"यशवंतसिंह": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''राजा यशवंत सिंह'''<br />
'''राजा यशवंत सिंह'''<br />
[[जोधपुर]] नरेश यशवंत सिंह [[औरंगज़ेब]] के दरबार का एक प्रभावशाली सामंत था। उससे पीछा छुड़ाने को औरंगज़ेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर-पश्चिम में [[क़ाबुल]] का सूबेदार बना कर भेज दिया था । [[क़ाबुल]] सूबे के [[ख़ैबर दर्रा|ख़ैबर दर्रे]] में उन दिनों क़बाइली [[पठान|पठानों]] ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए [[मुग़ल|मु्ग़लों]] के कई [[सूबेदार]] मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगज़ेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह [[क़ाबुल]] में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका [[क़ाबुल]] में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की [[दाह क्रिया|दाह−क्रिया]] [[क़ाबुल]] में ही हुई थी और उसके [[अस्थि अवशेष|अस्थि−अवशेष]] [[आगरा]] लाये गये थे। उनके साथ उनकी 9 रानियाँ आगरा में सती हुई थी। उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तक विद्यमान है।
*राजा यशवंतसिंह चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल सेनानी और वीर योद्धा होने के साथ ही साथ कवि, साहित्याचार्य और तत्वज्ञानी था तथा साहित्यकारों एवं विद्वानों का वह आश्रयदाता था। [[हिन्दी]] साहित्य में उसकी प्रसिद्धि काव्यशास्त्र के आचार्य के रूप में है। उसका '''"भाषाभूषण"''' ग्रंथ हिन्दी [[अलंकार]] शास्त्र  की एक प्रसिद्ध रचना है। उसके अतिरिक्त उसके कई ग्रंथ [[तत्वज्ञान]] से संबंधित हैं।
<blockquote>यह वही राजा यशवंत सिंह है जिसने औरंगज़ेब को यह बताने के लिए कि राजपूत शेर से भी नहीं डरते, अपने बेटे पृथ्वी सिंह को निहत्था ही शेर से लड़ा दिया था। यह प्रसंग एक लोक-कथा और लोक-गीत के रूप में उत्तरी भारत में प्रचलित है।</blockquote>


[[जोधपुर]] नरेश यशवंत सिंह [[औरंगज़ेब]] के दरबार का एक प्रभावशाली सामंत था। उससे पीछा छुड़ाने को औरंगज़ेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर-पश्चिम में [[क़ाबुल]] का सूबेदार बना कर भेज दिया था । [[क़ाबुल]] सूबे के [[ख़ैबर दर्रा|ख़ैबर दर्रे]] में उन दिनों क़बाइली [[पठान|पठानों]] ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए [[मुग़ल|मु्ग़लों]] के कई [[सूबेदार]] मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगज़ेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह [[क़ाबुल]] में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका [[क़ाबुल]] में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की [[दाह क्रिया|दाह−क्रिया]] [[क़ाबुल]] में ही हुई थी और उसके [[अस्थि अवशेष|अस्थि−अवशेष]] [[आगरा]] लाये गये थे । उनके साथ उनकी 9 रानियाँ आगरा में सती हुई थी । उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तब विद्यमान है।
राजा यशवंतसिंह चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल सेनानी और वीर योद्धा होने के साथ ही साथ कवि, साहित्याचार्य और तत्वज्ञानी था तथा साहित्यकारों एवं विद्वानों का वह आश्रयदाता था। [[हिन्दी]] साहित्य में उसकी प्रसिद्धि काव्यशास्त्र के आचार्य के रूप में है। उसका '''"भाषाभूषण"''' ग्रंथ हिन्दी [[अलंकार]] शास्त्र  की एक प्रसिद्ध रचना है। उसके अतिरिक्त उसके कई ग्रंथ [[तत्वज्ञान]] से संबंधित हैं।
<blockquote>यह वही राजा यशवंत सिंह है जिसने औरंगज़ेब को यह बताने के लिए कि राजपूत शेर से भी नहीं डरते, अपने बेटे पृथ्वी सिंह को निहत्था ही शेर से लड़ा दिया था। यह प्रसंग एक लोक-कथा और लोक-गीत के रूप में उत्तरी भारत में प्रचलित है।</blockquote>


[[Category:इतिहास कोश]]
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]]
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]]
[[Category:राजस्थान_का_इतिहास]]
[[Category:राजस्थान_का_इतिहास]]
 
[[Category:इतिहास कोश]]


__INDEX__
__INDEX__

07:40, 27 अप्रैल 2011 का अवतरण

राजा यशवंत सिंह
जोधपुर नरेश यशवंत सिंह औरंगज़ेब के दरबार का एक प्रभावशाली सामंत था। उससे पीछा छुड़ाने को औरंगज़ेब ने उसे राजधानी से बहुत दूर उत्तर-पश्चिम में क़ाबुल का सूबेदार बना कर भेज दिया था । क़ाबुल सूबे के ख़ैबर दर्रे में उन दिनों क़बाइली पठानों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था । उनसे संघर्ष करते हुए मु्ग़लों के कई सूबेदार मारे जा चुके थे । यशवंत सिंह औरंगज़ेब की धूर्तता को समझता था और अपनी वृद्धावस्था में उस कठिन अभियान के लिए इतनी दूर जाना भी नहीं चाहता था, किंतु शाही कोप से बचने के लिए वह चला गया था। सन् 1671 से सन् 1679 तक के 8 वर्षों में वह क़ाबुल में ही रहा था । उस काल में उसने पठान उपद्रवियों को दबा कर वहाँ शांति और व्यवस्था कायम कर दी थी । अंत में 10 दिसंबर 1679 में उसका क़ाबुल में ही देहांत हो गया । ऐसा जान पड़ता है यशवंत सिंह की दाह−क्रिया क़ाबुल में ही हुई थी और उसके अस्थि−अवशेष आगरा लाये गये थे। उनके साथ उनकी 9 रानियाँ आगरा में सती हुई थी। उक्त स्थल पर एक छतरी बनाई गई जो अभी तक विद्यमान है।

  • राजा यशवंतसिंह चतुर राजनीतिज्ञ, कुशल सेनानी और वीर योद्धा होने के साथ ही साथ कवि, साहित्याचार्य और तत्वज्ञानी था तथा साहित्यकारों एवं विद्वानों का वह आश्रयदाता था। हिन्दी साहित्य में उसकी प्रसिद्धि काव्यशास्त्र के आचार्य के रूप में है। उसका "भाषाभूषण" ग्रंथ हिन्दी अलंकार शास्त्र की एक प्रसिद्ध रचना है। उसके अतिरिक्त उसके कई ग्रंथ तत्वज्ञान से संबंधित हैं।

यह वही राजा यशवंत सिंह है जिसने औरंगज़ेब को यह बताने के लिए कि राजपूत शेर से भी नहीं डरते, अपने बेटे पृथ्वी सिंह को निहत्था ही शेर से लड़ा दिया था। यह प्रसंग एक लोक-कथा और लोक-गीत के रूप में उत्तरी भारत में प्रचलित है।