाह करके अपने दायित्व की पूर्ति मान लेते थे। खासकर बेटियों के लिए तो मां-बाप का यह ‘पवित्र कर्तव्य’ ही माना जाता था कि जवान होने से पहले ही उस ‘अमानत’ को अपने ‘रखवाले’ को सौंपकर निजात पाए। जिस समाज में हाली का जन्म हुआ था, वहां बेटियों के लिए शिक्षा का इतना ही प्रावधान था कि वह धार्मिक ग्रंथ को पढ़कर जीवन के कोल्हू में सारी उम्र जुती रहे। हाली ने इस विचार को मानने से इंकार किया। वे बेटियों की शादी अपने घर से ज्यादा दूर करने के पक्ष में नहीं थे। दूर विवाह करने को वे उसकी हत्या ही कहते थे।

साथ बेटी के मगर अब पिदरो मादर भी,
ज़िन्दा दा गोर सदा रहते हैं और खस्ता जिगर,
अपना और बेटियों का जब के ना सोचें अन्जाम,
जाहलियत से कहीं है वह ज़ामाना बदतर।

मुस्लिम समाज और हाली

अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृत्ति से गुजर रहा था। अंग्रेज़ों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेज़ों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे। वे स्वर्णिम अतीत की कल्पना में जी रहे थे। अतीत को वे वापस नहीं ला सकते थे और वर्तमान से वे आंखें चुराते थे। हाली ने उनकी इस मनोवृत्ति को पहचाना। ‘देखें मुंह डाल के गर अपने गरीबान मैं वो, उम्र बरबाद करें फिर न इस अरमान में वो’ कहकर अतीत के ख्यालों की बजाए दरपेश सच्चाई को स्वीकार करने व किसी हुनर को सीखकर बदली परिस्थितियों सम्मान से जीने की नेक सलाह दी।

पेशा सीखें कोई फ़न सीखें सिनाअत सीखें
कश्तकारी करें आईने फ़लाहात सीखें
घर से निकलें कहीं आदाबे सयाहत सीखें
अलग़रज मर्द बने ज़ुर्रतो हिम्मत सीखें
कहीं तसलीम करें जाके न आदाब करें
ख़द वसीला बनें और अपनी मदद आप करें

हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब

अपने दिल्ली निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी कविता का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने साहित्य में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व भाषा की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।

किसान व मेहनतकश गरीब जनता से गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि उनकी रचनाओं में उनके जीवन के चित्र भरे पड़े हैं। हाली ने राजाओं-सामन्तों के मनोरंजन के लिए कविताओं की रचनाएं नहीं की थी, बल्कि दलितों, पीड़ितों, वंचितों और समाज के कमजोर वर्गों के जीवन की वास्तविकताओं व इच्छाओं-आकांक्षाओं को अपनी कविताओं में पेश किया। हाली और ग़ालिब के रिश्ते की तुलना प्रख्यात सूफ़ी निज़ामुद्दीन औलिया व उनके लाडले शागिर्द अमीर खुसरो के रिश्ते से की जा सकती है। जहां गुरू राजाओं और राजदरबारों से दूर भागता था, उनसे मिलना पसन्द नहीं करता था, वहीं शिष्य उम्र भर राज दरबारों की शोभा बढ़ाता रहा। औलिया और खुसरो के मुकाबले हाली और ग़ालिब के संबंध में फर्क सिर्फ इतना है कि यहां शिष्य जनता के दु:ख तकलीफ बयान करता था तो गुरू की हाजिर-जबाबी, काव्य-प्रतिभा आभिजात्यों के काम आती थी।

हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा गहरा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी नमाज़ पढ़ी हो। यह भी सही है कि दोनों आम व्यवहार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हामी थे। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था। उनकी मृत्यु पर हाली ने ‘मर्सिया’ भी लिखा, जिसमें हाली व ग़ालिब के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है-

बुलबुले दिल मर गया हेहात
जिस की थी बात बात में एक बात
नुक्ता दाँ, नुक्ता सन्ज, नुक्ता शनास
पाक दिल, पाक ज़ात, पाक सिफ़ात
मर्सिया उसका लिखते हैं अहबाब
किस से इसलाह लें किधर जाएँ
पस्त मज़्मू है नोहए उस्ताद
किस तरह आसमाँ पे पहुँचाएं
इस से मिलने को याँ हम आते थे
जाके दिल्ली से आएगा अब कौन
मर गया क़द्रदाने फ़हमे सुख़न
शेर हम को सुनाएगा अब कौन
मर गया तशनए मज़ाके कलाम
हम को घर बुलाएगा अब कौन
था बिसाते सुख़न में शातिर एक
हम को चालें बताएगा अब कौन
शेर में नातमाम है ‘हाली’
ग़ज़ल उस की बनाएगा अब कौन
कम लना फ़ीहे मन बकी वो अवील
वएताबा मअल ज़माने तवील।

देश-कौम की चिंता ही अल्ताफ़ हुसैन हाली की रचनाओं की मूल चिंता है। कौम की एकता, भाईचारा, बराबरी, आजादी व जनतंत्र को स्थापित करने वाले विचार व मूल्य हाली की रचनाओं में मौजूद हैं। यही वे मूल्य हैं जो आधुनिक समाज के आधार हो सकते हैं और जिनको प्राप्त करके ही आम जनता सम्मानपूर्ण जीवन जी सकती है।



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