"आत्मा": अवतरणों में अंतर

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(''''आत्मन्''' शब्द की व्युत्पत्ति से इस (आत्मा) की कल्पना ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
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#इन्द्रियों का विषय स्थूल जगत।
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==पाँच आवरण==
==पाँच आवरण==
आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। उपनिषदों में इनका विस्तृत वर्णन है। ये निम्नांकित हैं-
आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। [[उपनिषद|उपनिषदों]] में इनका विस्तृत वर्णन है। ये निम्नांकित हैं-
#अन्नमय कोष (स्थूल शरीर)
#अन्नमय कोष (स्थूल शरीर)
#प्राणमय कोष (श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है)
#प्राणमय कोष (श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है)
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#विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और  
#विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और  
#आनन्दमय कोष (दु:खों से मुक्ति और प्रसाद उत्पन्न करने वाला)।
#आनन्दमय कोष (दु:खों से मुक्ति और प्रसाद उत्पन्न करने वाला)।
==आत्मा की अवस्थाएँ==
==आत्मा की अवस्थाएँ==
'''आत्मचेतना में आत्मा''' की गति स्थूल कोषों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है। किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है। इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं-
'''आत्मचेतना में आत्मा''' की गति स्थूल कोषों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है। किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है। इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं-

11:45, 29 जनवरी 2011 का अवतरण

आत्मन् शब्द की व्युत्पत्ति से इस (आत्मा) की कल्पना पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। यास्क ने इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- आत्मा ‘अत्’ धातु से व्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है सतत चलना अथवा यह 'आप्' धातु से निकला है, जिसका अर्थ व्याप्त होना है। आचार्य शंकर आत्मा शब्द की व्याख्या करते हुए लिंग पुराण [1] से निम्नाकिंत श्लोक उदधृत करते हैं-

यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चाति विषयानिह।
यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते।।

(जो व्याप्त करता है, ग्रहण करता है, सम्पूर्ण विषयों का भोग करता है और जिसकी सदैव सत्ता बनी रहती है, उसको आत्मा कहा जाता है।)

प्रयोग

आत्मा शब्द का प्रयोग विश्वात्मा और व्यक्तिगत आत्मा दोनों अर्थों में होता है। उपनिषदों में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से आत्मतत्त्व पर विचार हुआ है। ऐतरेयोपनिषद में विश्वात्मा के अर्थ में आत्मा को विश्व का आधार और उसका मूल कारण माना गया है। इस स्थिति में अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्मा से उसका अभेद स्वीकार किया गया है। ‘तत्त्वमसि’ वाक्य का यही तात्पर्य है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी यही प्रकट करता है। आत्मा शब्द का अधिक प्रयोग व्यक्तिगत आत्मा के लिए ही होता है। विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में इसकी विभिन्न कल्पनाएँ हैं। वैशेषिक दर्शन के अनुसार यह अणु हैं। न्याय के अनुसार यह कर्म का वाहक है। उपनिषदों में इसे ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ कहा गया है। अद्वैत वेदान्त में यह सच्चिदानन्द और ब्रह्म से अभिन्न है।

प्रमाण

आचार्य शंकर ने आत्मा के अस्तित्व के समर्थन में प्रबल प्रमाण उपस्थित किया है। उनका सबसे बड़ा प्रमाण है, आत्मा की स्वयं सिद्धी अर्थात् आत्मा अपना स्वत: प्रमाण है। उसको सिद्ध करने के लिए किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। वह प्रत्यगात्मा है अर्थात् उसी से विश्व के समस्त पदार्थों का प्रत्यय होता है; प्रमाण भी उसी के ज्ञान के विषय हैं। अत: उसको जानने में बाहरी प्रमाण असमर्थ हैं। परन्तु यदि किसी प्रमाण की आवश्कता हो तो, इसके लिए ऐसा कोई नहीं कहता कि ‘मैं नही हूँ’। ऐसा कहने वाला अपने अस्तित्व का ही निराकरण कर बैठेगा। वास्तव में जो कहता है कि ‘मैं नही हूँ’ वही आत्मा है (योऽस्य निराकर्ता तदस्य तद्रूपम्)।

उपाधियाँ

आत्मा वास्तक में ब्रह्मा से अभिन्न और सच्चिदानन्द है। परन्तु माया अथवा अविद्या के कारण वह उपाधियों में लिप्त रहता है। ये उपाधियाँ हैं-

  1. मुख्य प्राण (अचेतन श्वास-प्रश्वास)
  2. मन (इन्द्रियों की संवेदना को ग्रहण करने का केन्द्र या माध्यम)
  3. इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय)
  4. स्थूल शरीर और
  5. इन्द्रियों का विषय स्थूल जगत।

पाँच आवरण

आत्मा (सोपाधिक) पाँच आवरणों से वेष्टित रहता है, जिन्हें कोष कहते हैं। उपनिषदों में इनका विस्तृत वर्णन है। ये निम्नांकित हैं-

  1. अन्नमय कोष (स्थूल शरीर)
  2. प्राणमय कोष (श्वास-प्रश्वास जो शरीर में गति उत्पन्न करता है)
  3. मनोमय कोष (संकल्प-विकल्प करने वाला)
  4. विज्ञानमय कोष (विवेक करने वाला) और
  5. आनन्दमय कोष (दु:खों से मुक्ति और प्रसाद उत्पन्न करने वाला)।

आत्मा की अवस्थाएँ

आत्मचेतना में आत्मा की गति स्थूल कोषों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है। किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है। इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं-

  1. जाग्रत- (जागने की स्थिति, जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने विषयों में रमण करती रहती हैं)।
  2. स्वप्न- (वह स्थिति जिसमें इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं, किन्तु मन काम करता रहता है और अपने संसार की स्वयं सृष्टि कर लेता है)।
  3. सुषुप्ति- (वह स्थिति, जिसमें मन भी सो जाता है, स्वप्न नहीं आता, किन्तु जागने पर यह स्मृति बनी रहती है कि, नींद अच्छी तरह आई) और
  4. तुरीया- (वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की सम्पूर्ण स्मृतियाँ समाप्त हो जाती हैं।)

तीन स्थितियाँ

आत्मा की तीन मुख्य स्थितियाँ हैं-बद्ध, मुमुक्षु और मुक्त। बद्धावस्था में वह संसार से लिप्त रहता है। मुमुक्षु की अवस्था में वह संसार से विरक्त और मोक्ष की ओर उन्मुख रहता है। मुक्तावस्था में वह अविद्या और अज्ञान से छूटकर अपने स्वरूप की उपलब्धि कर लेता है। किन्तु मुक्तावस्था की भी दो स्थितियाँ हैं-

  1. जीवन्मुक्ति और
  2. विदेहमुक्ति

जब तक मनुष्य का शरीर है, वह प्रारब्ध कर्मों का फल भोगता है, जब तक भोग समाप्त नहीं होते, शरीर चलता रहता है। इस स्थिति में मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों का अनासक्ति के साथ पालन करता रहता है। ज्ञानमूलक होने से वे आत्मा के लिए बन्धन नहीं उत्पन्न करते।

सगुणोपासक भक्त दार्शनिकों की माया, बन्ध और मोक्ष सम्बन्धी कल्पनाएँ निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गियों से भिन्न हैं। भगवान से जीवात्मा का वियोग बन्ध है। भक्ति द्वारा जब भगवान का प्रसाद प्राप्त होता है और जब भक्त भगवान से सायुज्य हो जाता है, तब बन्ध समाप्त हो जाता है। वे सायुज्य, सामीप्य अथवा सालोक्य चाहते हैं, अपना पूर्णविलय नहीं, क्योंकि विलय होने पर भगवान के सायुज्य का आनन्द कौन उठायेगा? उनके मत में भगवन्निष्ठ होना ही आत्मनिष्ठ होना है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’) पृष्ठ संख्या-73

  1. (1.70.96)