"धौलावीरा": अवतरणों में अंतर
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10:47, 25 सितम्बर 2010 का अवतरण
हड़प्पा सभ्यता‘ के पुरास्थलों में एक नवीन कड़ी के रूप में जुड़ने वाला पुरास्थल धौलावीरा 'कच्छ के रण' के मध्य स्थित द्वीप 'खडीर' में स्थित है। इस द्वीप के समीप ही 'सुर्खाव'- शहर स्थित है। धौलावीर गांव 'खडीर द्वीप' की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर बसा है। धौलावीरा पुरास्थल की खुदाई में मिले अवशेषों का प्रसार 'मनहर' एवं 'मानसर' नामक नालों के बीच में हुआ था। धौलावीरा नामक हड़प्पाई संस्कृति वाले इस नगर की योजना समानांतर चतुर्भुज के रूप में की गयी थी। इस नगर की लम्बाई पूरब से पश्चिम की ओर है। नगर के चारों तरफ एक मजबूत दीवार के निर्माण के साक्ष्य मिले हैं। नगर के महाप्रसाद वाले भाग के उत्तर में एक विस्तृत सम्पूर्ण एवं व्यापक समतल मैदान के अवशेष मिले हैं। इसके उत्तर में नगर का मध्यम भाग है जिसे 'पुर' की संज्ञा दी गयी थी। इसके पूर्व में नगर का तीसरा महत्वपूर्ण भाग स्थित है जिसे 'निचला शहर' या फिर 'अवम नगर' कहा जाता है
धौलावीरा सभ्यता की यात्रा
धौलावीरा की सांस्कृतिक यात्रा अनेक अवस्थाओं से गुजरती हुई एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ी थी। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि धौलावीरा सभ्यता की यात्रा करीब 1000 वर्षो की थी।
सभ्यता की प्रथम अवस्था
धौलावीरा सभ्यता की प्रथम अवस्था से यह आभास मिलता है कि यहां पर बसने वाले लोग अपने साथ एक पूर्ण विकसित सभ्यता लेकर आये थे। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि यहां पर बसने वाले लोग सम्भवतः सिंध और बलूचिस्तान से आये थे। सभ्यता के प्रथम चरण के निवासी मिट्टी के बर्तन बनाने, तांबे शोधने, पत्थर तराशने, उपरत्नों, सेलखड़ी, शंख आदि के मनके बनाये। इस सभ्यता के लोगों ने निश्चित माप के सांचों में ढली मिट्टी की ईटों का प्रयोग किया। ईटों के साथ-साथ सीमित मात्रा में पत्थरों के उपयोग के भी साक्ष्य मिले हैं। आयताकार आकार में निर्मित यहां की बस्ती के चारों ओर 11 मीटर मोटी ईटों की प्राचीर निर्मित थी।
सभ्यता का दूसरा चरण
सभ्यता के दूसरे चरण में 'दुर्ग प्राचीर' की अन्दर की ओर 3 मीटर चौड़ाई बढ़ा दी गयी। प्राचीर का निर्माण कच्ची ईटों से हुआ था। दीवार के अन्दर वाले भाग में सफेद, गुलाबी, गहरा गुलाबी रंग की मिट्टी की लगभग 13 परतों का लेप चढ़ाया गया है। ऐसी ही मिट्टी का प्रयोग भवन के अन्दर और बाहर की दीवारों पर पलस्तर के लिए किया गया हैं
सभ्यता का तीसरा चरण
सभ्यता का तीसरा चरण भी 'दुर्ग की प्राचीर' को मजबूती प्रदान करने के लिए अन्दर की ओर दीवार को करीब साढ़े चार मीटर चौड़ी करने के साथ ही प्रारम्भ हुआ। इस चरण में विकसित हड़प्पीय नगर सभ्यता का विकासशील स्वरूप सामने आया। सभ्यता के इस चरण में उत्तर की ओर सभ्यता के द्वितीय चरण में निर्मित बस्तियों को उजाड़ कर एक मैदान का निर्माण किया गया। मैदान के उत्तर की तरफ जनसामान्य के लिए योजना अनुसार शहर का निर्माण किया गया। नगर के चारों ओर 'रक्षा प्राचीर' एवं 'प्रासाद' की चारों दीवारों के मध्य भाग में चार प्रवेश द्वारों का निर्माण किया गया। नवीन निर्मित नगर के दोनो भागों के मध्य भागों के मध्य खुले मैदान को ‘रंगमहल‘ की संज्ञा दी गयी। सम्भवतः मैदान का प्रयोग सार्वजनिक एवं सामूहित उत्सवों में किया जाता था।
हड़प्पा संस्कृति का विकास
सभ्यता का तीसरा चरण लगभग 300 वर्षो तक जीवित रहा । ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस सभ्यता की अंतिम अर्धशती में सम्भवतः यह नगर किसी भयंकर भूकम्प जैसे विनाशकारी प्रकोप की चपेट में आ गया था, जिसके कारण नगर के कई जगह ध्वस्त हो गये, पर आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के कारण इस सभ्यता के लोगों ने अतिशीघ्र नगर का पु्नर्निर्माण कर लिया। तीसरे भाग के प्रकाश में आने के उपरान्त पुराने शहर को 'मध्यमनगर' एवं नये जुड़े भाग को 'अवम' नाम दिया। सभ्यता के तीसरे चरण में 'चित्रालंकरण वाले मृदभांड' प्रयोग किये गये जो शुद्ध रूप से हड़प्पा सभ्यता से सम्बन्धित थे। हड़प्पा सभ्यता से सम्बन्धित मुद्रायें एवं घनाकार 'तौलने के बाट' भी पहली बार यहां पर प्रकाश में आये। बर्तन के एक टुकड़े पर हड़प्पा लिपि के भी संकेत मिलते हैं। धौलावीरा की संस्कृति के इस चरण में निःसंदेह हड़प्पा संस्कृति का विकासोन्मुख रूप पहली बार स्पष्ट रूप से इस उपमहाद्वीप में प्रकाश में आया।
सभ्यता का चौथा चरण
धौलवीरा की बहुआयामी समृद्ध सभ्यता अपने पूरे वैभव में सभ्यता के चौथे चरण में प्रचुर मात्रा मिली हैं, जैसे कलात्मक मृदभांड, विशिष्ट कलात्मक मुद्रायें, तौल के बाट, लिपिगत लेख, शंख, फियांस, तांबे व मिट्टी की चूड़ियां, उपरत्नों, सेलखड़ी, तांबे, सोने और पक्की मिट्टी के मनके, शंख के बने विविध आभूषण, सोने के छल्ले, मिट्टी की गाड़ियां, बैल व अन्य खिलौने, कुछ विशिष्ट शैली में निर्मित मृण्मयी मानवाकृतियां आदि, पर सभ्यता के इस चरण में प्राप्त बहुतायत कलाकृतियां हड़प्पा एवं मोहनजोदाड़ो से भिन्न हैं।
- चूना पत्थर से निर्मित स्थापत्य नमूनों के कुछ अवशेषों जिनमें पीली व बैंगनी रंग की धारियां निर्मित हैं धौलावीरा की महत्वपूर्ण उपलब्धियों मे से हैं।
सभ्यता की पांचवी अवस्था
सभ्यता की पांचवी अवस्था में धौलावीरा की पूर्ण रूप से विकसित 'हड़प्पा की सभ्यता' में पतन के लक्षण दिखाई देने लगे। सर्वप्रथम नगर आयोजन एवं स्थापत्य के क्षेत्र में गिरावट के लक्षण दिखे। सम्भवतः इस गिरावट का महत्वपूर्ण कारण 'प्रशासनिक अव्यवस्था' था।
सभ्यता का पतन
इस सभ्यता के पतन का सर्वाधिक बुरा प्रभाव तत्कालीन महाप्रसादों पर पड़ा जो सम्भ्वतः शक्ति के एक बड़े केन्द्र के रूप में इस्तेमाल किये जाते थे। ऐसा भी अनुमान लगाया जाता है कि शायद सभ्यता के पांचवे चरण में सम्पन्न वणिक व शिल्पी समूह के परिवार बेहतर अवसर की तलाश में नगर छोड़ बाहर जाने लगे। सम्भवतः 'धौलावीरा की संस्कृति के पतन' का समय 2,200 ई.पू. से 2000 ई.पू. तक रहा होगा।
कुछ समय पश्चात धौलावीरा के टीलों पर उत्तर हड़प्पाकालीन लोगों ने अपनी बस्ती बसाई। यहां से मिली मुहरों के स्वरूप में अपने पूर्ववर्ती नगरों से प्राप्त मुहरों की अपेक्षा कुछ परिवर्तन दिखायी देता है। ये मुहरें आकार में छोटी एवं चित्रांकन हीन मिली हैं, पर इन पर सुन्दर 'लिपि चिन्ह' खुदे मिले हैं। यहां से प्राप्त बाटों में अधिकांशत: संख्या ऐसे बाटों की है जिन्हे ठीक से घिस कर बनाया गया। 'कुंभ कला' के अन्तर्गत प्राप्त पतले, सुदर चमकीले बर्तन मिले है जो दक्षिणी राजस्थान की 'अहाड' या 'बनास संस्कृति' से सम्बन्धित हैं। यहां प्राप्त कुछ बर्तन 'झूकड़शैली' के भी हैं। धौलावीरा के अतिरिक्त इसके समकालीन सूरकोटदा एवं 'देशलपुर' से भी हड़प्पाकालीन लेख युक्त मुहरें प्राप्त हुई हैं, अन्यत्र किसी पुरास्थल से इस तरह की मुहरें नहीं मिली हैं।
सभ्यता का छठा चरण
सभ्यता के छठे चरण में भी कुछ परिवर्तन के साक्ष्य मिले हैं। जैसे इस समय निर्माण कार्य में प्रयुक्त की जाने वाली ईटों का कोई नाप नहीं होता था। इस समय के बने मकान सीधे प्रकार से सटाकर बनाये जाते थे। मकानों के बीच गलियां भी पूर्णतः नये आयोजन के अनुसार बनाई गयी, इस समय के निर्मित मकानों मे हड़प्पाकालीन मकानों से निकाले गये पत्थरों का उपयोग किया गया। सम्भवतः इस समय बने मकानों की ऊंचाई कम एवं छतें लकड़ी, टहनी एवं घास-फूस से बनाई जाती थी। शंख एवं उपरत्नों के आभूषण शायद इस समय व्यापक स्तर पर निर्मित किये जाते थे। अनुमानतः 'धौलावीरा की हड़प्पा संस्कृति' का छठा चरण सौ वर्ष तक जीवित रहा।
सभ्यता का सातवां एवं अन्तिम चरण
सभ्यता के सातवें एवं अन्तिम चरण में लोग आयताकार मकानों में रहने की अपेक्षा वृत्ताकार मकानों को पसंद करने लगे। 'बुंगा' या 'कुंभा' कहे जाने वाले ये मकान लकड़ी एवं घास-फूस के बनाये गये थे। दीवार को पत्थर से बनाया गया था। शायद दो से ढाई फीट पत्थर के ऊपर लकड़ी का गोलाकार ढांचा खड़ा कर इसके ऊपर 'कुल्लेदार गोल छत' बनाई जाती थी। इस तरह क़रीब 1,000 वर्ष तक जीवित रहने वाली यह सभ्यता उजड़ने के बाद पुनः नही बस सकी।
धौलावीरा के प्रथम एवं द्वितीय चरण का 'आम्री' के द्वितीय काल के द्वितीय उपकाल, 'नौशेरों' के प्रथम काल के उत्त्तरार्द्ध से समीकरण स्थापित किया जा सकता है। धौलावीरा के तीसरे चरण का समीकरण 'आम्री' के तृतीय काल के प्रथम उपकाल, 'नौशेरों' के द्वितीय काल एवं मोहनजोदाड़ो के उन स्तरों से, जिनका उत्खनन 1958 में ह्वीलर के नेतृत्व में किया गया, से किया जाता है।
अपने सातवे चरण में धौलावीरा नगर सभ्यता से ग्रामीण सभ्यता में परिवर्तित हो गयी। धौलावीरा नगर का पूर्व से पश्चिम का विस्तार 771 मीटर एवं उत्तर से दक्षिण का विस्तार लगभग 616.80 मीटर है, प्रासाद के अन्दर पूर्व से पश्चिम में विस्तार औसतन 114 मीटर एवं उत्तर से दक्षिण से लगभग 92.50 मीटर है। धौलावीरा भारत में स्थित सबसे बड़ा 'हडप्पा स्थल' है। सम्पूर्ण सिन्धु सभ्यता के स्थलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से 'धौलावीरा' का स्थान 'पांचवां' है।
प्रासाद योजना
- प्रासाद का उत्तरी प्रवेश द्वार लगभग 16x12 मीटर नाप का है, जाने के लिए 79 मीटर लम्बा एवं 9 मीटर चौड़ा रास्ता बनाया गया है, जो ऊपर जाते-जाते 12 मीटर चौड़ा हो जाता है।
- नगर के 'मध्यम' व 'अवम' भाग में समकोण पर काटते रास्ते आवासीय खंडों को कई भागों में विभाजित करते हैं।
- यहां से प्राप्त मकानों के अन्दर अनेक कमरे, रसोईघर, स्नानगृह एवं एक प्रांगण मिले हैं।
- गंदा पानी नालियों के माध्यम से बहकर सड़क पर रखे गये मटकों में इकट्ठा होता था।
- यहां से मिले कब्रे भी कुछ कम अनोखी नही हैं। अधिकांश कब्रें आयताकार आकार में उत्तर से दक्षिण एवं पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर मिली हैं।
- पत्थर की अधिकता के कारण यहां की कब्रों के चारों तरफ विशाल शिलायें लगी मिली हैं, अब तक यहां से करीब विभिन्न तरह की कब्रें मिली हैं जिनमें एक से भी नर-कंकाल नहीं मिले है जो पुरातात्विक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण जानकारी है।
- यहां से प्राप्त एक कब्र में रखे गये मृदभांड के अन्दर से कुछ राख व कोयले के छोटे-छोटे टुकड़े मिले हैं जिनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि सम्भवतः 'अग्नि संस्कार' के बाद बचे हुए अंश को कब्र में रखा जाता था।
- यहां से अनेक प्रकार की कब्रों के अवशेषों से यह संकेत मिलता है कि शायद यहां पर निवास करने वाले विभिन्न परम्पराओं को मानने वाले एवं अनेक धार्मिक सम्प्रदायों के लोग थे।
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