"महुआ डाबर": अवतरणों में अंतर
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जुनूनी लतीफ को यूं ही डिस्कवरी मैन नहीं कहा जाता है । 1857 में अंग्रेजों के जुल्म के शिकार महुआ डाबर की खोज में लतीफ को 12 साल से लग गए । इन बारह सालों में लतीफ को बस्ती, गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली और मुम्बई के बीच करीब 80 हजार किमी की यात्रा भी करनी पड़ी। तब जाकर महुआ डाबर को इतिहास में दर्ज कराया । इस काम के शुरू मे लतीफ़ बिलकुल अकेले थे । धीरे-धीरे लोग उनके साथ खड़े होने लगे कुछ ने तो कुछ कदम चलकर ही साथ छोड़ दिया और कुछ साथ साथ चले भी! लतीफ़ ने साक्ष्य जुटाए और सरकार को मानने पर मजबूर कर दिया कि यह वही महुआ डाबर है जिसने प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल 1857 में यहां भी प्रज्ज्वलित की थी । इसके लिए लतीफ़ ने राष्ट्रपति तक को पत्र लिखा । महुआ डाबर के इतिहास की तलाश की पहली कड़ी खुदाई थी । | जुनूनी लतीफ को यूं ही डिस्कवरी मैन नहीं कहा जाता है । 1857 में अंग्रेजों के जुल्म के शिकार महुआ डाबर की खोज में लतीफ को 12 साल से लग गए । इन बारह सालों में लतीफ को बस्ती, गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली और मुम्बई के बीच करीब 80 हजार किमी की यात्रा भी करनी पड़ी। तब जाकर महुआ डाबर को इतिहास में दर्ज कराया । इस काम के शुरू मे लतीफ़ बिलकुल अकेले थे । धीरे-धीरे लोग उनके साथ खड़े होने लगे कुछ ने तो कुछ कदम चलकर ही साथ छोड़ दिया और कुछ साथ साथ चले भी! लतीफ़ ने साक्ष्य जुटाए और सरकार को मानने पर मजबूर कर दिया कि यह वही महुआ डाबर है जिसने प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल 1857 में यहां भी प्रज्ज्वलित की थी । इसके लिए लतीफ़ ने राष्ट्रपति तक को पत्र लिखा । महुआ डाबर के इतिहास की तलाश की पहली कड़ी खुदाई थी । | ||
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*[http://www.india-forum.com/forums/index.php?/topic/334-first-war-of-independence-1857/page__st__150 महुआ डाबर गांव में 10 अंग्रेज अफसरों की हत्या] | *[http://www.india-forum.com/forums/index.php?/topic/334-first-war-of-independence-1857/page__st__150 महुआ डाबर गांव में 10 अंग्रेज अफसरों की हत्या] | ||
*[http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_5684997.html बस्ती में 1857 से पहले ही सुलग उठी थी आजादी की मशाल] | *[http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_5684997.html बस्ती में 1857 से पहले ही सुलग उठी थी आजादी की मशाल] | ||
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13:11, 30 अक्टूबर 2010 का अवतरण
इतिहास
महुआ डाबर गांव सन् 1857 ई. तक भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बस्ती जिला के बहादुरपुर ब्लॉक में मनोरमा नदी के तट पर मौजूद एक ऐतिहासिक गांव था । अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हिंदुस्तानियों की 1857 की क्रांति में यह गांव स्वतंत्रता संग्राम में इतिहास रचते हुए 10 जून 1857 को यहां के ग्रामीणों ने फैजाबाद से दानापुर बिहार के लिए गांव से गुजर रहे ब्रिटिश फौज के सात अफसरों में लेफ्टिनेंट लिण्डसे, लेफ्टिनेंट थामस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट काकल व सार्जेन्ट बुशर को घेरा । सातों को हत्या की नीयत से जमकर मारा। इस घटना में छह अंग्रेज अफसर तो मर गए मगर सार्जेन्ट बुशर किसी तरह जान बचाकर निकल गया । वह सीधा अपने कैम्प पहुंचा और स्थिति से अवगत कराया। 6 अंग्रेजी फौजियों के क़त्ल के बाद अंग्रेजी हुकूमत इसे लेकर गंभीर हुई। इतिहास में दर्ज है, कि तब पटना से लेकर लखनऊ तक केवल छह सौ अंग्रेजी फौज थी । और छह अंग्रेज फौज के अफसरों की मौत से उस वक़्त ब्रितानियां हुकूमत की चूले हिल गई थी कि कहीं इसकी आग पूरे देश में न भड़क जाए । अंग्रेजों ने इसको दबाने का बंदोबस्त किया । घटना से आग बबूला हुई अंगे्रजी हुकूमत ने इस गांव को नेस्तनाबूद कर देने का फरमान जारी कर दिया । 20 जून 1857 को बस्ती के डिप्टी मैजिस्ट्रेट विलियम्स पेपे ने तब हथकरघा उद्योग का केंद्र रहे लगभग 5000 की आबादी वाले महुआडाबर को घुड़सवार सैनिकों से चारों तरफ से घिरवाकर आग लगवा दी थी । मकानों, मस्जिदों और हथकरघा केंद्रों को जमींदोज करवा दिया था । और उस जगह पर एक बोर्ड लगवा दिया जिसपर लिखा था 'गैर चिरागी' मतलब 'इस जगह पर कभी चिराग नहीं जलेगा' । इस घटना में सैकड़ों की बलि चढ़ गई कितनी माओ की गोदे सूनी हो गयी कितनो का सुहाग उजड़ गया कितने बच्चे यतीम हो गए । यह सब कुछ ब्रितानियां हुकूमत ने चुपचाप किया । गांव को आग में झोंकने वाले अंग्रेजी अफसर जनरल विलियम पे.पे. को इसके लिए सम्मानित किया गया, मगर सब कुछ केवल इतिहास के पन्नों में था । अंग्रेजी हुकूमत ने इतना ही नहीं किया । गांव का अस्तित्व मिटाने के लिए देश के नक्शे, सरकारी रिपोर्ट व गजेटियर से उसका नाम ही मिटा डाला। बल्कि अपनी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए उस स्थान से 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोण्डा सीमा पर गौर ब्लाक में बभनान के पास महुआडाबर नाम से एक नया गांव बसा दिया, जो अब भी आबाद है । सिर्फ इतना ही नहीं बस्ती के लोग भी इस महुआडाबर को भूल गए । मगर कलवारी थाना के पन्नों में ब्रिटिश शासन ने यह जरूर दर्ज किया कि इस गांव को दुबारा बसने न दिया जाए। गांव के अधिकतर लोग मारे गए और जो बचे वे अपनी जान बचाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर गुजरात के अहमदाबाद, बड़ौदा और महाराष्ट्र के मालेगांव में जा बसे ।
खोज
ऐतिहासिक महुआडाबर गांव की खोज मुंबई से आए डिस्कवरी मैन मोहम्मद अब्दुल लतीफ अन्सारी ने की है । अपने पुरखों के गांव 'महुआडाबर' को न सिर्फ खोज निकाला है, बल्कि अब उसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान दिलवाने में लग गए हैं। 1857 में गांव जलने के बाद उसी समय लतीफ के पूर्वज महुआडाबर गांव छोड़कर मुंबई मे बस गये थे । महुआ डाबर छोड़ दूर बसने के बाद वहा के लोगो ने कभी वहा जाने और उसे जानने की कोशिश तक नहीं किया लेकिन उन्ही में एक लतीफ़ अंसारी अपने बाप दादा से सुने किस्से जेहन में लिए जब वे 8 फरवरी 1994 को अपने पुरखों के गांव की तलाश में बस्ती के बहादुरपुर विकास खंड में पहुंचे, तो उस जगह पर मटर, अरहर और गेहूं की फसलों के बीच जली हुई दो मस्जिदों के अवशेष भर दिखाई दिए । बहुत मशक्कत से गांव का नक्शा हासिल किया । बहादुरपुर से दो किमी पूरब दक्षिण की ओर एक टीला, ढहे घरों के मलबे और जले हुए खंडहर इसकी गवाही दे रहे हैं । मगर इस ऐतिहासिक गांव को सरकारी रिपोर्ट, इतिहास की किताबों, गजेटियर और नक्शों में गौर ब्लाक में बभनान के पास दिखाया गया था । फिर यहीं से शुरू हुई जुनूनी मोहम्मद लतीफ के संघर्ष की कहानी । करीब आधा दर्जन से अधिक शहरों की लाइब्रेरियों की खाक छानने और बड़े-बड़े इतिहासकारों से मिलने के बाद इकट्ठा किए गए तमाम सबूत जिसमे कलवारी थाना के पन्नों में ब्रिटिश शासन ने यह जरूर दर्ज किया कि इस गांव को दुबारा बसने न दिया जाए । तत्कालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों में अब भी मौजूद अंग्रेज अफसर सार्जेन्ट बुशर का वह पत्र जिसमें महुआ डाबर गांव का उल्लेख घाघरा नदी के किनारे किया गया था । 1907 के बस्ती गजेटियर के 32वें भाग के पेज नंबर 158 पर गांव में 6 अफसरों के मार गिराने के तथ्य मिले । इसी को आधार बनाकर लतीफ ने 1857 से जुड़े तथ्यों की खोज शुरू कर दी । लंबे जद्दोजहद के बाद 1860 में ब्रिटिश लेखक चार्ल्सबाल की लिखित द हिस्ट्री आफ इंडियन म्यूटनी के पेंज नंबर 398-401, 1878 में लिखी कर्नल जीबी मालेसन की पुस्तक 400-401 सहित कई इतिहासकारो की पुस्तकों में कई तथ्य मिले । ये सभी तथ्य उनके पूर्वजों की बातों से मेल खाते थे ।
खुदाई
ये सभी सबूतों को डिस्कवरी मैन लतीफ ने तत्कालीन बस्ती के डीएम रमेन्द्र त्रिपाठी के सामने रखा। डीएम ने मोहम्मद लतीफ अंसारी की मद्द के लिए एपीएन पीजी कालेज के प्राचार्य डॉ. बीपी सिंह, डॉ. जेपीएन त्रिपाठी की दो सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति ने महुआडाबर का निरीक्षण और तमाम सबूतों को देखकर अपनी रिपोर्ट दी । लिखा है कि 1857 का महुआडाबर बहादुरपुर ब्लाक के पास स्थित है । समिति की इस रिपोर्ट पर डीएम रमेन्द्र कुमार ने अपनी गुहार लगा दी । साथ ही लिखा कि यहां खुदाई की जाए ताकि सच्चाई सामने आ सके । समिति और डीएम की रिपोर्ट की बुनियाद पर खुदाई के लिए लतीफ ने लखनऊ विश्वविद्यालय और नई दिल्ली के पुरतत्व विभाग से सम्पर्क किया था । केन्द्र सरकार ने महुआ डाबर की खुदाई की मंजूरी दे दी था । इसके लिए बाकायदा लाइसेंस भी जारी कर दिया गया था। 11 जून 2010 को खुदाई के लिए जिलाधिकारी को पत्र भेजा गया था । प्रशासनिक संस्तुति के बाद पुरातत्व विभाग लखनऊ विश्र्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर अनिल कुमार के नेतृत्व में तीन सदस्यीय टीम ने गांव में डेरा डाल दिया था । तीन दिनों तक अध्ययन किया और सोमवार से गांव की खुदाई शुरू करा दी । यह खुदाई पन्द्रह दिनों यानी 30 जून तक चला था । खुदाई में यहाँ टीम को कुआं, लाखौरी ईंट से बनी दीवारें, विभिन्न दिशाओं में निकली नालियां, छज्जा, लकड़ी के जले टुकड़े, राख, मिट्टी के बर्तन इस बात की गवाही दे रहे हैं। यहीं नहीं खुदाई के दौरान अभ्रक (माइका) मिला है । पुरातत्व विभाग की टीम के अगुवा डा.अनिल ने स्वीकार किया है कि कुछ साक्ष्य ऐसे ज़रूर है जो 1857 की ऐतिहासिकता को साबित करते है ।
खुदाई के बाद प्रेसवार्ता में इस दौरान अरबन बैंक के चेयरमैन जगदीश्वर सिंह ओमजी, विनय कुमार सिंह, राजवंत सिंह आदि उपस्थित हुए थे । महुआडाबर की खोज में पागलों की तरह भटकना । कई दिनों तक भूखे पेट रहना । जेब में फूटी कौड़ी न होने के बावजूद पैदल ही मिलों मील सफर तय करने वाले मोहम्मद लतीफ अंसारी इतिहास के करीब तक पहुंच ही गए । प्रेसवार्ता में मददगारों का नाम लेते समय उनकी आंखें डबडबा गईं । वैसे तो उनके मददगार कई हैं, मगर सबसे अधिक सपोर्ट किया ओमजी ने। हालांकि लतीफ की बातें काटकर चेयरमैन बीच में ही बोल पड़े, लतीफ यह मामला इतिहास से है । ऐसे में मदद करके मैंने कोई एहसान नहीं किया ।
जुनूनी लतीफ को यूं ही डिस्कवरी मैन नहीं कहा जाता है । 1857 में अंग्रेजों के जुल्म के शिकार महुआ डाबर की खोज में लतीफ को 12 साल से लग गए । इन बारह सालों में लतीफ को बस्ती, गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली और मुम्बई के बीच करीब 80 हजार किमी की यात्रा भी करनी पड़ी। तब जाकर महुआ डाबर को इतिहास में दर्ज कराया । इस काम के शुरू मे लतीफ़ बिलकुल अकेले थे । धीरे-धीरे लोग उनके साथ खड़े होने लगे कुछ ने तो कुछ कदम चलकर ही साथ छोड़ दिया और कुछ साथ साथ चले भी! लतीफ़ ने साक्ष्य जुटाए और सरकार को मानने पर मजबूर कर दिया कि यह वही महुआ डाबर है जिसने प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की मशाल 1857 में यहां भी प्रज्ज्वलित की थी । इसके लिए लतीफ़ ने राष्ट्रपति तक को पत्र लिखा । महुआ डाबर के इतिहास की तलाश की पहली कड़ी खुदाई थी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- हिन्दी
- महुआ डाबर
- महुआडाबर गांव की होगी खुदाई
- एक था महुआडाबर
- बस्ती जिले के महुआ डाबर गांव में पुरातात्विक टीम
- महुआ डाबर गांव की खुदाई को मिली मंजूरी
- महुआ डाबर गांव में 10 अंग्रेज अफसरों की हत्या
- बस्ती में 1857 से पहले ही सुलग उठी थी आजादी की मशाल
- अंग्रेजी
- DISCOVERY OF MAHUA DABAR (BAHADURPUR BLOCK, BASTI)
- Search for mutiny city - Mahua Dabar
- Mahua-Dabar-Basti-Utter-Pradesh
- MAHUA DABAR and the Destroyed Villages of BHARAT
- 1857 British Raj atrocity exposed
- Unearthing a Gory History - MAHUA DABAR, UP
- MAHUA DABAR and the Destroyed Villages of BHARAT VARSH
- Archaeological Excavation of Mahua Dabar
- DISCOVERY OF MAHUA DABAR
- MEETING OF THE STANDING COMMITTEE OF THE CENTRAL
- Read the ebook List - Muhammadan village (Mahua Dabar)
- MAHUA DABAR - Images,Videos&Full Story