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मेवाड़ [[राजस्थान]] के दक्षिण मध्य में एक रियासत थी। मेवाड़ को [[उदयपुर]] राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक [[भारत]] के [[उदयपुर ज़िला|उदयपुर]], [[भीलवाड़ा ज़िला|भीलवाड़ा]], [[राजसमंद ज़िला|राजसमंद]], तथा [[चित्तौडगढ़ ज़िला|चित्तौडगढ़]] जिले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ रापपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा शिशोदिया राजाओं ने 1200 साल तक राज किया था।   
मेवाड़ [[राजस्थान]] के दक्षिण मध्य में एक रियासत थी। मेवाड़ को [[उदयपुर]] राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक [[भारत]] के [[उदयपुर ज़िला|उदयपुर]], [[भीलवाड़ा ज़िला|भीलवाड़ा]], [[राजसमंद ज़िला|राजसमंद]], तथा [[चित्तौडगढ़ ज़िला|चित्तौडगढ़]] जिले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ रापपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा शिशोदिया राजाओं ने 1200 साल तक राज किया था।   
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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* [http://themewar.blogspot.com/ मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ]
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12:01, 25 जनवरी 2011 का अवतरण

मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण मध्य में एक रियासत थी। मेवाड़ को उदयपुर राज्य के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक भारत के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, तथा चित्तौडगढ़ जिले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ रापपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा शिशोदिया राजाओं ने 1200 साल तक राज किया था।

इतिहास

अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई. में मेवाड़ के गुहिलौत राजवंश के शासक रतनसिंह को पराजित कर मेवाड़ को दिल्ली सल्तंत में मिलाया। गुहिलौत वंश की एक शाखा सिसोदिया वंश के हम्मीरदेव ने मुहम्मद तुग़लक के समय में चित्तौड़ को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378 -1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय दिया। उसके शासनकाल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ परकोटे का भी निर्माण कराया। उसकी गुजरात शासक के विरुद्ध किये गये अभियान के समय हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में उसकी मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा।

राणा कुम्भा

कुम्भकरण व राणा कुम्भा के शासन काल में उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया। रानमल से ईर्ष्या करने वाले कुछ राजपूत सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक कीर्ति स्तम्भ की स्थापना की।

स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं। जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान् शासक था। वह स्वयं विद्वान तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था। उसने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेवकृत गीतगोविन्द पर रसिक प्रिया नामक टीका लिखा। उसने कुम्भगढ़ के नवीन नगर और क़िले में अनेक शानदार इमारतें बनवायीं। उसने अत्री और महेश को अपने दरबार में संरक्षण दिया था। जिन्होंने प्रसिद्ध विजय स्तम्भ की रचना की थी। उसने बसंतपुर नामक स्थान को पुनः आबाद किया। 1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदय ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदय अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उदय के बाद उसका छोटा भाई राजमल (1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या राणा सांगा (1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में जहाँगीर ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना राठौरवंशी शासक चुन्द ने की थी। जोधपुर की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।

मेवाड़ चित्रकला

17वीं और 18वीं शताब्दी में भारतीय लघु चित्रकला (मिनिएचर) की महत्त्वपूर्ण शैलियों में से एक है। यह एक राजस्थानी शैली है, जो हिंदू रियासत मेवाड़ (राजस्थान) में विकसित हुई। सादे चटकीले रंग और सीधा भावनात्मक आकर्षण इस शैली की विशेषता है। इस शैली की मूल स्थानों और तिथियों सहित बहुत सी कलाकृतियाँ मिली हैं। जिनसे अन्य राजस्थानी शैलियों के मुक़ाबले मेवाड़ में चित्रकला के विकास के बारे में सटीक जानकारी मिलती है। इसके प्राचीनतम उदाहरण रंगमाला (राग-रागिनियों के भाव) श्रृंखला के हैं, जिन्हें राज्य की प्राचीन राजधानी चांवड़ में 1605 में चित्रित किया गया था। 1680 तक कुछ भिन्नताओं के साथ यह शैली अभिव्यक्तिपूर्ण और सशक्त बनी रही, जिसके बाद इस पर मुग़ल प्रभाव हावी होने लगा। साहिबदीन आरंभिक काल के कुछ प्रमुख चित्रकारों में से एक थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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