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*कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक ही ठहरते हैं। -'''तिरुवल्लुवर''' (तिरुक्कुरल, 661) | *कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक ही ठहरते हैं। -'''तिरुवल्लुवर''' (तिरुक्कुरल, 661) | ||
*देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है। -'''[[महात्मा गाँधी]]''' (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ॰ 515) | *देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है। -'''[[महात्मा गाँधी]]''' (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ॰ 515) | ||
*संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। -'''[[शरतचंद्र चट्टोपाध्याय]]''' (शेष परिचय,पृ॰31 | *संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। -'''[[शरतचंद्र चट्टोपाध्याय]]''' (शेष परिचय,पृ॰31) '''[[सूक्ति और कहावत|.... और पढ़ें]]''' | ||
10:52, 15 फ़रवरी 2011 का अवतरण
- पुष्पों के गुच्छे की तरह महापुरूषों की दो ही गतियाँ होती हैं - या तो वे सब लोगों के सिर पर विराजते हैं अथवा वन में ही मुरझा जाते हैं। -भर्तृहरि (नीतिशतक,33)
- कर्म की दृढ़ता वस्तुत: व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता ही है। शेष सब पृथक ही ठहरते हैं। -तिरुवल्लुवर (तिरुक्कुरल, 661)
- देश प्रेम हो और भाषा-प्रेम की चिन्ता न हो, यह असम्भव है। -महात्मा गाँधी (गांधी वाड्मय, खंड 19, पृ॰ 515)
- संसार में नाम और द्रव्य की महिमा कोई आज भी ठीक-ठीक नहीं जान पाया। -शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (शेष परिचय,पृ॰31) .... और पढ़ें