"भक्ति आन्दोलन": अवतरणों में अंतर
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#शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए बोधगम्य नहीं रह गया था। | #शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए बोधगम्य नहीं रह गया था। | ||
#मंस्लिम शासकों द्वार आये दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के कारण, बिना मूर्ति एवं मंदिर के ईश्वर की अराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा, जिसके लिए उन्हें [[भक्ति मार्ग]] का सहारा लेना पड़ा। | #मंस्लिम शासकों द्वार आये दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के कारण, बिना मूर्ति एवं मंदिर के ईश्वर की अराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा, जिसके लिए उन्हें [[भक्ति मार्ग]] का सहारा लेना पड़ा। | ||
==प्रणेता== | ==आन्दोलन के प्रणेता== | ||
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|+ भक्तिकाल के प्रमुख संत, उनके सम्प्रदाय एवं मत | |||
! प्रवर्तक | |||
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! मत | |||
! काल | |||
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| [[शंकराचार्य]] | |||
| स्मृति सम्प्रदाय | |||
| अद्वैतवाद | |||
| 788-820 ई. | |||
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| [[रामानुजाचार्य]] | |||
| श्री सम्प्रदाय | |||
| विशिष्टाद्वैतावाद | |||
| 1017-1133 ई. | |||
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| [[निम्बार्काचार्य]] | |||
| सनक सम्प्रदाय | |||
| द्वैताद्वैतवाद | |||
| 1165 ई. (जन्म) | |||
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| [[मध्वाचार्य]] | |||
| ब्रह्मा सम्प्रदाय | |||
| द्वैतवाद | |||
| 1199-1278 ई. | |||
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| [[कबीरदास]] | |||
| [[कबीर पंथ]] | |||
| विशुद्ध द्वैतवाद | |||
| 1140-1510 ई. | |||
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| [[नानक]] | |||
| सिक्ख सम्प्रदाय | |||
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| 1469-1538 ई. | |||
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| [[बल्लभाचार्य]] | |||
| रुद्र सम्प्रदाय | |||
| शुद्धाद्वैतावाद | |||
| 1479-1531 ई. | |||
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| [[चैतन्य महाप्रभु]] | |||
| मध्य गौडीय सम्प्रदाय | |||
| अचिंत्य भेदाभेदवाद | |||
| 1486-1533 ई. | |||
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| [[दादू दयाल]] | |||
| दादूपंथ/निपख सम्प्रदाय | |||
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| 1544-1603 ई. | |||
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| [[तुकाराम]] | |||
| वारकरी सम्प्रदाय | |||
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| 1598-1650 ई. | |||
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| हितहरी वंश | |||
| राधा वल्लभ सम्प्रदाय | |||
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| भाष्कराचार्य | |||
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| भेदाभेवाद | |||
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| श्रीकंठ | |||
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| शैव विशिष्टाद्वैत | |||
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| श्रीपति | |||
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| वीर शैव विशिष्टाद्वैत | |||
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| विभान भिक्षु | |||
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| अविभागाद्वैत | |||
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भक्ति आन्दोलन को प्रेरणा प्रदान करने वाले निम्न महापुरुष थे- | भक्ति आन्दोलन को प्रेरणा प्रदान करने वाले निम्न महापुरुष थे- | ||
====रामानन्द==== | ====रामानन्द==== | ||
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कबीर का जन्म 1440 ई. में [[वाराणसी]] में हुआ था। ये सुल्तान [[सिकन्दर शाह लोदी]] के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए [[एकेश्वरवाद]] में आस्था एवं निराकार ब्रह्मा की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने [[सन्त]] होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]] कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में [[मगहर]] में हुई। ये [[रामानन्द]] के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। | कबीर का जन्म 1440 ई. में [[वाराणसी]] में हुआ था। ये सुल्तान [[सिकन्दर शाह लोदी]] के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए [[एकेश्वरवाद]] में आस्था एवं निराकार ब्रह्मा की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने [[सन्त]] होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी [[कबीरपंथ|कबीरपंथी]] कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में [[मगहर]] में हुई। ये [[रामानन्द]] के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। | ||
====गुरुनानक (1469-1539 ई.)==== | ====गुरुनानक (1469-1539 ई.)==== | ||
{| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right" | |||
|+ सिक्ख संप्रदाय के दस गुरु | |||
! गुरु | |||
! काल | |||
! प्रमुख उपलब्धियाँ | |||
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| [[गुरु नानकदेव]] | |||
| 1469-1539 ई. | |||
| [[सिक्ख धर्म]] के प्रवर्तक | |||
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| [[गुरु अंगद]] | |||
| 1538-1552 ई. | |||
| गुरुमुखी लिपि के जनक | |||
|- | |||
| गुरु अमरदास | |||
| 1552-1574 ई. | |||
| - | |||
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| गुरु रामदास | |||
| 1574-1581 ई. | |||
| अमृतसर के संस्थापक | |||
|- | |||
| गुरु अर्जुन | |||
| 1581-1606 ई. | |||
| [[स्वर्ण मंदिर]] की स्थापना | |||
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| [[गुरु हरगोविंद सिंह]] | |||
| 1606-1645 ई. | |||
| अकाल तख्त की स्थापना | |||
|- | |||
| [[गुरु हरराय]] | |||
| 1645-1661 ई. | |||
| - | |||
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| गुरु हरकिशन | |||
| 1661-1664 ई. | |||
| - | |||
|- | |||
| [[गुरु तेग बहादुर सिंह]] | |||
| 1664-1675 ई. | |||
| - | |||
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| [[गुरु गोविन्द सिंह]] | |||
| 1675-1708 ई. | |||
| खालसा सेना का संगठन | |||
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{{मुख्य|गुरुनानक}} | {{मुख्य|गुरुनानक}} | ||
गुरुनानक का जन्म 1569 में तलवन्डी नामक स्थान पर हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम कालू तथा माता का नाम तृप्ता था। कबीर के बाद तत्कालीन समाज को प्रभावित करने वालों में नानक का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने बिना किसी वर्ग पर आघात किये ही उसके अन्दर छिपे कुसंस्कारों को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के वाह्म आडम्बर, जात-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच, उपवास, मूर्तिपूजा, अन्ध-विश्वास, बहु-देववाद आदि की आलोचना की। उन्होंने हिन्दू-मुस्जिम एकता, सच्ची ईश्वर भक्ति और सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया। निरंकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष की संज्ञा दी। उनका दृष्टिकोण विशाल मानवतावादी था। उनके उपदेशों को [[सिक्ख]] पंथ के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में संकलित किया गया है। | गुरुनानक का जन्म 1569 में तलवन्डी नामक स्थान पर हुआ था। इनके [[पिता]] का नाम कालू तथा माता का नाम तृप्ता था। कबीर के बाद तत्कालीन समाज को प्रभावित करने वालों में नानक का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने बिना किसी वर्ग पर आघात किये ही उसके अन्दर छिपे कुसंस्कारों को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के वाह्म आडम्बर, जात-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच, उपवास, मूर्तिपूजा, अन्ध-विश्वास, बहु-देववाद आदि की आलोचना की। उन्होंने हिन्दू-मुस्जिम एकता, सच्ची ईश्वर भक्ति और सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया। निरंकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष की संज्ञा दी। उनका दृष्टिकोण विशाल मानवतावादी था। उनके उपदेशों को [[सिक्ख]] पंथ के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में संकलित किया गया है। | ||
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तुलसीदास का जन्म 1523 ई. में बाँदा ज़िले के 'राजापुर' नामक ग्राम में हुआ था। वे [[मुग़ल]] शासक [[अकबर]] के समकालीन थे। उन्होंने ईश्वर के सगुण रूप को स्वीकार करते हुए राम को ईश्वर का [[अवतार]] मानकर उनकी भक्ति पर विशेष बल दिया। तुलसीदास ने [[अवधी भाषा]] में [[रामचरितमानस]] की रचना की। इसके अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थों में- 'वैराग्य संदीपनी', 'श्रीकृष्ण गीतावली' तथा 'विनयपत्रिका' आदि प्रमुख हैं। | तुलसीदास का जन्म 1523 ई. में बाँदा ज़िले के 'राजापुर' नामक ग्राम में हुआ था। वे [[मुग़ल]] शासक [[अकबर]] के समकालीन थे। उन्होंने ईश्वर के सगुण रूप को स्वीकार करते हुए राम को ईश्वर का [[अवतार]] मानकर उनकी भक्ति पर विशेष बल दिया। तुलसीदास ने [[अवधी भाषा]] में [[रामचरितमानस]] की रचना की। इसके अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थों में- 'वैराग्य संदीपनी', 'श्रीकृष्ण गीतावली' तथा 'विनयपत्रिका' आदि प्रमुख हैं। | ||
==महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन== | ==महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन== | ||
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|+ महाराष्ट्र के भक्त सन्त | |||
! सन्त | |||
! काल | |||
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| नामदेव | |||
| 1270-1350 ई. | |||
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| [[ज्ञानेश्वर]] (ज्ञानदेव) | |||
| 1271-1296 ई. | |||
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| [[एकनाथ]] | |||
| 1533-1599 ई. | |||
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| [[तुकाराम]] | |||
| 1598-1650 ई. | |||
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| रामदास | |||
| 1608-1681 ई. | |||
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'''मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन को''' विकसित करने तथा लोकप्रिय बनाने में [[महाराष्ट्र]] के सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराष्ट्र में भक्ति पंथ 'पण्ढरपुर' के मुख्य [[देवता]] 'विठोवा' या 'बिट्ठल' के मन्दिर के चारों ओर केन्द्रित था। विट्ठल या विठोवा को कृष्ण का अवतार माना जाता था, इसलिए यह आन्दोलन पण्ढरपुर आन्दोलन के रूप में प्रसिद्ध हुआ महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन मुख्य रूप से दो सम्प्रदायों में विभक्त था-<br /> | '''मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन को''' विकसित करने तथा लोकप्रिय बनाने में [[महाराष्ट्र]] के सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराष्ट्र में भक्ति पंथ 'पण्ढरपुर' के मुख्य [[देवता]] 'विठोवा' या 'बिट्ठल' के मन्दिर के चारों ओर केन्द्रित था। विट्ठल या विठोवा को कृष्ण का अवतार माना जाता था, इसलिए यह आन्दोलन पण्ढरपुर आन्दोलन के रूप में प्रसिद्ध हुआ महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन मुख्य रूप से दो सम्प्रदायों में विभक्त था-<br /> | ||
# '''वारकरी सम्प्रदाय'''- पण्ढरपुर के विट्ठल भगवान के सौम्य भक्तों का सम्प्रदाय। यह रहस्यवादियों का सम्प्रदाय थां। | # '''वारकरी सम्प्रदाय'''- पण्ढरपुर के विट्ठल भगवान के सौम्य भक्तों का सम्प्रदाय। यह रहस्यवादियों का सम्प्रदाय थां। | ||
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====नरसी (नरसिंह) मेहता==== | ====नरसी (नरसिंह) मेहता==== | ||
नरसी मेहता 15वीं सदी के [[गुजरात]] के एक प्रसिद्ध सन्त थे। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करने हेतु गुजराती में गीतों की रचना की। [[महात्मा गांधी]] के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेनो कहिए’ के रचयिता 'नरसी मेहता' ही थे। | नरसी मेहता 15वीं सदी के [[गुजरात]] के एक प्रसिद्ध सन्त थे। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करने हेतु गुजराती में गीतों की रचना की। [[महात्मा गांधी]] के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेनो कहिए’ के रचयिता 'नरसी मेहता' ही थे। | ||
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11:55, 18 मार्च 2011 का अवतरण
मध्य काल में भक्ति आन्दोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार भक्तों द्वारा की गई। दक्षिण भारत से उत्तर भारत में बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रामानन्द द्वारा यह आन्दोलन लाया गया। भक्ति आन्दोलन का महत्वपूर्ण उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आन्दोलन काफ़ी सफल रहा। शंकराचार्य के ‘अद्वैतदर्शन’ के विरोध में दक्षिण में वैष्णव संतों द्वारा 4 मतों की स्थापना की गई, जो निम्नलिखित है-
- 'विशिष्टाद्वैतवाद' की स्थापना 12वीं सदी में रामानुजाचार्य ने की।
- 'द्वैतवाद' की स्थापना 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने की।
- 'शुद्धाद्वैतवाद' की स्थापना 13वीं सदी में विष्णुस्वामी ने की।
- 'द्वैताद्वैवाद' की स्थापना 13वीं सदी में निम्बार्काचार्य ने की।
इन सन्तों ने भक्ति मार्ग को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हुए 'ज्ञान', 'भक्ति' और 'समन्वय' को स्थापित करने का प्रयास किया। इन सनतों की प्रवृति सगुण भक्ति की थी। इन्होंने राम, कृष्ण, शिव, हरि आदि के रूप में आध्यात्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। 14वीं एवं 15वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन का नेतृत्व कबीरदास के हाथों में था। इस समय रामानन्द, नामदेव, कबीर, नानक, दादू, रविदास (रैदास), तुलसीदास एवं चैतन्य महाप्रभु जैसे लोगों के हाथ में इस आन्दोलन की बागडोर थी।
भक्ति आन्दोलन के कारण
पीठ | स्थान |
---|---|
ज्योतिष्पीठ | बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड) |
गोवर्धनपीठ | पुरी (उड़ीसा) |
शारदापीठ | द्वारिका (गुजरात) |
श्रृंगेरीपीठ | मैसूर (कर्नाटक) |
मध्य काल में भक्ति आन्दोलन और सूफ़ी आन्दोलन अपने महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँच गए थे। इस काल में भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात एवं प्रचार-प्रसार के महत्वपूर्ण कारण निम्नलिखित थे-
- मुस्लिम शासकों के बर्बर शासन से कुंठित एवं उनके अत्यारों से त्रस्त हिन्दू जनता ने ईश्वर की शरण में अपने को अधिक सुरक्षित महसूस कर भक्ति मार्ग का सहारा लिया।
- हिन्दू एवं मुस्लिम जनता के आपस में सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्क से दोनों के मध्य सदभाव, सहानुभूति एवं सहयोग की भावना का विकास हुआ। इस कारण से भी भक्ति आन्दोलन के विकास में सहयोग मिला।
- सूफ़ी-सन्तों की उदार एवं सहिष्णुता की भावना तथा एकेश्वरवाद में उनकी प्रबल निष्ठा ने हिन्दुओं को प्रभावित किया; जिस कारण से हिन्दू, इस्लाम के सिद्धान्तों के निकट सम्पर्क में आये। इन सबका प्रभाव भक्ति आन्दोलन पर बहुत गहरा पड़ा।
- हिन्दुओं ने सूफ़ियों की तरह एकेश्वरवाद में विश्वास करते हुए ऊँच-नीच एवं जात-पात का विरोध किया।
- शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए बोधगम्य नहीं रह गया था।
- मंस्लिम शासकों द्वार आये दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के कारण, बिना मूर्ति एवं मंदिर के ईश्वर की अराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा, जिसके लिए उन्हें भक्ति मार्ग का सहारा लेना पड़ा।
आन्दोलन के प्रणेता
प्रवर्तक | सम्प्रदाय | मत | काल |
---|---|---|---|
शंकराचार्य | स्मृति सम्प्रदाय | अद्वैतवाद | 788-820 ई. |
रामानुजाचार्य | श्री सम्प्रदाय | विशिष्टाद्वैतावाद | 1017-1133 ई. |
निम्बार्काचार्य | सनक सम्प्रदाय | द्वैताद्वैतवाद | 1165 ई. (जन्म) |
मध्वाचार्य | ब्रह्मा सम्प्रदाय | द्वैतवाद | 1199-1278 ई. |
कबीरदास | कबीर पंथ | विशुद्ध द्वैतवाद | 1140-1510 ई. |
नानक | सिक्ख सम्प्रदाय | - | 1469-1538 ई. |
बल्लभाचार्य | रुद्र सम्प्रदाय | शुद्धाद्वैतावाद | 1479-1531 ई. |
चैतन्य महाप्रभु | मध्य गौडीय सम्प्रदाय | अचिंत्य भेदाभेदवाद | 1486-1533 ई. |
दादू दयाल | दादूपंथ/निपख सम्प्रदाय | - | 1544-1603 ई. |
तुकाराम | वारकरी सम्प्रदाय | - | 1598-1650 ई. |
हितहरी वंश | राधा वल्लभ सम्प्रदाय | - | - |
भाष्कराचार्य | - | भेदाभेवाद | - |
श्रीकंठ | - | शैव विशिष्टाद्वैत | - |
श्रीपति | - | वीर शैव विशिष्टाद्वैत | - |
विभान भिक्षु | - | अविभागाद्वैत | - |
भक्ति आन्दोलन को प्रेरणा प्रदान करने वाले निम्न महापुरुष थे-
रामानन्द
भक्ति आन्दोलन को दक्षिण से उत्तर में लाने का श्रेय रामानन्द को ही दिया जाता है। वे रामानुज की पीड़ी के प्रथम संत थे। उन्होंने सभी जातियों एवं धर्म के लोगों को अपना शिष्य बनाकर एक तरह से जातिवाद पर कड़ा प्रहार किया। उनके शिष्यों में कबीर (जुलाहा), सेना (नाई), रैदास (चमार) आदि थे। उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल देते हुए राम की उपासना की बात कही। सम्भवतः हिन्दी में उपदेश देने वाले प्रथम वैष्णव संत रामानन्द ही थे।
कबीर
कबीर का जन्म 1440 ई. में वाराणसी में हुआ था। ये सुल्तान सिकन्दर शाह लोदी के समकालीन थे। सूरत गोपाल इनका मुख्य शिष्य था। मध्यकालीन संतों में कबीरदास का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक योगदान निःसन्देह अविस्मरणीय है। एक महान समाज सुधारक के रूप में उन्होंने समाज में व्याप्त हर तरह की बुराइयों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया, जिनमें उन्हे काफ़ी हद तक सफलता भी मिली। कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह, आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माना। उन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकाण्ड, बाहरी आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए एकेश्वरवाद में आस्था एवं निराकार ब्रह्मा की उपासना को महत्व दिया। कबीर ने ईश्वर प्राप्ति हेतु शुद्ध प्रेम, पवित्रता एवं निर्मल हदय की आवश्यकता बताई। कबीर ने कहा था कि “हे माधव! अपनी कंठी माला ले लो, क्योंकि भूखे पेट मैं तुम्हारा भजन नहीं कर सकता।” निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने सन्त होने के बाद भी पूर्णतः सहिष्णुता की भावना को बनाये रखते हुए धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा किया। कबीर ने अपना सन्देश अपने दोहों के माध्यम से जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया। इनके अनुयायी कबीरपंथी कहलाये। इसमें हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों सम्प्रदायों के लोग शामिल थे। कबीर की प्रमुख रचनाओं में साखी, सबद, रमैनी, दोहा, होली, रेखताल आदि प्रमुख है। कबीर की मुत्यु 1510 ई. में मगहर में हुई। ये रामानन्द के शिष्य तथा सिकन्दर लोदी के समकालीन थे।
गुरुनानक (1469-1539 ई.)
गुरु | काल | प्रमुख उपलब्धियाँ |
---|---|---|
गुरु नानकदेव | 1469-1539 ई. | सिक्ख धर्म के प्रवर्तक |
गुरु अंगद | 1538-1552 ई. | गुरुमुखी लिपि के जनक |
गुरु अमरदास | 1552-1574 ई. | - |
गुरु रामदास | 1574-1581 ई. | अमृतसर के संस्थापक |
गुरु अर्जुन | 1581-1606 ई. | स्वर्ण मंदिर की स्थापना |
गुरु हरगोविंद सिंह | 1606-1645 ई. | अकाल तख्त की स्थापना |
गुरु हरराय | 1645-1661 ई. | - |
गुरु हरकिशन | 1661-1664 ई. | - |
गुरु तेग बहादुर सिंह | 1664-1675 ई. | - |
गुरु गोविन्द सिंह | 1675-1708 ई. | खालसा सेना का संगठन |
गुरुनानक का जन्म 1569 में तलवन्डी नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम कालू तथा माता का नाम तृप्ता था। कबीर के बाद तत्कालीन समाज को प्रभावित करने वालों में नानक का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने बिना किसी वर्ग पर आघात किये ही उसके अन्दर छिपे कुसंस्कारों को नष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के वाह्म आडम्बर, जात-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच, उपवास, मूर्तिपूजा, अन्ध-विश्वास, बहु-देववाद आदि की आलोचना की। उन्होंने हिन्दू-मुस्जिम एकता, सच्ची ईश्वर भक्ति और सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया। निरंकार ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष की संज्ञा दी। उनका दृष्टिकोण विशाल मानवतावादी था। उनके उपदेशों को सिक्ख पंथ के पवित्र ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में संकलित किया गया है।
चैतन्य (1486 से 1533 ई.)
बंगाल में भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक चैतन्य ने सगुण भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए, कृष्ण भक्ति पर विशेष बल दिया। अन्य सन्तों की तरह चैतन्य ने भी जात-पात एवं अनावश्यक धार्मिक कुरीतियों का विरोध किया। चैतन्य ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन, उपासना आदि को महत्व दिया। चैतन्य के अनुसार प्रेम तथा भक्ति, नृत्य एवं संगीत, लीला एवं कीर्तन से सगुण ब्रह्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। चैतन्य महाप्रभु ने ‘गोसाई संघ’ की स्थापना की और साथ ही ‘संकीर्तन प्रथा’ को जन्म दिया। उनके दार्शनिक सिद्धान्त को ‘अचिंत्य भेदाभेदवाद’ के नाम से जाना जाता है। चैतन्य के अनुयायी उन्हें कृष्ण या विष्णु का अवतार मानते हैं तथा 'गौरांगमहाप्रभु' के नाम से पूजते हैं। चैतन्य का प्रभाव बंगाल के अतिरिक्त बिहार एवं उड़ीसा में भी था। सगुणोपसना को चैतन्य के अतिरिक्त बल्लभाचार्य, तुलसीदास, सूरदास एवं मीराबाई ने भी अपनाया।
रैदास
रैदास चमार जाति के थे। वे रामानन्द के बारह शिष्यों में से एक थे। ये बनारस में मोची का काम करते थे। निर्गुण ब्रह्मा के उपासक रैदास ने हिन्दू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं माना। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे, किन्तु उन्होंने अवतारवाद का खण्डन किया। उन्होंने ‘रायदासी सम्प्रदाय’ की स्थापना की।
दादू दयाल
अन्य सन्तों की तरह अन्ध विश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात, तीर्थयात्रा आदि के विरोधी दादू ने आचरण एवं चरित्र की शुद्धता पर बल दिया। दादू द्वारा स्थापित ‘दादूपंथी’ एक भेदभाव मुक्त पंथ है। उनके समय में ‘निपक्ष’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की गई।
सुन्दरदास
सुन्दरदास दादू दयाल के शिष्य, एक कवि और सन्त थे। उनका जन्म राजस्थान के बनिया परिवार में हुआ था। उनके विचार ‘सुन्दर विलास’ नामक पुस्तक में मिलते हैं।
वीरभान
इनका जन्म पंजाब के 'नारनौल' के समीप हुआ। उन्होंने सतनामियों के सम्प्रदाय की स्थापना की। सतनामियों की धर्मपुस्तक का नाम ‘पोथी’ है। उन्होंने जातिवाद एवं मूर्तिपूजा का खण्डन किया।
बहिनाबाई
बहिनाबाई महाराष्ट्र की एक महिला संत थीं। वह तुकाराम को अपना गुरु मानती थीं।
निम्बार्काचार्य
इनका जन्म तमिलनाडु के 'बेल्लारी' में हुआ था। इन्हें 'सुदर्शन चक्र' का अवतार माना जाता है। इन्होंने 'सनक सम्प्रदाय' की स्थापना की तथा 'द्वैताद्वैतवाद' नामक दर्शन दिया।
मध्वाचार्य
इनको 'आनंदतीर्थ' एवं 'पूर्णप्रज्ञ' आदि नामों से भी जाना जाता है। इन्होंने 'द्वैतवाद' का प्रतिपाद किया।
बल्लभाचार्य
बल्लभाचार्य ने कृष्णदेव राय के समय विजयनगर में वैष्णव सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की। वे द्वैतवाद में विश्वास करते थे और 'श्रीनाथजी' के रूप में उन्होंने कृष्ण भक्ति पर बल दिया। उनके महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थों में 'सुबोधिनी' और 'सिद्धान्त रहस्य' शामिल हैं। उनका अधिकतम समय काशी और वृंदावन में व्यतीत हुआ। इलाहाबाद में उन्होंने चैतन्य से भेंट की थी। भक्ति और प्रेम के प्रति उनका अत्यधिक झुकाव था इसी कारण उन्होंने रास-लीलाओं को अपना समर्थन दिया। इनका जन्म 1479 ई. में वाराणसी में हुआ। विष्णु स्वामी के रुद्र सम्प्रदाय का इनके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने 'शुद्धाद्वैतवाद' दर्शन दिया। बल्लभाचार्य के अनुयायी 'अवटछाप' नाम से विख्यात हुए।
रामानुज
रामानुज का जन्म 1017 ई. में तिरुपति नामक स्थान पर हुआ था। माता का नाम 'कान्ति देवी' तथा 'पिता' का नाम 'असुरि केशव सोमथजी' था। इनका बचपन का नाम 'लक्ष्मण' था। इनका दार्शनिक मत 'विशिष्टाद्वैतवाद' तथा सम्प्रदाय, श्री सम्प्रदाय था। चोल शासक कुलोत्तुंग द्वितीय से मतभेद के कारण 'रामानुज' होयसल शासक विष्णुवर्धन के दरबार में चले गए और उसे वैष्णव सम्प्रदाय का अनुयायी बनाया।
रामानन्द
रामानन्द का जन्म 1299 ई. में इलाहाबाद में हुआ था। ये 'राघावानन्द' के शिष्य थे। कृष्ण और राधा की भक्ति के स्थान पर इन्होंने राम और सीता की भक्ति को आरम्भ किया। रामानन्द को दक्षिण और उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलनों के बीच का सेतु माना जाता है। उनके शिष्यों में धन्ना (जाट), सेना (नाई), रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा), पीपा (राजपूत) आदि प्रमुख थे।
मीराबाई
मीराबाई का जन्म 198 ई. में मेड़ा ज़िले के 'कुदकी' नामक ग्राम मे हुआ था। वे 'सिसोदिया वंश' की राजकुमारी थीं। इनका विवाह सिसोदिया वंश के राणा साँगा के पुत्र भोजराज से हुआ था। मीराबाई के ईष्ट देव श्रीकृष्ण थे।
सूरदास
सूरदास का जन्म 1478 ई. में रुनकता नामक ग्राम में हुआ था। वे बल्लभाचार्य के शिष्य थे। सूरदास को 'पुष्टिमार्ग' का जहाज़ कहा जाता है। वे 'अष्टछाप' के कवि थे। उन्होंने ब्रजभाषा में तीन ग्रन्थों की रचना की, जो 'सूरसागर', 'सूरसरावली' तथा 'साहित्य लहरी' के नाम से जानी जाती हैं।
तुलसीदास
तुलसीदास का जन्म 1523 ई. में बाँदा ज़िले के 'राजापुर' नामक ग्राम में हुआ था। वे मुग़ल शासक अकबर के समकालीन थे। उन्होंने ईश्वर के सगुण रूप को स्वीकार करते हुए राम को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी भक्ति पर विशेष बल दिया। तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की। इसके अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थों में- 'वैराग्य संदीपनी', 'श्रीकृष्ण गीतावली' तथा 'विनयपत्रिका' आदि प्रमुख हैं।
महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन
सन्त | काल |
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नामदेव | 1270-1350 ई. |
ज्ञानेश्वर (ज्ञानदेव) | 1271-1296 ई. |
एकनाथ | 1533-1599 ई. |
तुकाराम | 1598-1650 ई. |
रामदास | 1608-1681 ई. |
मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन को विकसित करने तथा लोकप्रिय बनाने में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महाराष्ट्र में भक्ति पंथ 'पण्ढरपुर' के मुख्य देवता 'विठोवा' या 'बिट्ठल' के मन्दिर के चारों ओर केन्द्रित था। विट्ठल या विठोवा को कृष्ण का अवतार माना जाता था, इसलिए यह आन्दोलन पण्ढरपुर आन्दोलन के रूप में प्रसिद्ध हुआ महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन मुख्य रूप से दो सम्प्रदायों में विभक्त था-
- वारकरी सम्प्रदाय- पण्ढरपुर के विट्ठल भगवान के सौम्य भक्तों का सम्प्रदाय। यह रहस्यवादियों का सम्प्रदाय थां।
- धरकरी सम्प्रदाय- भगवान राम के भक्तों का सम्प्रदाय। इसके अनुयायी स्वयं को 'रामदास' अविहित करते हैं।
'निवृत्तिनाथ' तथा 'ज्ञानेश्वर', महाराष्ट्र में रहस्यवादी सम्प्रदाय के संस्थापक थे तथा आगे चलकर नामदेव, एकनाथ और तुकाराम द्वारा विभिन्न रूप धारण किए।
ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव (1271-1296 ई.)
महाराष्ट्र के भक्ति आंन्दोलन को लोकप्रिय बनाने में 'ज्ञानेश्वर' का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने मराठी भाषा में श्रीमद्भागवत पर 'ज्ञानेश्वरी' नामक टीका लिखी।
नामदेव (1270-1305 ई.)
नामदेव, संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। इनका जन्म एक दर्जी परिवार में हुआ था। प्रारम्भ में ये डाकू थे। ये क्रान्तिकारी स्वभाव के थे। उनका मार्ग निर्गुण भक्ति का था। उन्होंने जाति व्यवस्था तथा छुआछूत का ज़ोरदार खण्डन किया और ईश्वर की एकता पर बल दिया। उन्होंने मराठी भाषा के माध्यम से केवल महाराष्ट्र के सन्तों के लिए ही नहीं, बल्कि मराठों के राजनीतिक उन्नयन के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किया। नामदेव ने दूर-दूर तक यात्रा की तथा दिल्ली में सूफ़ी सन्तों से वाद-विवाद भी किया। नामदेव ने कहा था कि, “एक पत्थर की पूजा होती है, तो दूसरों को पैरों तले रौंदा जाता है। यदि एक भगवान है, तो दूसरा भी भगवान है”।
एकनाथ (1533-1599 ई.)
इनका जन्म 'पैठन' (औरंगाबाद) में हुआ था। इन्होंने पहली बार 'ज्ञानेश्वरी' का विश्वसनीय संस्करण प्रकाशित करवाया। इन्होंने मराठी भाषा में ‘भावार्थ रामायण’ की रचना की।
तुकाराम (1598-1650 ई.)
तुकाराम शिवाजी के समकालीन थे। इनका जन्म 1608 ई. में पूना के निकट 'देही' नामक परिवार में हुआ था। इन्होंने कभी दरबारी जीवन को स्वीकार नहीं किया। शिवाजी द्वारा दिए गए विपुल उपहारों की भेंट को इन्होंने लेने से इन्कार कर दिया। तुकाराम ने निर्गुण ब्रह्मा को स्वीकार किया तथा हिन्दू-मुसलमान एकता पर बल दिया। इन्होंने 'बरकरी पंथ' की स्थापना की थी।
रामदास (1608-1681 ई.)
इनका जन्म 1608 ई. में हुआ था। इन्होंने 12 वर्षों तक पूरे भारत का भ्रमण किया तथा अन्त में कृष्णा नदी के तट पर 'चफाल' के पास बस गए तथा वहीं पर इन्होंने एक मंदिर की स्थापना की। ये शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे। इनकी महत्वपूर्ण रचना 'दासबोध' हैं, जिसमें इन्होंने समन्वयवादी सिद्धान्त के साथ-साथ विविध विज्ञानों एवं कलाओं के अपने विस्तृत ज्ञान को संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया है। इसके अतिरिक्त 'हेमाद्रि', 'चक्रधर' और 'रामनाथ' आदि की गणना भी महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्तों में की जाती है।
अन्य प्रमुख संन्त
कुछ अन्य धर्म प्रचारक व सुधारक सन्त, जिन्होंने समाज में अपना बहुमूल्य योगदान दिया, उंनका विवरण निम्न प्रकार से है-
शंकरदेव (1449-1568 ई.)
ये मध्यकालीन असम के महानतम धार्मिक सुधारक थे। इनका संदेश विष्णु या उनके अवतार कृष्ण के प्रति पूर्ण भक्ति पर केन्द्रित था। एकेश्वरवाद इनकी शिक्षा का केन्द्र था। इनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय एक शरण सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध है। इन्होंने सर्वोच्च देवता के महिला सहयोगियों को मान्यता प्रदान नहीं की है। शंकरदेव द्वारा स्थापित 'एकशरण सम्प्रदाय' में भागवतपुराण या श्रीमद्भागवत को मंदिरों की वेदी पर श्रद्धापूर्वक रखा जाता है। शंकरदेव एक मात्र ऐसे सन्त थे, जो मूर्ति के रूप में कृष्ण की पूजा के विरोधी थे। इनके धर्म को सामान्यतः महापुरुषीय धर्म के रूप में जाना जाता है।
नरसी (नरसिंह) मेहता
नरसी मेहता 15वीं सदी के गुजरात के एक प्रसिद्ध सन्त थे। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करने हेतु गुजराती में गीतों की रचना की। महात्मा गांधी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेनो कहिए’ के रचयिता 'नरसी मेहता' ही थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ