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10:46, 19 जनवरी 2011 का अवतरण

कुम्रहार बिहार राज्य के पटना स्टेशन से लगभग 13 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। अब यह पटना शहर का मुख्य भाग बन गया है। यहाँ 1912 से 1916 ई. के मध्य डी.वी. स्पूनर तथा एल.ए बैडेल एवं 1951 से 1955 ई. में ए.एस. अल्तेकर तथा विजयकांत मिश्र के निर्देशन में उत्खनन कराया गया। उत्खनन के फलस्वरूप यहाँ चन्द्रगुप्त मौर्य के समय के राजप्रसाद, जिसे मैगस्थनीज़ ने भी देखा था। तथा जिसका उल्लेख पतंजलि ने किया है, के अवशेष प्रकाश में आए हैं। ऐतिहासिक युग का यह प्रथम विशाल अवशेष है, जिसे देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाता है। सम्भवत: चन्द्रगुप्त मौर्य का राजप्रसाद भी वास्तुशास्त्रीय नियम से बना था। यहाँ सभा भवन के अवशेष मिले हैं, जो स्तम्भों पर आधारित था। इसका निर्माण दस-दस स्तम्भों की आठ पंक्तियों पर टिकी छत द्वारा किया गया था। सभा मण्डल की छ्त तथा फर्श भी लकड़ी से बनायी गयी थी। सभामण्डल के दक्षिण में लकड़ी के बने सात मंच या चबूतरे मिले हैं, जिन्हें काष्ठशिल्प का आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। कुछ विद्धानों का विचार है कि सभामण्डल विदेशी प्रभाव से बना था, लेकिन वासुदेवशरण अग्रवाल इससे सहमत नहीं हैं। किंतु 300 ई. से 600 ई. के बीच यहाँ आबादी के ह्रास के लक्षण दिखते हैं। फाह्यान के समय कुम्रहार उजड़ चुका था। वह लिखता है कि इस समय अशोक का महल नष्ट हो चुका था। यही स्थिति ह्वेनसांग के समय भी थी। 1953 ई. के उत्खनन से पता चलता है कि मौर्य सम्राटों का प्रासाद किसी भंयकर अग्निकाण्ड में नष्ट हुआ था।


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