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'''मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान''', जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, [[उर्दू]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म [[आगरा]] में [[27 दिसम्बर]], 1797 में हुआ था। उनके दादा 'मिर्ज़ा कोकब ख़ान' समरकंद से [[भारत]] आए थे। बाद में वे [[लाहौर]] में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा कोकब ख़ान के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग, नवाब [[आसफ़उद्दौला]] की फ़ौज में शामिल हुए और फिर [[हैदराबाद]] से होते हुए अलवर के राजा बख्तावर सिंह के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे।
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==वंश परम्परा==
'''ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है'''। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में [[पारसी धर्म]] के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी'<ref>अंगूर से सम्बन्ध रखने वाली या एक प्रकार की मदिरा</ref> को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)<ref>जामेजम-कहते हैं, जमशेद ने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था, जिससे संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओं का ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है, इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी, जिसे पीने पर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दिखने लगते होंगे। जामेजम के लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमा, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।</ref> अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।
 
फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों-एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को [[ईरान]] का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
==दादा और पिता==
'''तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ''', शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक [[लाहौर]] में रहे, और फिर [[दिल्ली]] चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे।
 
अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।<ref>ग़ालिब की रचनाएँ-कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला, देखने से मालूम होता है कि उनके पिता अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, जिन्हें 'मिर्ज़ा दूल्हा' भी कहा जाता था, पहले [[लखनऊ]] जाकर नवाब [[आसफ़उद्दौला]] की सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से [[हैदराबाद]] चले गए और नवाब निज़ाम अलीख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारों के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज़्यादा दिन नहीं टिके और [[अलवर]] पहुँच गए तथा वहाँ के राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 ई. में वहीं गढ़ी की लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। पर पिता की मृत्यु के बाद भी वेतन असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई यूसुफ़ को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला था।</ref> अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी [[आगरा]] (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।
 
 
 
 
 
 
==शिक्षा==
==शिक्षा==
'''मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल''' में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी [[मुसलमान]] 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे।
'''मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल''' में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी [[मुसलमान]] 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे।
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'''मिर्ज़ा ग़ालिब ने केवल कविता में ही नही''', गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिस पर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि, ग़ालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्र-संग्रह, ‘उर्दु-ए-हिन्दी’ तथा ‘उर्दु-ए-मुअल्ला’ ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] [[अरबी भाषा|अरबी]] की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। ग़ालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि, वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक नहीं लिख सका। ग़ालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि, उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कच्चाइयाँ भी, तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।
'''मिर्ज़ा ग़ालिब ने केवल कविता में ही नही''', गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिस पर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि, ग़ालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्र-संग्रह, ‘उर्दु-ए-हिन्दी’ तथा ‘उर्दु-ए-मुअल्ला’ ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] [[अरबी भाषा|अरबी]] की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। ग़ालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि, वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक नहीं लिख सका। ग़ालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि, उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कच्चाइयाँ भी, तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।
==बेहतरीन शायर==
==बेहतरीन शायर==
'''मिर्ज़ा असदुल्ला बेग़ ख़ान''' 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा [[अरब]] एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।  
'''मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान''' 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा [[अरब]] एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।  
==ग़ालिब का दीवान==
==ग़ालिब का दीवान==
उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

14:30, 27 अप्रैल 2011 का अवतरण

ग़ालिब
पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब'
जन्म 27 दिसम्बर 1797
जन्म भूमि आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869
पति/पत्नी उमराव बेगम
कर्म भूमि दिल्ली
कर्म-क्षेत्र शायर
मुख्य रचनाएँ 'दीवाने-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
विषय उर्दू शायरी
भाषा उर्दू और फ़ारसी भाषा
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान, जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 ई. में हुआ और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 ई. में हुई। उनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा था। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।

वंश परम्परा

ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में पारसी धर्म के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी'[1] को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)[2] अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।

फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों-एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को ईरान का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।

दादा और पिता

तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ, शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक लाहौर में रहे, और फिर दिल्ली चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे।

अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।[3] अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।




शिक्षा

मिर्ज़ा ग़ालिब का लालन-पालन ननिहाल में हुआ। एक विद्वान मिर्ज़ा मुअज्ज़म ने इन्हें शिक्षा दी। इन्होंने चौदह वर्ष की अवस्था में एक पारसी मुसलमान 'अब्दुस्समद' से दो वर्ष तक फ़ारसी की शिक्षा प्राप्त की। उर्दू एवं फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे शायर हो गये थे।

विवाह तथा बच्चों की मृत्यु

जब मिर्ज़ा ग़ालिब 13 वर्ष के थे, तब उनका निकाह 'नवाब इलाही बख्श ख़ान' की बेटी 'उमराव बेगम' से हुआ। उनके सात बच्चे भी हुए थे, पर इन सातों बच्चों की भी एक के बाद एक मोत हो गई। मिर्ज़ा की निजी ज़िंदगी सचमुच दर्द की एक लम्बी दास्ताँ थी। तभी तो उन्होंने लिखा था कि-

दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों.

प्राध्यापकी से इन्कार

जागीर के बदले में मिर्ज़ा को जो पेंशन मिलती थी, वह सन 1829 में बंद हो गई। इसके लिए यह कलकत्ता गए और दो वर्ष इसमें व्यतीत कर असफल लौट आए। लौटते समय यह बनारस तथा लखनऊ होते हुए गए थे। अवध के शाह 'नसीरुद्दीन हैदर' ने एक कसीदे पर प्रसन्न होकर इन्हें पाँच सौ रुपए वार्षिक वृत्ति नियत की थी। सन 1841 ई. में दिल्ली कॉलेज की फ़ारसी की प्राध्यापकी इन्होंने इस कारण अस्वीकर कर दी कि, आगरा सरकार के सेक्रेटरी ने इनको उचित सम्मान नहीं दिया था। जब ग़ालिब पालकी में सवार होकर कॉलेज पहुँचे थे, तब वहाँ पर कोई भी उनके स्वागत और आगवानी के लिए गेट पर नहीं आया। इस पर ग़ालिब भी कॉलेज के अंदर नहीं गए। उन्होंने कहा कि, मेरे स्वागत के लिए कोई बाहर नहीं आया, इसलिए मैं भी अंदर नहीं जाऊँगा। मैं ये नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि, मुझे लगा था कि इससे मेरे खानदान की इज्ज़त बढ़ेगी, इसलिए नहीं की इज्ज़त में कमी आ जाए। ग़ालिब अपनी यह बात कहकर वहाँ से वापस चले आए।

पदवी तथा मासिक वृत्ति

सन 1841 में दिल्ली के दरबार से इन्हें 'नज्मुद्दौला दबीरुलमुल्क निज़ाम जंग पदवी' और पचास रुपए मासिक वृत्ति मिली। रामपुर के नवाब 'यूसुफ़ अली ख़ाँ' इनके शिष्य हो चुके थे। सन 1849 ई. में यह रामपुर गए और कुछ दिन रहकर दिल्ली लौट आए। इन्हें वहाँ से एक सौ रुपए मासिक मिलता था। इनकी पेंशन भी इसी समय मिलने लगी, जिससे यह अंत तक दिल्ली ही में रहे।

काव्यशैली में परिवर्तन

मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू की ‘दीवाने ग़ालिब’ ही है। इन्होंने जब उर्दू में कविता करना आरंभ किया, उसमें फ़ारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि, वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत-सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि, वह सबके समझने योग्य हो गई।

विचार तथा दृष्टिकोण

ग़ालिब की कविता में प्राचीन बातों के सिवा उनके अपने समय के समाज की प्रचलित बातें भी हैं और इससे भी बढ़कर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है, जो पहले-पहल उर्दू कविता में दिखलाई पड़ता है। धर्म तथा समाज के बँधें नियमों तथा रीतियों की हँसी उड़ाने का इनमें साहस था और यह अपने समय के तथा भविष्य में आने वाले समाज को अच्छी प्रकार समझते थे। वह मानव जीवन तथा कविता के संबंध को जानते थे और इन सबके वर्णन के लिए इनकी शैली ऐसी अनोखी तथा तीखी थी, जो न पहले और न बाद में दिखलाई पड़ी। मानव जीवन के प्रति इनके विचार बहुत अच्छे हैं।

विनोदप्रिय व मदिरा प्रेमी

मिर्ज़ा ग़ालिब जीवन संघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि, इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। वह मदिरा प्रेमी भी थे, इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि, उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।

नए गद्य के प्रवर्तक

मिर्ज़ा ग़ालिब ने केवल कविता में ही नही, गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिस पर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि, ग़ालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्र-संग्रह, ‘उर्दु-ए-हिन्दी’ तथा ‘उर्दु-ए-मुअल्ला’ ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे फ़ारसी अरबी की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। ग़ालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि, वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक नहीं लिख सका। ग़ालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि, उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कच्चाइयाँ भी, तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।

बेहतरीन शायर

मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।

ग़ालिब का दीवान

उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

रचनाएँ

ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएँ 'लतायफे गैबी', 'दुरपशे कावेयानी', 'नामाए ग़ालिब', 'मेह्नीम' आदि गद्य में हैं। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने 1857 ई. के बलवे का आँखों देखा विवरण फ़ारसी गद्य में लिखा हैं। ग़ालिब ने निम्न रचनाएँ भी की हैं-

  1. 'उर्दू-ए-हिन्दी'
  2. 'उर्दू-ए-मुअल्ला'
  3. 'नाम-ए-ग़ालिब'
  4. 'लतायफे गैबी'
  5. 'दुवपशे कावेयानी' आदि।

इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है।

निधन

ग़ालिब 72 वर्ष की आयु में परलोक सिधारे। दिल्ली में 15 फ़रवरी, सन 1869 ई. को इनकी मृत्यु हुई। निज़ामुद्दीन औलिया के पास चौसठ खंभे में इनका भी मक़बरा है।

बाहरी कड़ियाँ

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  1. अंगूर से सम्बन्ध रखने वाली या एक प्रकार की मदिरा
  2. जामेजम-कहते हैं, जमशेद ने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था, जिससे संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओं का ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है, इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी, जिसे पीने पर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दिखने लगते होंगे। जामेजम के लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमा, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।
  3. ग़ालिब की रचनाएँ-कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला, देखने से मालूम होता है कि उनके पिता अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, जिन्हें 'मिर्ज़ा दूल्हा' भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौला की सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अलीख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारों के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज़्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँच गए तथा वहाँ के राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 ई. में वहीं गढ़ी की लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। पर पिता की मृत्यु के बाद भी वेतन असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई यूसुफ़ को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला था।