"अनमोल वचन 1": अवतरणों में अंतर
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| '''[[महात्मा गाँधी]]''' के अनमोल वचन -- महात्मा, ट्रुथ इज गॉड, एविल रोट बाइ द इंग्लिश मिडीयम, द मैसेज ऑफ द गीता और माइंड ऑफ महात्मा गांधी पुस्तकों से | | '''[[महात्मा गाँधी]]''' के अनमोल वचन -- महात्मा, ट्रुथ इज गॉड, एविल रोट बाइ द इंग्लिश मिडीयम, द मैसेज ऑफ द गीता और माइंड ऑफ महात्मा गांधी पुस्तकों से | ||
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* एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यदृष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म - जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया। | * एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यदृष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हें नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म - जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, केवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया। | ||
* वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम् ! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो। | * वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम् ! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो। | ||
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|'''ज्ञान का सागर - अनमोल वचन''' | |||
1 सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है। <br> | |||
2 जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल जाता है, उसे इश्वर पुरस्कार देता है। <br> | |||
3 यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो। <br> | |||
4 इश्वर की शरण में गए बगैर साधना पूर्ण नहीं होती। <br> | |||
5 लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक होते हैं। <br> | |||
6 जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। <br> | |||
7 रोग का सूत्रपान मानव मन में होता है। <br> | |||
8 किसी भी व्यक्ति को मर्यादा में रखने के लिये तीन कारण जिम्मेदार होते हैं- व्यक्ति का मष्तिष्क, शारीरिक संरचना और कार्यप्रणाली, तभी उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास हो पाता है। <br> | |||
9 सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है। <br> | |||
10 यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है। <br> | |||
11 यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है।<br> | |||
12 सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा-सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है। <br> | |||
13 संसार कार्यों से, कर्मों के परिणामों से चलता है। <br> | |||
14 संन्यास डरना नहीं सिखाता। <br> | |||
15 सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह। <br> | |||
16 अपनों के चले जाने का दुःख असहनीय होता है, जिसे भुला देना इतना आसान नहीं है; लेकिन ऐसे भी मत खो जाओ कि खुद का भी होश ना रहे। <br> | |||
17 इंसान को आंका जाता है अपने काम से। जब काम व उत्तम विचार मिलकर काम करें तो मुख पर एक नया-सा, अलग-सा तेज आ जाता है। <br> | |||
18 अपने आप को अधिक समझने व मानने से स्वयं अपना रास्ता बनाने वाली बात है। <br> | |||
19 अगर कुछ करना व बनाना चाहते हो तो सर्वप्रथम लक्ष्य को निर्धारित करें। वरना जीवन में उचित उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। <br> | |||
20 ऊंचे उद्देश का निर्धारण करने वाला ही उज्जवल भविष्य को देखता है। <br> | |||
21 संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर देती है। <br> | |||
22 जहाँ वाद-विवाद होता है, वहां श्रद्धा के फूल नहीं खिल सकते और जहाँ जीवन में आस्था व श्रद्धा को महत्व न मिले, वहां जीवन नीरस हो जाता है। <br> | |||
23 फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना जरूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है। <br> | |||
24 सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है। <br> | |||
25 जब तक मानव के मन में मैं (अहंकार) है, तब तक वह शुभ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि मैं स्वार्थपूर्ति करता है और शुद्धता से दूर रहता है। <br> | |||
26 इस दुनिया में भगवान् से बढ़कर कोई घर या अदालत नहीं है।<br> | |||
27 मां है मोहब्बत का नाम, मां से बिछुड़कर चैन कहाँ।<br> | |||
28 सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य स्वरुप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था।<br> | |||
29 सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत में दूसरा नहीं है।<br> | |||
30 अच्छा साहित्य जीवन के प्रति आस्था ही उत्पन्न नहीं करता, वरन उसके सौंदर्य पक्ष का भी उदघाटन कर उसे पूजनीय बना देता है।<br> | |||
31 सत्य भावना का सबसे बड़ा धर्म है।<br> | |||
32 व्रतों से सत्य सर्वोपरि है।<br> | |||
33 वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है।<br> | |||
34 मनुष्य को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए।<br> | |||
35 जीवन का महत्वा इसलिये है, ख्योंकी मृत्यु है। मृत्यु न हो तो जिन्दगी बोझ बन जायेगी. इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी दरो नहीं।<br> | |||
36 कर्म करनी ही उपासना करना है, विजय प्राप्त करनी ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है, इसे प्राप्त करना और अधिकार रखना उतना ही कठोर है जितना कि इसका त्याग करना और विमुख होना।<br> | |||
37 संसार की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा करो।<br> | |||
38 मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है।<br> | |||
39 मां प्यार का सुर होती है। मां बनी तभी तो प्यार बना, सब दिन मां के दिए होते हैं। इसलिये सब दिन मदर्स दे होता है।<br> | |||
40 ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है।<br> | |||
41 संसार के सारे दुक्ख चित्त की मूर्खता के कारण होते है। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मजबूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो जायेगी।<br> | |||
42 पढ़ना एक गुण, चिंतन दो गुना, आचरण चौगुना करना चाहिए।<br> | |||
43 दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है।<br> | |||
44 उसकी जय कभी नहीं हो सकती, जिसका दिल पवित्र नहीं है।<br> | |||
45 सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए।<br> | |||
46 पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र।<br> | |||
47 हमारा शरीर ईश्वर के मन्दिर के समान है, इसलिये इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह की इश्वर-आराधना है।<br> | |||
48 सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान् पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्री के समय हजारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है।<br> | |||
49 एक ही पुत्र यदि विद्वान् और अच्छे स्वभाव वाला हो तो उससे परिवार को ऐसी ही खुशी होती है, जिस प्रकार एक चन्द्रमा के उत्पन्न होने पर काली रात चांदनी से खिल उठती है।<br> | |||
50 ब्रह्मविधा मनुश्य को ब्रह्म-परमात्मा के चरणों में बिठा देती है और चित्त की मूर्खता छुडवा देती है।<br> | |||
51 जिस तरह से एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो सकता है, उसी प्रकार एक मूर्ख पुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है।<br> | |||
52 जिस प्रकार सुगन्धित फूलों से लदा एक वृक्ष सारे जंगले को सुगन्धित कर देता है, उसी प्रकार एक सुपुत्र से वंश की शोभा बढती है।<br> | |||
53 पांच वर्ष की आयु तक पुत्र को प्यार करना चाहिए। इसके बाद दस वर्ष तक इस पर निगरानी राखी जानी चाहिए और गलती करने पर उसे दण्ड भी दिया जा सकता है, परन्तु सोलह वर्ष की आयु के बाद उससे मित्रता कर एक मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए। <br> | |||
54 दुःख देने वाले और ह्रदय को जलाने वाले बहुत से पुत्रों से क्या लाभ? कुल को सहारा देने वाला एक पुत्र ही श्रेष्ठ होता है।<br> | |||
55 यदि पुत्र विद्वान् और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है।<br> | |||
56 जो न दान देता है, न भोग करता है, उसका धन स्वतः नष्ट हो जाता है। अतः योग्य पात्र को दान देना चाहिए।<br> | |||
57 बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान्, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता हा, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है।<br> | |||
58 पापों का नाश प्रायश्चित करने और इससे सदा बचने के संकल्प से होता है।<br> | |||
59 जब मनुष्य दूसरों को भी अपना जीवन सार्थक करने को प्रेरित करता है तो मनुष्य के जीवन में सार्थकता आती है।<br> | |||
60 जो मिला है और मिल रहा है, उससे संतुष्ट रहो।<br> | |||
61 सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख ध्येय है।<br> | |||
62 जीवन को विपत्तियों से धर्म ही सुरक्षित रख सकता है।<br> | |||
63 दूसरों के जैसे बनने के प्रयास में अपना निजीपन नष्ट मत करो।<br> | |||
64 सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश अनिवार्य जुडा होता है।<br> | |||
65 महान प्यार और महान उपलब्धियों के खतरे भी महान होते हैं।<br> | |||
66 कभी-कभी मौन से श्रेष्ठ उत्तर नहीं होता, यह मंत्र याद रखो और किसी बात के उत्तर नहीं देना चाहते हो तो हंसकर पूछो- आप यह क्यों जानना चाहते हों?<br> | |||
67 अच्छा व ईमानदार जीवन बिताओ और अपने चरित्र को अपनी मंजिल मानो।<br> | |||
68 जब कभी भी हारो, हार के कारणों को मत भूलो।<br> | |||
69 धीरे भोल। जल्दी सोचो और छोटे-से विवाद पर पुरानी दोस्ती कुर्बान मत करो।<br> | |||
70 जब भी आपको महसूस हो, आपसे गलती हो गयी है, उसे सुधारने के उपाय तुरंत शुरू करो।<br> | |||
71 दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरुप वह राहत के बदले प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है।<br> | |||
72 क्रोध बुद्धि को समाप्त कर देता है। जब क्रोध समाप्त हो जाता है तो बाद में बहुत पश्चाताप होता है।<br> | |||
73 भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो।<br> | |||
74 अपनी कलम सेवा के काम में लगाओ, न कि प्रतिष्ठा व पैसे के लिये। कलम से ही ज्ञान, साहस और त्याग की भावना प्राप्त करें।<br> | |||
75 समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी व्यक्तियों को बचा लेते हैं, जिससे दोषी व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा।<br> | |||
76 न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है।<br> | |||
77 कोई भी व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है, लेकिन सही समय पर, सही मात्रा में, सही स्थान पर, सही उद्देश के लिये सही ढंग से क्रुद्ध होना सबके सामर्थ्य की बात नहीं है।<br> | |||
78 हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं. उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है।<br> | |||
79 सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है।<br> | |||
80 लोगों को चाहिए कि इस जगत में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है।<br> | |||
81 विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं।<br> | |||
82 सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है।<br> | |||
83 अपनी स्वंय की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।<br> | |||
84 परमात्मा वास्तविक स्वरुप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं।<br> | |||
85 जिस कर्म से किन्हीं मनुष्यों या अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचे, वे ही दुष्कर्म कहलाते हैं।<br> | |||
86 यज्ञ, दान और तप से त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य कर्म है; क्योंकि यज्ञ, दान व तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।<br> | |||
87 परोपकारी, निष्कामी और सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण करने वाला देव है।<br> | |||
88 परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के सद्रिशय अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार उन सभी को धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है।<br> | |||
89 जो कार्य प्रारंभ में कष्टदायक होते हैं, वे परिणाम में अत्यंत सुखदायकी होते हैं।<br> | |||
90 जो दानदाता इस भावना से सुपात्र को दान देता है कि तेरी (परमात्मा) वस्तु तुझे ही अर्पित है; परमात्मा उसे अपना प्रिय सखा बनाकर उसका हाथ थामकर उसके लिये धनों के द्वार खोल देता है; क्योंकि मित्रता सदैव समान विचार और कर्मों के कर्ता में ही होती है, विपरीत वालों में नहीं।<br> | |||
91 जो मनुष्य अपने समीप रहने वालों की तो सहायता नहीं करता, किन्तु दूरस्थ की सहायता करता है, उसका दान, दान न होकर दिखावा है।<br> | |||
92 दान की वृत्ति दीपक की ज्योति के समान होने चाहिए, जो समीप से अधिक प्रकाश देती है और ऐसे दानी अमरपद को प्राप्त करते हैं।<br> | |||
93 समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते।<br> | |||
94 यदि ज्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है।<br> | |||
95 ज्यादा पैसा कमाने की इच्छा से ग्रसित मनुष्य झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वाघात आदि का सहारा लेकर परिणाम में दुःख ही प्राप्त करता है।<br> | |||
96 इन दोनों व्यक्तियों के गले में पत्थर पानी में डूबा देना चाहिए। एक दान न करने वाल धनिक तथा दूसरा परिश्रम न करने वाला दरिद्र।<br> | |||
97 ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से संकट।<br> | |||
98 भगवान् प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं।<br> | |||
99 परमात्मा इन्साफ करता है, पर सदगुरु बख्शता है।<br> | |||
100 जिसके पास कुछ नहीं रहता, उसके पास भगवान् रहता।<br> | |||
101 उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति होने तक मत रुको।<br> | |||
102 जिस तेजी से विज्ञान की प्रगति के साथ उपभोग की वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में बनाना शुरू हो गयी हैं, वे मनुष्य के लिये पिंजरा बन रही हैं।<br> | |||
103 जिस व्यक्ति का मन चंचल रहता है, उसकी कार्यसिधि नहीं होती।<br> | |||
104 अपराध करने के बाद डर पैदा होता है और यही उसका दण्ड है।<br> | |||
105 अभागा वह है, जो कृतज्ञता को भूल जाता है।<br> | |||
106 पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना है।<br> | |||
107 वृद्धावस्था बीमारी नहीं, विधि का विधान है, इस दौरान सक्रिय रहें।<br> | |||
108 अतीत की स्म्रतिया और भविष्य की कल्पनाएँ मनुष्य को वर्तमान जीवन का सही आनंद नहीं लेने देतीं। वर्तमान में सही जीने के लिये आवश्य है अनुकूलता और प्रतिकूलता में सम रहना।<br> | |||
109 मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है।<br> | |||
110 अडिग रूप से चरित्रवान बनें, ताकि लोग आप पर हर परिस्थिति में विश्वास कर सकें।<br> | |||
111 जैसे एक अच्छा गीत तभी सम्भव है, जब संगीत व शब्द लयबद्ध हों; वैसे ही अच्छे नेतृत्व के लिये जरूरी है कि आपकी करनी एवं कथनी में अंतर न हो।<br> | |||
112 अपने व्यवहार में पारदर्शिता लाएं। अगर आप में कुछ कमियाँ भी हैं, तो उन्हें छिपाएं नहीं; क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है, सिवाय एक ईश्वर के।<br> | |||
113 मनुष्य सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नजरिया होता है।<br> | |||
114 गुण व कर्म से ही व्यक्ति स्वयं को ऊपर उठाता है। जैसे कमल कहाँ पैदा हुआ इसमें विशेषता नहीं, बल्कि इसमें है कि कीचड में रहकर भी उसने स्वयं को ऊपर उठाया है।<br> | |||
115 हमें अपने अभाव एवं स्वाभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं।<br> | |||
116 अगर हर आदमी अपना-अपना सुधर कर ले तो सारा संसार सुधर सकता है; क्योंकि एक-एक के जोड़ से ही संसार बनता है।<br> | |||
117 अपनों के लिये गोली सह सकते हैं, लेकिन बोली नहीं सह सकते। गोली का घाव भर जाता है, पर बोली का नहीं।<br> | |||
118 भगवान् से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है।<br> | |||
119 धन अच्छा सेवक भी है और बुरा मालिक भी।<br> | |||
120 जिसका मन-बुद्धि परमात्मा के प्रति वफादार है, उसे मन की शांति अवश्य मिलती ह।<br> | |||
121 राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्व दें तो मन की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।<br> | |||
122 कुमति व कुसंगति को छोड़ अगर सुमति व सुसंगति को बढाते जायेंगे तो एक दिन सुमार्ग को आप अवश्य पा लेंगे।<br> | |||
123 यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुक्सान होता हो तो ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए।<br> | |||
124 स्वर्ग व नरक कोई भौगोलिक श्तिति नहीं है, बल्कि एक मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे।<br> | |||
125 पूरी तरह तैरने का नाम तीर्थ है। एक मात्र पानी में डूबकी लगाना ही तीर्थस्नान नहीं।<br> | |||
126 सदा, सहज व सरल रहने से आतंरिक खुशी मिलती है.<br> | |||
127 मन की शांति के लिये अंदरूनी संघर्ष को बंद करना जरूरी है. जब तक अंदरूनी युद्ध चलता रहेगा, शांति नहीं मिल सकती.<br> | |||
128 किसी का बुरा मत सोचो; क्योंकि बुरा सोचते-सोचते एक दिन अच्छा भला व्यक्ति भी बुरे रास्ते पर चल पड़ता है.<br> | |||
129 सारा संसार ऐसा नहीं हो सकता, जैसा आप सोचते हैं. अतः समझौतावादी बनो.<br> | |||
130 महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये बहुत कष्ट सहना पड़ता है, जो तप के समान होता है; क्योंकि ऊंचाई पर स्थिर रह पाना आसान काम नहीं है.<br> | |||
131 जैसे प्रकृति का हर कारण उपयोगी है, ऐसे ही हमें अपने जीवन के हर क्षण को परहित में लगाकर स्वयं और सभी के लिये उपयोगी बनाना चाहिए.<br> | |||
132 हर व्यक्ति संवेदनशील होता है, पत्थर कोई नहीं होता; लेकिन सज्जन व्यक्ति पर बाहरी प्रभाव पानी की लकीर की भांति होता है.<br> | |||
133 जहाँ भी हो जैसे भी हो कर्मशील रहो, भाग्य अवश्य बदलेगा; अतः मनुष्य को कर्मवादी होना चाहिए, भाग्यवादी नहीं.<br> | |||
134 सभी मन्त्रों से महामंत्र है कर्म मंत्र. कर्म करते हुए भजन करते रहना ही प्रभु की सच्ची भक्ति है.<br> | |||
135 जूँ, खटमल की तरह दूसरों पर नहीं पलना चाहिए, बल्कि अंत समय तक कार्य करते जाओ; क्योंकि गतिशीलता जीवन का आवश्यक अंग है.<br> | |||
136 बाहर मैं, मेरा और अंदर तू, तेरा, तेरी के भाव के साथ जीने का आभास जिसे हो गया, वह उसके जीवन की एक महान व उत्तम प्राप्ति है.<br> | |||
137 भाग्यशाली होते हैं वे, जो अपने जीवन के संघर्ष के बीच एक मात्रा सहारा परमात्मा को मानते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. <br> | |||
138 सन्यासी स्वरुप बनाने से अहंकार बढ़ता है. कपडे मन रंग्वाओ, मन को रंगों तथा भीतर से सन्यासी की तरह रहो.<br> | |||
139 जीवन चलते का नाम है. सोने वाला सतयुग में रहता है, बैठने वाला द्वापर में, उठ खडा होने वाल त्रेता में, और चलने वाला सतयुग में इसलिए चलते रहो.<br> | |||
140 अपनों व अपने प्रिय से धोखा हो या बीमारी से उठो हो या राजनीति में हार गया हो या शमशान घर में जाओ; तब जो मन होता है, वैसा मन अगर हमेशा रहे तो मनुष्य का कल्याण हो जाए.<br> | |||
141 मनुष्य का मन कछुए की भांति होना चाहिए, जो बाहर की चोटें सहते हुए भी अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता और धीरे-धीरे मंजिल पर पहुँच जाता है.<br> | |||
142 हर शाम में एक जीवन का समापन हो रहा है और हर सवेरे में नए जीवन की शुरूरात होती है.<br> | |||
143 भगवान् को अनुशाशन एवं सुव्यवस्थितपना बहुत पसंद है. अतः उन्हें ऐसे लोग ही पसंद आते हैं, जो सुव्यवस्था व अनुशाशन को अपनाते हैं.<br> | |||
144 आज का मनुष्य अपने अभाव से इतना दुखी नहीं है, जितना दूसरे के प्रभाव से होता है.<br> | |||
145 जानकारी व वैदिक ज्ञान का भार तो लोग सिर पर गधे की तरह उठाये फिरते हैं और जल्द अहंकारी भी हो जाते हैं, लेकिन उसकी सरलता का आनंद नहीं उठा सकते हैं.<br> | |||
146 जहाँ सत्य होता है, वहां लोगों की भीड़ नहीं हुआ करती; क्योंकि सत्य जहर होता है और जहर को कोई पीना या लेना नहीं चाहता है. इसलिए आजकल हर जगह मेला लगा रहता है.<br> | |||
147 दिन में अधूरी इच्छा को व्यक्ति रात को स्वप्न के रूप में देखता है. इसलिए जितना मन अशांत होगा, उतने ही अधिक स्वप्न आते हैं.<br> | |||
148 कई बच्चे हजारों मील दूर बैठे भी माता-पिता से दूर नहीं होते और कई घर में साथ रहते हुई भी हजारों मील दूर होते हैं.<br> | |||
149 जो व्यक्ति हर स्थिति में प्रसन्न और शांत रहना सीख लेता है, वह जीने की कला प्राणी मात्रा के लिये कल्याणकारी है.<br> | |||
150 जो व्यक्ति आचरण की पोथी को नहीं पढता, उसके पृष्ठों को नहीं पलटता, वह भला दूसरों का क्या भला कर पायेगा.<br> | |||
151 हमारे शरीर को नियमितता भाती है, लेकिन मन सदैव परिवर्तन चाहता है.<br> | |||
152 मनुष्य अपने अंदर की बुराई पर ध्यान नहीं देता और दूसरों की उतनी ही बुराई की आलोचना करता है. अपने तो पाप का बड़ा नगर बसाता है और दूसरे को छोटा गाँव भी ज़रा-सा सहन नहीं कर सकता है.<br> | |||
153 सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय, माँ-अपमान, निंदा-स्तुति ये द्वन्द निरंतर एक साथ जगत में रहते हैं और ये हमारे जीवन का एक हिस्सा होते हैं, दोनों में भगवान् को देखें. <br> | |||
154 मन-बुद्धि की भाषा है - मैं, मेरी. इसके बिना बाहर के जगत का कोई व्यवहार नहीं चलेगा. अगर अंदर स्वयं को जगा लिया तो भीतर तेरा-तेरा शुरू होने से व्यक्ति परम शांति प्राप्त कर लेता है. <br> | |||
155 न तो किसी तरह का कर्म करने से नष्ट हुई वास्तु मिल सकती है, न चिंता से कोई ऐसा दाता भी नहीं है, जो मनुष्य को विनष्ट वास्तु दे दे. विधाता के विधान के अनुसार मनुष्य बारी-बारी से समय पर सब कुछ पा लेता है.<br> | |||
156 जिस राष्ट्र में विद्वान् सताए जाते हैं, वह विपत्तिग्रस्त होकर वैसे ही नष्ट हो जाता है, जैसे टूटी नौका जल में डूबकर नष्ट हो जाती है.<br> | |||
157 पूरी दुनिया में 350 धर्म हैं. हर धर्म का मूल तत्व एक ही है, परन्तु आज लोगों का धर्म की उपेक्षा अपने-अपने भजन व पंथ से अधिक लगाव है.<br> | |||
158 तीनों लोगों में प्रत्येक व्यक्ति सुख के लिये दौड़ता फिरता है, दुखों के लिये बिलकुल नहीं. किन्तु दुःख के दो स्त्रोत हैं- एक है देह के प्रति मैं का भाव और दूसरा संसार की वस्तुओं के प्रति मेरेपन का भाव.<br> | |||
159 सारे काम अपने आप होते रहेंगे, फिर भी आप कार्य करते रहें. निरंतर कार्य करते रहें, पर उसमें ज़रा भी आसक्त न हों. आप बस कार्य करते, यह सोचकर कि अब हम जाए रहें बस, अब जा रहे हैं.<br> | |||
160 आप बच्चों के साथ कितना समय बिताते हैं, वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कैसे बिताते हैं.<br> | |||
161 पिता सिखाते हैं पैरो पर संतुलन बनाकर व ऊंगली थाम कर चलना, पर माँ सिखाती है सभी के साथ संतुलन बनाकर दुनिया के साथ चलना. तभी वह अलग है, महान है.<br> | |||
162 माँ-बेटी का रिश्ता इतना अनूठा - इतना अलग होता है कि उसकी व्याख्या करना मुश्किल है. इस रिश्ते से सदैव पहली बारिश की फुहारों- सी ताजगी रहती है, तभी तो माँ के साथ बिताया हर क्षण होता है अमिट, अलग. उनके साथ गुजारा हर पल शानदार होता है.<br> | |||
163 जो संसार से ग्रसित रहता है, वह बुद्धू तो हो सकता; लेकिन बुद्ध नहीं हो सकता.<br> | |||
164 विपरीत दिशा में कभी न घबराएं, बल्कि पक्की ईंट की तरह मजबूत बनाना चाहिय और जीवन की हर चुनौती को परीक्षा एवं तपस्या समझकर निरंतर आगे बढना चाहिए.<br> | |||
165 सत्य बोलते समय हमारे शरीर पर कोई दबाव नहीं पड़ता, लेकिन झूठ बोलने पर हमारे शरीर पर अनेक प्रकार का दबाव पड़ता है. इसलिए खा जाता है कि सत्य के लिये एक हाँ और झूठ के लिये हजारों बहाने ढूँढने पड़ते हैं. <br> | |||
166 अखण्ड ज्योति ही प्रभु का प्रसाद है. वह मिल जाए तो जीवन में चार चाँद लग जाएँ.<br> | |||
167 दो प्रकार की प्रेरणा होती है - एक बाहरी व दूसरी अंतर प्रेरणा. आतंरिक प्रेरणा बहुत महत्वपूर्ण होती है; क्योंकि वह स्वयं की निर्मार्त्री होती है. <br> | |||
168 अपने आप को को बचाने के लिये तर्क-वितर्क करना हर व्यक्ति की आदत है. जैसे क्रोधी व लोभी आदमी भी अपने बचाव में कहता मिलेगा कि यह सब मैंने तुम्हारे कारण किया है.<br> | |||
169 जब-जब ह्रदय की विशालता बढ़ती है तो मन प्रफुल्लित होकर आनंद की प्राप्ति कर्ता है और जब संकीर्ण मन होता है तो व्यक्ति दुःख भोगता है. <br> | |||
170 जैसे बाहरी जीवन में युक्ति व शक्ति जरूरी है, वैसे ही आतंरिक जीवन के लिये मुक्ति व भक्ति आवश्यक है. <br> | |||
171 तर्क से विज्ञान में वृद्धि होती है, कुतर्क से अज्ञान बढ़ता है और वितर्क से अध्यात्मिक ज्ञान बढ़ता है. <br> | |||
172 जिसकी मुस्कराहट कोई चीन न सके, वही असल सफा व्यक्ति है. <br> | |||
173 मनुष्य का जीवन तीन मुख्य तत्वों का समागम है - शरीर, विचार एवं मन. <br> | |||
174 प्रेम करने का मतलब सम-व्यवहार जरूरी नहीं, बल्कि समभाव होना चाहिए. जिसके लिये घोड़े की लगाम की भांति व्यवहार में ढील देना पड़ती है और कभी खींचना भी जरूरी हो जाता है. <br> | |||
175 इस दुनिया में ना कोई जिन्दगी जीता है, ना कोई मरता है. सभे सिर्फ अपना-अपना कर्ज चुकाते हैं.<br> | |||
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13:06, 20 जनवरी 2011 का अवतरण
हम अनमोल वचन उन बातों और लेखों को कहते हैं, जिन्हें संसार के अनेकानेक विद्वानों ने कहे और लिखे हैं, जो जीवन उपयोगी हैं। इन अनमोल वचनों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन में नई उंमग एवं उत्साह का संचार कर सकते हैं। अनमोल वचन को हम सूक्ति (सु + उक्ति) या सुभाषित (सु + भाषित) भी कहते हैं। इन बातों को अनमोल इसलिए भी कहा जाता हैं क्योंकि यदि हम इन बातों का अर्थ या सार समझेगें, तो हम पायेंगे की इन बातों का कोई मोल नहीं लगा सकता। इन बातों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन की दिशा को बदल सकते हैं और जीवन की दिशा बदलनें वाली बातों का कभी कोई मोल नही लगा सकता हैं क्योकि ये बातें तो अनमोल होती हैं।
अनमोल वचन |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गांधीजी के शब्दों में (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2011।
- ↑ स्वामी विवेकानन्द के सुविचार (हिन्दी) (पी.एच.पी.) छठ पूजा। अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2011।