"पारिजात तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर
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विभूति भू में रस में रसालता। | विभूति भू में रस में रसालता। | ||
चराचरात्मा विभु विश्वरूप है॥2॥ | चराचरात्मा विभु विश्वरूप है॥2॥ | ||
'''(2) गीत''' | '''(2) गीत''' | ||
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उन सकल कलाओं का है। | उन सकल कलाओं का है। | ||
विभु अति कमनीय कलाधर॥14॥ | विभु अति कमनीय कलाधर॥14॥ | ||
'''(3) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं। | |||
नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के। | |||
कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता। | |||
राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥ | |||
'''वंशस्थ''' | |||
असंख्य हैं शीश, असंख्य नेत्र हैं। | |||
असंख्य ही हैं उसके पदादि भी। | |||
कहें न कैसे यह भूत मात्र में। | |||
निवास क्या, है न, जगन्निवास का॥2॥ | |||
'''(4) गीत''' | |||
सब काल कौन श्यामल तन। | |||
है बहुविध वाद्य बजाता। | |||
किसलिए सरस स्वर भर-भर। | |||
है मधुमय गीत सुनाता॥1॥ | |||
है कर-विहीन कहलाता। | |||
है नहीं उँगलियोंवाला। | |||
पर सुन उसकी वीणाएँ। | |||
भव बनता है मतवाला॥2॥ | |||
है बदन नहीं जब उसके। | |||
तब अधर कहाँ से लाता। | |||
पर बजा मुरलिका अपनी। | |||
मन को है मत्त बनाता॥3॥ | |||
यद्यपि अकंठ है तो भी। | |||
वह कुंठित नहीं दिखाता। | |||
अगणित रागों को गा-गा। | |||
है रस का स्रोत बहाता॥4॥ | |||
ऐसी लाखों वीणाएँ। | |||
पल-पल हैं बजती रहती। | |||
या विपुल वेणु-स्वर-लहरी। | |||
रसमय बन-बन है बहती॥5॥ | |||
क्या बात वेणु वीणा की। | |||
ऐसे ही अगणित बाजे। | |||
बजते रहते हैं प्रति पल। | |||
ध्वनि वैभव मध्य विराजे॥6॥ | |||
अनवरत सुधा बरसा कर। | |||
जो गीत गीत हैं होते। | |||
वे निधिक उन ध्वनियों के हैं। | |||
निकले जिनसे रस-स्रोते॥7॥ | |||
भव कंठ रसीले सुन्दर। | |||
बहु तरुवर मेरु गुहाएँ। | |||
सब यंत्र अनेकों बाजे। | |||
सागर सरवर सरिताएँ॥8॥ | |||
कैसे उसके साधन हैं। | |||
वह कैसे क्या करता है। | |||
कामना-हीन हो कैसे | |||
बहु स्वर इनमें भरता है॥9॥ | |||
बतला न सकें हम जिसको। | |||
कैसे उसको बतलायें। | |||
जो उलझन सुलझ न पाई। | |||
किस तरह उसे सुलझायें॥10॥ | |||
'''(5) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
कंठों का बन कंठ मूल कहला तानों लयों आदि का। | |||
नादों में भर के निनाद स्वर के स्वारस्य का सूत्र हो। | |||
दे नाना ध्वनि-पुंज को सरसता, आलाप को मुग्धता। | |||
गाता है नित कौन गीत किसका बाजे करोड़ों बजा। | |||
'''प्रभाकर''' | |||
'''(1) गीत''' | |||
विहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया। | |||
नभतल नव अनुराग-राग-रंजित बन पाया। | |||
उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई। | |||
लाल रंग में रँगी रँगीली ऊषा आयी॥1॥ | |||
चल बहु मोहक चाल प्रकृति प्रिय-अंक-विकासी। | |||
लोक-नयन-आलोक अलौकिक ओक-निवासी। | |||
आया दिनमणि अरुण बिम्ब में भरे उजाला। | |||
पहन कंठ में कनक-वर्ण किरणों की माला॥2॥ | |||
ज्योति-पुंज का जलधिक जगमगा के लहराया। | |||
मंजुल हीरक-जटित मुकुट हिमगिरि ने पाया। | |||
मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल। | |||
कनक-पत्रा से लसित हुआ गिरि-प्रान्त धरातल॥3॥ | |||
हरे-भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर। | |||
पादप प्रभा-निकेत हुए कनकाभा पाकर। | |||
स्वर्णतार के मिले सकल दल दिव्य दिखाये। | |||
विलसित हुए प्रसून प्रभूत विकचता पाये॥4॥ | |||
पहन सुनहला वसन ललित लतिकाएँ विलसीं। | |||
कुसुमावलि के व्याज बहु विनोदित हो विकसीं। | |||
जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली। | |||
विहँस-विहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली॥5॥ | |||
लगे छलकने ज्योति-पुंज के बहु विधि प्यारे। | |||
मिले जलाशय-व्याज धरा को मुकुर निराले। | |||
कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलाएँ। | |||
लगीं नाचने लोल लहर मिष सित सरिताएँ॥6॥ | |||
ज्योति-जाल का स्तंभ विरच कल्लोलों द्वारा। | |||
मिला-मिला नीलाभ सलिल में विलसित पारा। | |||
बना-बना मणि-सौध मरीचि मनोहर कर से। | |||
लगा थिरकने सिंधु गान कर मधुमय स्वर से॥7॥ | |||
नगर-नगर के कलस चारुतामय बन चमके। | |||
दमक मिले वे स्वयं अन्य दिनमणि-से दमके। | |||
आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई। | |||
सदन-सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई॥8॥ | |||
सकल दिव्यता-सदन दिवस का बदन दिखाया। | |||
तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया। | |||
दिशा समुज्ज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई। | |||
सकल कमल-कुल-कान्त वनों में कमला आयी॥9॥ | |||
कल कलरव से लोक-लोक में बजी बधाई। | |||
कुसुमावलि ने विकस विजय-माला पहनाई। | |||
विहग-वृन्द ने उमग दिवापति-स्वागत गाया। | |||
सकल जीव जग गये, जगत उत्फुल्ल दिखाया॥10॥ | |||
'''(2) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
लेके मंजुल अंक में प्रथम दो धारें सदाभामयी। | |||
पा के नूतन लालिमा फिर मिले प्यारी प्रभा भानु की। | |||
ऐसा है वह कौन लोक जिसको है मोह लेती नहीं। | |||
लीलाएँ कर मन्द-मन्द हँस के प्राची दिशा सुन्दरी॥1॥ | |||
है लालायित नेत्र प्रीति-जननी है लालिमा से लसी। | |||
है लीला-सरि की ललाम लहरी प्रात:प्रभारंजिनी। | |||
है प्राची-कर-पालिता प्रिय सुता है मूर्ति माधुर्य की। | |||
ऊषा है अनुराग-राग-वलिता आलोक मालामयी॥2॥ | |||
'''(3) गीत''' | |||
विलसी हैं नभ-मंडल में। | |||
आभामय दो धाराएँ। | |||
गत होते तम में प्रकटीं। | |||
या रवि-रथ-पथ-खाएँ॥1॥ | |||
अनुराग-रागमय प्राची। | |||
कमनीय प्रकृति-कर पाली। | |||
है राह देखती किसकी। | |||
रख मंजुल मुख की लाली॥2॥ | |||
सिन्दूर माँग में भरकर। | |||
पाकर लालिमा निराली। | |||
क्यों लोहित-वसना आयी। | |||
ले जन-रंजनता ताली॥3॥ | |||
क्यों हुईं दिशाएँ उज्ज्वल। | |||
क्यों कान्ति मनोरम पाई। | |||
उनकी मनमोहक आभा। | |||
क्यों मंद-मंद मुसकाई॥4॥ | |||
अति रुचिकर चमर हिलाता। | |||
बन सुरभित सरस सवाया। | |||
क्यों मन्द-मन्द पद रखता। | |||
शीतल समीर है आया॥5॥ | |||
क्यों गूँज रहा है नभतल। | |||
क्यों उसमें स्वर भर पाया। | |||
बहु उमग-उमग विहगों ने। | |||
क्यों राग मनोहर गाया॥6॥ | |||
क्यों हैं फूली न समाती। | |||
उनकी निखरी हरियाली। | |||
क्यों खड़े हुए हैं तरुवर। | |||
लेकर फूलों की डाली॥7॥ | |||
विकसित होती हैं पल-पल। | |||
किसलिए कलित कलिकाएँ। | |||
धारण कर मुक्ता-माला। | |||
क्यों ललित बनीं लतिकाएँ॥8॥ | |||
अलि किसका गुण गाते हैं। | |||
रच-रचकर निज कविताएँ। | |||
क्यों हैं कल-कल रव करती। | |||
सितभूत सकल सरिताएँ॥9॥ | |||
जगती - जीवन - अवलम्बन। | |||
वसुधातल - ताप - विमोचन। | |||
उदयाचल पर आता है। | |||
क्या सकल लोक का लोचन॥10॥ | |||
'''(4) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
साधे से सब सौर-मंडल सधा, बाँधे बँधीर शृंखला। | |||
पाले से उसके पली वसुमती, टाले टली आपदा। | |||
पाता है तृण-राजिका विटप का, त्राता लता-बेलि का। | |||
धाता है रवि सर्व-भूत-हित का, है अन्नदाता पिता॥1॥ | |||
रत्नों की कमनीय कान्ति दिव को, वारीश को रम्यता। | |||
आभा-सी सुविभूति भूत-दृग को, तेजस्विता दृष्टि को। | |||
भू को वैभव, पुष्प को विकचता, सदूर्णता वस्तु को। | |||
देता है रवि ज्योति-पुंज विधु को, हेमाद्रि को हेमता॥2॥ | |||
'''विधु-विभव''' | |||
'''(1) गीत''' | |||
जब मंद-मंद विधु हँसता। | |||
नभ-मंडल में है आता। | |||
तब कौन नयन है जिसमें। | |||
वह सुधा नहीं बरसाता॥1॥ | |||
है वह वसुधा-अभिनंदन। | |||
कुमुदों का परम सहारा। | |||
सर्वस्व सरस भावों का। | |||
रजनी-नयनों का तारा॥2॥ | |||
क्यों कला कला दिखलाकर। | |||
बहु ज्योति तिमिर में भरती। | |||
कमनीय कौमुदी कैसे। | |||
रजनी का रंजन करती॥3॥ | |||
क्यों चारु चाँदनी भू पर। | |||
सित चादर सदा बिछाती। | |||
कैसे विलसित कुसमों पर। | |||
छवि लोट-पोट हो जाती॥4॥ | |||
कैसे दिगन्त में बहता। | |||
बहु दिव्य रसों का सोता। | |||
क्यों निधिक उमंग में आता। | |||
जो नहीं कलानिधि होता॥5॥ | |||
जो नहीं निकलती होती। | |||
विधु-कर से प्रिय रस-धारा। | |||
तो बड़े चाव से कैसे। | |||
खाता चकोर अंगारा॥6॥ | |||
पाकर मयंक-सा मोहक। | |||
जो नहीं मधुर मुसकाती। | |||
जगती-जन का अनुरंजन। | |||
कैसे रजनी कर पाती॥7॥ | |||
हिमकर है सुधा-निकेतन। | |||
वसुधा-हित जलधिक-विलासी। | |||
है इसीलिए विभु-मानस। | |||
शिव - शंकर - शीश - निवासी॥8॥ | |||
दोनों के दोनों हित हैं। | |||
है छिका अहित-पथ-नाका। | |||
राकापति राका-पति है। | |||
राकेश-रंजिनी राका॥9॥ | |||
विधु कान्त प्रकृति-कर-शोभी। | |||
है रजत-रचित रस-प्यारेला। | |||
जो छलक-छलक करता है। | |||
क्षितितल को बहु छवि वाला॥10॥ | |||
वह है सुख सुन्दर मुखड़ा। | |||
आनन्द - कल्पतरु - थाला। | |||
है मुग्धकारिता-मंडन। | |||
दिनकर कोमल कर पाला॥11॥ | |||
नवनी समान मृदु मंजुल। | |||
अवनीतल - विरति - विभंजन! | |||
है चन्द्र, लोक-पति-लोचन। | |||
तम-मोचन रजनी-रंजन॥12॥ | |||
'''(2) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है। | |||
है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली। | |||
पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ। | |||
जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहें॥1॥ | |||
दे दे मंजु सुधा लता विटप को है सींचता सर्वदा। | |||
नाना कंद समूह को सरस हो है सिक्त देता बना। | |||
पुष्पों को खिलता विलोक हँसता स्नेहाम्बुधारा बहा। | |||
न्यारा है वह चारु चन्द्र जिसकी है प्रेमिका चन्द्रिका॥2॥ | |||
पाता है सुकुमारता-सदन का, है स्निग्धता का पिता। | |||
धाता है रस का, महा सरस का सौन्दर्य का है सखा। | |||
दाता है कमनीय कान्ति-निधि का, माधुर्य का है धुरा। | |||
छाता है विधु एक क्षत्रपति का संदीप्त-रत्नच्छटा॥3॥ | |||
है आभा कमनीय पुंज, महि का साथी, सिता का धनी। | |||
नाना औषध-मूल-भूत, प्रतिभू पीयूष-पाथोधिका। | |||
है धाता प्रतिभा प्रसूत, रवि का स्नेही, सुरों का सखा। | |||
कान्तात्मा कवि के कला-निलय का आलोक राकेश है॥4॥ | |||
शृंगों के हिम-पुंज का सुछवि का प्रासाद की दीप्तिका। | |||
पुष्पों पल्लव आदि के विभव का आभामयी वीचिका। | |||
भू की अन्य विभूति का, प्रकृति के संसिक्त सौन्दर्य का। | |||
है आधार मयंक वारिनिधि के उन्मुक्त उल्लास का॥5॥ | |||
'''तारकावली''' | |||
'''(1) गीत''' | |||
हैं सौर-मंडलाधिकप के। | |||
अधिकार में अमित ता। | |||
जो हैं सुन्दर मन-मोहन। | |||
बहु रंग रूप में न्यारे॥1॥ | |||
शिर के ऊपर रजनी में। | |||
जो लाल रंग का तारा। | |||
है जगमग-जगमग करता। | |||
वह है मंगल महि-प्यारा॥2॥ | |||
भूतल की कुछ बातों से। | |||
मिलती हैं उसकी बातें। | |||
उसके दिन हैं चमकीले। | |||
सुन्दर हैं उसकी रातें॥3॥ | |||
प्रात: या संध्या वेला। | |||
यों ही या यंत्रों द्वारा। | |||
है क्षितिज पर उगा मिलता। | |||
छोटा-सा एक सितारा॥4॥ | |||
बुध उसको ही कहते हैं। | |||
वह है हरिदाभ दिखाता। | |||
क्षिति-तल पर अपनी किरणें। | |||
है छटा साथ छिटकाता॥5॥ | |||
बहु काल मध्य नभतल में। | |||
पीताभ एक उङु-पुंगव। | |||
लोचन-गोचर होता है। | |||
कर वहन बहु विभा-वैभव॥6॥ | |||
द्विजराज आठ अनुगत बन। | |||
उसके वश में रहते हैं। | |||
अतएव सकल विज्ञानी। | |||
सुर-गुरु उसको कहते हैं॥7॥ | |||
प्राची अथवा पश्चिम में। | |||
जो श्वेत समुज्ज्वल तारा। | |||
देखा जाता है प्राय:। | |||
है शुक्र वही दृग-प्यारा॥8॥ | |||
रवि-विधु तजकर, ऑंखों से। | |||
जितने उङु हैं दिखलाते। | |||
उन सब में बड़ा यही है। | |||
बहु दिव्य इसी को पाते॥9॥ | |||
जो वलयवान तारक है। | |||
जो मंद-मंद चलता है। | |||
जो नील गगन-मंडल के। | |||
नीलापन में ढलता है॥10॥ | |||
शनि वही कहा जाता है। | |||
कुछ-कुछ है वह मटमैला। | |||
वह नीलम-जैसा है तो। | |||
है वलय-रजत का थैला॥11॥ | |||
इस मंडल में इन-से ही। | |||
दो ग्रह हैं और दिखाते। | |||
है एक और मिल पाया। | |||
अब यह भी हैं सुन पाते॥12॥ | |||
मंगल एवं सुर-गुरु की। | |||
कक्षाओं का मध्यस्थल। | |||
यों उङु-पूरित है जैसे। | |||
मालाओं में मुक्ता-फल॥13॥ | |||
इसमें हैं पुच्छल ता। | |||
जिनकी गति नहीं जनाती। | |||
झड़ बाँध-बाँध उल्काएँ। | |||
हैं अद्भुत दृश्य दिखाती॥14॥ | |||
इस एक सौर-मंडल की। | |||
इतनी विचित्र हैं बातें। | |||
कर सकीं नहीं हल जिनको। | |||
लाखों वर्षों की रातें॥15॥ | |||
तब अमित सौर-मंडल की। | |||
गाथाएँ क्यों बतलायें। | |||
बुध-जन हैं बूँदों-जैसे। | |||
क्यों पता जलधि का पायें॥16॥ | |||
'''(2) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
होता ज्ञात नहीं रहस्य इनका, ये हैं अविज्ञात से। | |||
कोई पा न सका पता प्रगति का विस्तार निस्तार का। | |||
कैसे देख इन्हें न चित्त दहले, कैसे न उत्कंठ हो। | |||
हैं ये केतु विचित्र, पुच्छ जिनके हैं कोटिश: कोस के॥1॥ | |||
क्रीड़ाएँ अवलोक लीं अनल की, देखी कला की कला। | |||
ज्योतिर्भूति विलोक ली, पर कहाँ ऐसी छटाएँ मिलीं। | |||
ऐसे लोचन कौन हैं वह जिन्हें देती नहीं मुग्धता। | |||
उल्का की कलकेलि व्योम-तल की है दिव्य दृश्यावली॥2॥ | |||
'''प्रभात''' | |||
'''(1) गीत''' | |||
प्रकृति-वधू ने असित वसन बदला सित पहना। | |||
तन से दिया उतार तारकावलि का गहना। | |||
उसका नव अनुराग नील नभतल पर छाया। | |||
हुई रागमय दिशा, निशा ने वदन छिपाया॥1॥ | |||
आरंजित हो उषा-सुन्दरी ने सुख माना। | |||
लोहित आभा-वलित वितान अधर में ताना। | |||
नियति-करों से छिनी छपाकर की छवि सारी। | |||
उठी धरा पर पड़ी सिता सित चादर न्यारी॥2॥ | |||
ओस-बिन्दु ने द्रवित हृदय को सरस बनाया। | |||
अवनी-तल पर विलस-विलस मोती बरसाया। | |||
खुले कंठ कमनीय गिरा ने बीन बजाई। | |||
विहग-वृन्द ने उमग मधुर रागिनी सुनाई॥3॥ | |||
शीतल बहा समीर, हुईं विकसित कलिकाएँ। | |||
तरुदल विलसें, बनीं ललिततम सब लतिकाएँ। | |||
सर में खिले सरोज, हो गईं सित सरिताएँ। | |||
सुरभित हुआ दिगन्त, चल पड़ीं अलि-मालाएँ॥4॥ | |||
हुआ बाल-रवि उदय, कनक-निभ किरणें फूटीं! | |||
भरित तिमिर पर परम प्रभामय बनकर टूटीं। | |||
जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली। | |||
खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की मंजुल थैली॥5॥ | |||
बने दिव्य गिरि-शिखर मुकुट मणि-मंडित पाये। | |||
कनकाभा पा गये कलित झरने दिखलाये। | |||
मिले सुनहली कान्ति लसी सुमनावलि सारी। | |||
दमक उठीं बेलियाँ लाभ कर द्युति अति प्यारी॥6॥ | |||
स्वर्णतार से रचे चारुतम चादर द्वारा। | |||
सकल जलाशय लसे बनी उज्ज्वल जल-धारा। | |||
दिखा-दिखाकर तरल उरों की दिव्य उमंगें। | |||
ले-लेकर रवि-बिम्ब खेलने लगीं तरंगें॥7॥ | |||
हीरक-कण हरिदाभ तृणों पर गया उछाला। | |||
बनी दूब रमणीय पहनकर मुक्ता-माला। | |||
मिले कान्तिमय किरण लसे बालू के टीले। | |||
सा रज-कण बने रजत-कण-से चमकीले॥8॥ | |||
जिस जगती को असित कर सकी थी तम-छाया। | |||
रवि-विकास ने विलस उसे बहुरंग बनाया। | |||
कहीं हुईं हरिदाभ, कहीं आरक्त दिर्खाईं। | |||
कहीं पीत छवि कान्त श्वेत किरणें बन पाईं॥9॥ | |||
हुआ जागरित लोक, रात्रिकगत जड़ता भागी। | |||
बहा कर्म्म का स्रोत, प्रकृति ने निद्रा त्यागी। | |||
विजित तमोगुण हुआ, सतोगुण सितता छाई। | |||
कला अलौकिक कला-निकेतन की दिखलाई॥10॥ | |||
पहने कंचन-कलित क्रीट मुक्तावलि-माला। | |||
विकच कुसुम का हार विभाकर-कर का पाला। | |||
प्राची के कमनीय अंक में लसित दिखाया। | |||
लिये करों में कमल प्रभात विहँसता आया॥11॥ | |||
'''(2) वंशस्थ''' | |||
अनन्त में भूतल में दिगन्त में। | |||
नितान्त थी कान्त वनान्त भाग में। | |||
प्रभाकराभा-गरिमा-प्रभाव से। | |||
प्रभावित दिव्य प्रभा प्रभात की। | |||
'''(3) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
हैं मुक्तामय-कारिणी अवनि की, हैं स्वर्ण-आभामयी। | |||
हैं कान्ता कुसुमालि की प्रिय सखी, है वीचियों की विभा। | |||
शोभा है अनुरंजिनी प्रकृति की क्रीड़ामयी कान्ति की। | |||
दूती हैं दिव की प्रभात-किरणें, हैं दिव्य देवांगना। | |||
'''घन-पटल''' | |||
'''( 1) गीत''' | |||
घिर-घिरकर नभ-मंडल में। | |||
हैं घूम-घूम घन आते। | |||
दिखता श्यामलता अपनी। | |||
हैं विपुल विमुग्ध बनाते॥1॥ | |||
ये द्रवणशील बन-बनकर। | |||
हैं दिव्य वारि बरसाते। | |||
पाकर इनको सब प्यासे। | |||
हैं अपनी प्यासे बुझाते॥2॥ | |||
इनमें जैसी करुणा है। | |||
किसमें वैसी दिखलाई। | |||
किसकी ऑंखों में ऐसी। | |||
ऑंसू की झड़ी लगाई॥3॥ | |||
देखे पसीजनेवाली। | |||
पर ऐसा कौन पसीजा। | |||
है कौन धूल में मिलता। | |||
औरों के लिए कहीं जा॥4॥ | |||
ऐसा सहृदय जगती में। | |||
है अन्य नहीं दिखलाया। | |||
घन ही पानी रखने को। | |||
पानी-पानी हो पाया॥5॥ | |||
सब काल पिघलते रहना। | |||
जो जलद को नहीं भाता। | |||
तब कौन सुधा बरसाकर। | |||
वसुधा को सरस बनाता ॥६॥ | |||
बहता न पयोद हृदय में। | |||
जो दया-वारि का सोता। | |||
तो कैसे मरु-महि सिंचती। | |||
क्यों ऊसर रसमय होता॥7॥ | |||
जो नहीं नील नीरद में। | |||
सच्ची शीतलता होती। | |||
किस तरह ताप निज तन का। | |||
तपती वसुंधरा खोती॥8॥ | |||
जो जीवन-दान न करता। | |||
क्यों नाम सुधाधर पाता। | |||
यदि परहित-निरत न होता। | |||
कैसे परजन्य कहाता॥9॥ | |||
वह सरस है सरस से भी। | |||
वह है रस का निर्माता। | |||
वह है जीवन का जीवन। | |||
घन है जग-जीवन-दाता॥10॥ | |||
'''(2) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
केले के दल को प्रदान करके बूँदें विभा-वाहिनी। | |||
सीपी का कमनीय अंक भरके, दे सिंधु को सिंधुता। | |||
शोभा-धाम बना लता-विटप को सद्वारि के बिन्दु से। | |||
आते हैं बन मुक्त व्योम-पथ में मुक्ता-भरे मेघ ये॥1॥ | |||
शृंगों से मिल मेरु में विचरते प्राय: झड़ी बाँधते। | |||
बागों में वन में विहार करते नाना दिखाते छटा। | |||
मोरों का मन मोहते, विलसते शोभामयी कुंज में। | |||
आते हैं घन घूमते घहरते पायोधि को घेरते॥2॥ | |||
कैसे तो सर अंक में विलसते, क्यों प्राप्त होती सरी। | |||
कैसे पादप-पुंज लाभ करती हो शस्य से श्यामला। | |||
कैसे तो मिलते प्रसून, लसती कैसे लता-बेलि से। | |||
जो पाती न धारा अधीर भव में धाराधरी-धारता॥3॥ | |||
कैसे तो लसती प्रशान्त रहती, क्यों दूर होती तृषा। | |||
कैसे पाकर जीव-जन्तु बनती श्यामायमाना मही। | |||
होते जो न पयोद, जो न उनमें होती महाआर्द्रता। | |||
रक्षा हो सकती न अन्य कर से तो चातकी वृत्ति की॥4॥ | |||
गाती है गुण, साथ सर्व सरि के सानंद सारी धरा। | |||
प्रेमी हैं जग-जीवमात्रा उसके, हैं चातकों से व्रती। | |||
क्यों पाता न पयोद मान भव में, होता यशस्वी न क्यों। | |||
है स्नेही उसका समीर, उसकी है दामिनी कामिनी॥5॥ | |||
मीठा है करता पयोद विधिक से वारीश के वारि को। | |||
देता है रस-सी सुवस्तु सबको, है सींचता सृष्टि को। | |||
नेत्रों का, असिताम्बरा अवनि का, काली कुहू रात्रि का। | |||
खोता है तम दामिनी-दमक की दे दिव्य दीपावली॥6॥ | |||
नीले, लाल, अश्वेत, पीत, उजले, ऊदे, हरे, बैंगनी। | |||
रंगों से रँग, सांध्य भानु-कर की सत्कान्ति से कान्त हो। | |||
नाना रूप धरे विहार करते हैं घूमते-झूमते। | |||
होगा कौन न मुग्ध देख नभ में ऐसे घनों की छटा॥7॥ | |||
हैं ऊँचे उठते, सुधा बरसते, हैं घेरते घूमते। | |||
बूँदों से भरते, फुहार बनते या हैं हवा बाँधते। | |||
दौरा हैं करते घिरे घहरते हैं रंग लाते नये। | |||
क्या-क्या हैं करते नहीं गगन में ये मेघ छाये हुए॥8॥ | |||
कैसे तो पुरहूत-चाप मिलता, क्यों दामिनी नाचती। | |||
क्यों खद्योत-समूह-से विलसती काली बनी यामिनी। | |||
होते जो न पयोद, गोद भरती कैसे हरी भूमि की। | |||
आभा-मंडित साड़ियाँ सतरँगी क्यों पैन्हतीं दिग्वधू॥9॥ | |||
मेघों को करते प्रसन्न खग हैं मीठा स्वगाना सुना। | |||
हैं नाना तरु-वृन्द प्रीति करते उत्फुल्लताएँ दिखा। | |||
आशा है अनुरागिनी जलद की, है प्रेमिका शर्वरी। | |||
सारी वीर-बहूटियाँ अवनि की रागात्मिका मूर्ति हैं॥10॥ | |||
'''गीत (3)''' | |||
जो तरस न आता कैसे। | |||
ऑंखों में ऑंसू भरता। | |||
वह क्यों बनता है नीरस। | |||
जो बरस सरस है करता॥1॥ | |||
चातक ने आकुल हो-हो। | |||
पी-पी कह बहुत पुकारा। | |||
पर गरज-तड़पकर घन ने। | |||
उसको पत्थर से मारा॥2॥ | |||
पौधा था एक फबीला। | |||
सुन्दर फल-फूलोंवाला। | |||
टूटी बिजली ने उसको। | |||
टुकड़े-टुकड़े कर डाला॥3॥ | |||
सब खेत लहलहाते थे। | |||
भू ने था समा दिखाया। | |||
वारिद ने ओले बरसा। | |||
मरु-भूतल उसे बनाया॥4॥ | |||
जब अधिक वृष्टि होती है। | |||
पुर ग्राम नगर हैं बहते। | |||
उस काल करोड़ों प्राणी। | |||
हैं महा यातना सहते॥5॥ | |||
जब चपला-असि चमकाकर। | |||
है महाघोर रव करता। | |||
तब कौन हृदय है जिसमें। | |||
घन नहीं भूरि भय भरता॥6॥ | |||
अवलोक क्रियाएँ उसकी। | |||
क्यों कहें जलद है कैसा। | |||
यदि माखन-सा कोमल है। | |||
तो है कठोर पवि-जैसा॥7॥ | |||
है विषम गरल गुणवाला। | |||
तो भी है सुधा पिलाता। | |||
घन उपल सृजन करता है। | |||
मुक्ता भी है बन जाता॥8॥ | |||
कोई न कहीं पर घन-सा। | |||
है तरल-हृदय दिखलाता। | |||
वह हो हिमपात-विधायक। | |||
पर है जग-जीवन-दाता॥9॥ | |||
है थकित-भ्रमित चित होता। | |||
कैसे रहस्य बतलायें। | |||
हैं चकित बनाती भव की। | |||
गुण-दोषमयी लीलाएँ॥10॥ | |||
'''(4) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
क्या सातों किरणें दिवाधिकपति की हैं दृश्यमाना हुईं। | |||
किम्वा वन्दनवार द्वार पर है बाँधी गयी स्वर्ग के। | |||
या हैं सुन्दर साड़ियाँ प्रकृति की आकाश में सूखती। | |||
किम्वा वारिद-अंक में विलसता है चाप स्वर्गेश का। | |||
'''सरस समीर''' | |||
'''( 1) गीत''' | |||
विकसित करता अरविन्द-वृन्द। | |||
बहता है ले मंजुल मरन्द। | |||
मानस को करता मोद-धाम। | |||
आता समीर है मन्द-मन्द॥1॥ | |||
है कभी बजाता मंजु वेणु। | |||
कीचक-छिद्रों में कर प्रवेश। | |||
है कभी सुनाता सरस गान। | |||
दे खग-कुल-कंठों को निदेश॥2॥ | |||
है कभी कँपाता जा समीप। | |||
विकसित लतिका का मृदुल गात। | |||
ले कभी कुसुम-कुल की सुगंध। | |||
वह बन जाता है मलय-वात॥3॥ | |||
ले-लेकर उज्ज्वल ओस-बिन्दु। | |||
जब वह करता है वर विहार। | |||
तब बरसाता है हो विमुग्ध। | |||
तरुदल-गत मुक्ता-मणि अपार॥4॥ | |||
वह करता है कमनीय केलि। | |||
आ-आकर सुमन-समूह पास। | |||
बहु घूम-घूम मुख चूम-चूम। | |||
कलियों को वितरण कर विकास॥5॥ | |||
बहु लोभनीय लीला-निकेत। | |||
सरि-लहरों को कर अधिक लोल। | |||
भरता है उनमें लय ललाम। | |||
कर-कर कल कलरव से कलोल॥6॥ | |||
पाकर विस्तृत तृण-राजि ओक। | |||
वह जब जाता है पंथ भूल। | |||
तब उड़ता है बन परम कान्त। | |||
वन-भूमि-बधूटी का दुकूल॥7॥ | |||
मिल अलिमाला से प्रेम-साथ। | |||
तितली से करता है विनोद। | |||
बनती है उससे सुमनवान। | |||
छाया की बहु छबिमयी गोद॥8॥ | |||
करके कितने आवरण दूर। | |||
निज मंजुल गति का बढ़ा मोल। | |||
दिखलाता है बहु दिव्य दृश्य। | |||
वह हटा प्रकृति-मुख का निचोल॥9॥ | |||
वह फिरता है बन सुधा-सिक्त। | |||
सब ओर सरस सौरभ पसार। | |||
वनदेवी को दे परम दिव्य। | |||
विकसित कुसुमों का कण्ठहार॥10॥ | |||
'''(2) वंशस्थ''' | |||
विभूति-आवास अनन्त-अंक का। | |||
विकास है व्यापक तेज-पुंज का। | |||
विधान है जीवन-भूत वारि का। | |||
समीर है प्राण धरा-शरीर का॥1॥ | |||
सदा रही चित्त विराम-दायिनी। | |||
विनोदिनी सर्व वसुंधरांक की। | |||
सुगंधिकता है करती दिगन्त को। | |||
विमोहिनी धीरे समीर धीरता॥2॥ | |||
'''रजनी सुन्दरी''' | |||
'''(1) गीत''' | |||
घूँघट से बदन छिपाये। | |||
काले कपड़ों को पहने। | |||
आती है रजनी तन पर। | |||
धारण कर उडुगण गहने॥1॥ | |||
पाकर मयंक-सा प्रियतम। | |||
सहचरी चाँदनी ऐसी। | |||
वह कभी विलस पाती है। | |||
सुरलोक सुन्दरी जैसी॥2॥ | |||
पर कभी पड़ा मिलता है। | |||
उस पर वह परदा काला। | |||
जिसको माना जाता है। | |||
भव अंधा-भूत अंधियाला॥3॥ | |||
नव राग-रंजिता सन्धया। | |||
तारक-चय-मण्डित नभ-तल। | |||
बहु लोक विपुल आलोकित। | |||
हैं रजनी-सुख के सम्बल॥4॥ | |||
कमनीय अंक में उसके। | |||
जन-कोलाहल सोता है। | |||
भव कार्य बहुलता का श्रम। | |||
उसका विराम खोता है॥5॥ | |||
जो शान्ति-दायिनी निद्रा। | |||
जन श्रान्ति क्लान्ति हरती है। | |||
तो शिथिल रगों में बिजली। | |||
रजनी-बल से भरती है॥6॥ | |||
पा अर्ध्दरात्रि-नीरवता। | |||
जब त्याग सचलता सारी। | |||
सब जगत पड़ा सोता है। | |||
अवलोक प्रकृति-गति न्यारी॥7॥ | |||
चल दबे पाँव से मारुत। | |||
जब है ऊँघता दिखाता। | |||
जब पादप का पत्ता भी। | |||
हिल-डोल नहीं है पाता॥8॥ | |||
उस काल निबिड़ता तम की। | |||
वह चादर है बन जाती। | |||
जिससे जगती तन ढँक कर। | |||
सुख अनुभव है कर पाती॥9॥ | |||
रजनी-उर हित की लहरें। | |||
जब हैं रस-वाष्प उठाती। | |||
तब ओस-बूँद बन-बनकर। | |||
मोती-सा हैं बरसाती॥10॥ | |||
यामिनी मिले सन्नाटा। | |||
जब साँय-साँय करती है। | |||
उस काल वसुमती सुख के। | |||
साधन का दम भरती है॥11॥ | |||
वह प्रति दिन उन पापों पर। | |||
परदे डाला करती है। | |||
अवलोक विकटता जिनकी। | |||
कम्पित होती धरती है॥12॥ | |||
खंबों पर विलसित बिजली। | |||
क्यों तारक-चय मद खोती। | |||
क्यों अगणित दीपक बलते। | |||
जो नहीं यामिनी होती॥13॥ | |||
तम-भरित सकल ओकों में। | |||
अनुभूत ज्योति भरती है। | |||
श्रम-भंजन कर जन-जन का। | |||
रजनी रंजन करती है॥14॥ | |||
'''(2) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
है लीला करती, ललाम बनती, है मुग्ध होती महा। | |||
है उल्लास-विलास से विलसती, पीती सुधा सर्वदा। | |||
होके हासमयी विकास भरती, है मोहती विश्व को। | |||
पा राकेश-समान कान्त मुदिता राका निशा सुन्दरी। | |||
'''वंशस्थ''' | |||
असंख्य में से उडु एक भी जिसे। | |||
कभी नहीं कान्तिमयी बना सका। | |||
अभागिनी भीति-भरी तमोमयी। | |||
कहाँ मिली अन्यतमा अमा समा। | |||
'''(3) गीत''' | |||
हैं सरस ओस की बूँदें। | |||
या हैं ये मंजुल मोती। | |||
या ढाल-ढालकर ऑंसू। | |||
प्रति दिन रजनी है रोती॥1॥ | |||
क्यों ओस कलेजा पिघला। | |||
वह क्यों बूँदें बन पाई। | |||
किसलिए दया-परवश हो। | |||
वह द्रवीभूत दिखलाई॥2॥ | |||
अवलोक अंधेरा जग में। | |||
क्या रवि-वियोगिनी-छाया। | |||
है घूम-घूमकर रोती। | |||
इतना जी है भर आया॥3॥ | |||
हो विकल कालिमाओं से। | |||
रजनी है अश्रु बहाती। | |||
या विविध तामसिक बातें। | |||
उसको हैं अधिक रुलाती॥4॥ | |||
अथवा विधु-से वल्लभ को। | |||
क्षय-रुज-कवलित अवलोके। | |||
है रुदन-रता वह अबतक। | |||
ऑंसू रुक सके न रोके॥5॥ | |||
अथवा अतीत गौरव की। | |||
कर याद व्यथा रोती है। | |||
अपनी अन्तर-ज्वालाएँ। | |||
दृग-जल-बल से खोती है॥6॥ | |||
या प्रकृति-स्नेह की धारा। | |||
जल की बूँदें बन-बनकर। | |||
तरुदल को सींच रही हैं। | |||
कर लता-बेलियों को तर॥7॥ | |||
या ता तरल-हृदय बन। | |||
हो दया से द्रवित भू पर। | |||
बरसाते हैं नित मोती। | |||
कमनीय करों में भरकर॥8॥ | |||
अवलोक तपन को आते। | |||
सहृदयता दिखलाती है। | |||
या सरस ओस अवनी पर। | |||
सित सुधा छिड़क जाती है॥9॥ | |||
या रवि कोमल किरणों को। | |||
अवलोक धारा पर आती। | |||
तरुदल-थालों में भर-भर। | |||
मोती है ओस लुटाती॥10॥ | |||
'''(4) शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
हो नाना खग-वृन्द-नाद-मुखरा प्रात:प्रभा-पूरिता। | |||
हो के पुण्य विकास से विकसिता सद्गंधा से गंधिकता। | |||
ऊषा से बन रंजिता विलसिता हो शोभिता अंशु से। | |||
होती है महि कान्त ओस-कर से पा मंजु मुक्तावली॥1॥ | |||
है प्राची प्रिय लालिमा सहचरी सिन्दूर-आरंजिता। | |||
सोने-सी कमनीय कान्ति-जननी है दिव्यता भानु की। | |||
है आलोक-प्रसू प्रभात-सुषमा है मण्डिता दिग्वधू। | |||
ऊषा है अनुराग-राग-निरता, है ओस मुक्तामयी॥2॥ | |||
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08:55, 17 फ़रवरी 2021 का अवतरण
पारिजात | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पारिजात (बहुविकल्पी) |
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दृश्य जगत् |
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