"पद्मिनी (रानी)": अवतरणों में अंतर
('{{tocright}} रानी पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
रानी पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की अद्वितीय | रानी पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की अद्वितीय सुंदर पुत्री थी। रानी पद्मिनी का [[विवाह]] [[चित्तौड़]] के राजा रत्नसिंह के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी के रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। रानी पद्मिनी की ख़ूबसूरती पर [[दिल्ली]] के सुल्तान [[अलाउद्दीन ख़िलज़ी]] की नजर पड़ गई। अलाउद्दीन किसी भी कीमत पर रानी पद्मिनी को हासिल करना चाहता था, इसलिए उसने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। पद्मिनी संबंधी कथाओं में सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि अलाउद्दीन ऐसा कर सकता था लेकिन किसी विश्वसनीय तथा लिखित प्रमाण के अभाव में ऐतिहासिक दृष्टि से इसे पूर्णतया सत्य मान लेना कठिन है। | ||
==उल्लेख== | ==उल्लेख== | ||
सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित [[अमीर खुसरो]] ने एक इतिहासलेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और [[गुजरात]] की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] इतिहासलेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत'<ref>'पद्मावत' (रचनाकाल 1540 ई.)</ref> की रचना के 70 वर्ष पश्चात सन 1610 में 'पद्मावत' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। | |||
सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित [[अमीर खुसरो]] ने एक इतिहासलेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और [[गुजरात]] की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] इतिहासलेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल | |||
ओझा जी का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फरिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यहीं है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रत्नसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने [[राजपूत]] रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी। | ओझा जी का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फरिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यहीं है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रत्नसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने [[राजपूत]] रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी। | ||
==ओझा के अनुसार== | ==ओझा के अनुसार== | ||
ओझा जी के अनुसार पद्मिनी की स्थिति सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में तो घोर अनैतिहासिक है। ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये कुंभलगढ़ का जो प्रशस्तिलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु 1303 ई. के 157 वर्ष पश्चात सन 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। भट्टकाव्यों, ख्यातों और अन्य प्रबंधों के अलावा परवर्ती काव्यों में प्रसिद्ध 'पद्मिनी के महल' और 'पद्मिनी के तालाब'<ref>(देखिए [[चित्तौड़]])</ref> जैसे स्मारकों के बावज़ूद किसी ठोस ऐतिहासिक प्रमाण के बिना रत्नसिंह की रानी को पद्मिनी नाम दे देना अथवा पद्मिनी को हठात् उसके साथ जोड़ देना असंगत है। संभव है | ओझा जी के अनुसार पद्मिनी की स्थिति सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में तो घोर अनैतिहासिक है। ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये [[कुंभलगढ़]] का जो प्रशस्तिलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु 1303 ई. के 157 वर्ष पश्चात सन 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। भट्टकाव्यों, ख्यातों और अन्य प्रबंधों के अलावा परवर्ती काव्यों में प्रसिद्ध 'पद्मिनी के महल' और 'पद्मिनी के तालाब'<ref>(देखिए [[चित्तौड़]])</ref> जैसे स्मारकों के बावज़ूद किसी ठोस ऐतिहासिक प्रमाण के बिना रत्नसिंह की रानी को पद्मिनी नाम दे देना अथवा पद्मिनी को हठात् उसके साथ जोड़ देना असंगत है। यह संभव है कि सतीत्वरक्षा के निमित्त जौहर की आदर्श परंपरा की नेत्री चित्तौड़ की अज्ञातनामा रानी को, चारणों आदि ने, शास्त्रप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ नायिका पद्मिनी नाम देकर तथा [[सती प्रथा]] संबंधी पुरावृत्त के आधार पर इस कथा को रोचक तथा कथारुढ़िसंमत बनाने के लिये, रानी की अभिजात जीवनी के साथ अन्यान्य प्रसंग गढ़ लिए हों। अस्तु, सौंदर्य तथा आदर्श के लोकप्रसिद्ध प्रतीक तथा काव्यगत कल्पित पात्र के रूप में ही पद्मिनी नाम स्वीकार किया जाना ठीक लगता है। | ||
==कथा== | ==कथा== | ||
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह [[चित्तौड़]] की राजगद्दी पर बैठा। रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर [[दिल्ली]] का तत्कालीन बादशाह [[अलाउद्दीन ख़िलज़ी]] पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी। उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात [[राजपूत]] सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"हम तो आपसे मित्रता करना चाहते हैं, रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।"</span></blockquote> रत्नसिंह यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।"</span></blockquote> रानी को अपनी नहीं पूरे [[मेवाड़]] की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है। | रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह [[चित्तौड़]] की राजगद्दी पर बैठा। रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर [[दिल्ली]] का तत्कालीन बादशाह [[अलाउद्दीन ख़िलज़ी]] पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी। उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात [[राजपूत]] सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"हम तो आपसे मित्रता करना चाहते हैं, रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।"</span></blockquote> रत्नसिंह यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।"</span></blockquote> रानी को अपनी नहीं पूरे [[मेवाड़]] की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।<ref name="ज्ञान दर्पण">{{cite web |url=http://networkedblogs.com/f6Oc1 |title=रानी पद्मिनी |accessmonthday=[[28 अप्रॅल]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=ज्ञान दर्पण |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चित्तौड़ के क़िले में अलाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिति की तरह किया। रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचोंबीच था। दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और थोड़ी ही देर तक दिखने वाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा,<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।"</span></blockquote> | अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चित्तौड़ के क़िले में अलाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिति की तरह किया। रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचोंबीच था। दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और थोड़ी ही देर तक दिखने वाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा,<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।"</span></blockquote> | ||
अलाउद्दीन ने अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए एक योजना भी बना ली। महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उन्हें गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुल्तान अकेले आया था, इसलिए महराजा रत्नसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना बातें करते हुए सुल्तान के साथ गये। अलाउद्दीन से द्वार के बाहर आकर राणा रत्नसिंह ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"</span></blockquote> तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट ख़िलज़ी ने जैसे ही इशारा किया झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था। | अलाउद्दीन ने अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए एक योजना भी बना ली। महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उन्हें गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुल्तान अकेले आया था, इसलिए महराजा रत्नसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना बातें करते हुए सुल्तान के साथ गये। अलाउद्दीन से द्वार के बाहर आकर राणा रत्नसिंह ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"</span></blockquote> तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट ख़िलज़ी ने जैसे ही इशारा किया झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था।<ref name="ज्ञान दर्पण" /> | ||
रत्नसिंह को क़ैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा। रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे।"</span></blockquote> रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अलाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया। | रत्नसिंह को क़ैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा। रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे।"</span></blockquote> रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अलाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया। उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया। इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे। अलाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के क़ाफ़िले को दूर से देख रहे थे।<ref name="ज्ञान दर्पण" /> | ||
उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया। इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे। अलाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के क़ाफ़िले को दूर से देख रहे थे। | |||
सुल्तान ख़िलज़ी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"</span></blockquote> सुल्तान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?"</span></blockquote> कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। रानी पद्मिनी को उनके पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी। | सुल्तान ख़िलज़ी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"</span></blockquote> सुल्तान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">"क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?"</span></blockquote> कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। रानी पद्मिनी को उनके पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी। | ||
प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज क़ैद थे। राणा रत्नसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उन पर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये। | प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज क़ैद थे। राणा रत्नसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उन पर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये।<ref name="एक रानी की रणनीति">{{cite web |url=http://www.chandamama.com/lang/story/12/44/111/189/HIN/3/stories.htm |title=एक रानी की रणनीति |accessmonthday=[[28 अप्रॅल]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=चन्दामामा |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुल्तान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। लेकिन दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से गोरा को घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिल्जी नीचे गिर गया। भयभीत सुल्तान सेना सहित दिल्ली की ओर मुड़ गया। | इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुल्तान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। लेकिन दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से गोरा को घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिल्जी नीचे गिर गया। भयभीत सुल्तान सेना सहित दिल्ली की ओर मुड़ गया। | ||
रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुल्तान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उनकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी। | रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुल्तान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उनकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी।<ref name="एक रानी की रणनीति" /> | ||
राजदंपति फिर से मिलन पर खुश तो हुए, लेकिन गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ। यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रत्नसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थकी हुयी चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के [[नगाड़ा|नगाड़ों]] व हाहाकारों ने जगाया। इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चित्तौड़ विजय करने के लिए ठान ली। आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया। जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी भी हतप्रभ हो गया। महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया - | राजदंपति फिर से मिलन पर खुश तो हुए, लेकिन गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ। यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रत्नसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थकी हुयी चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के [[नगाड़ा|नगाड़ों]] व हाहाकारों ने जगाया। इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चित्तौड़ विजय करने के लिए ठान ली। आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया। जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी भी हतप्रभ हो गया। महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया- | ||
<poem> | <poem> | ||
बादल बारह बरस रो, लड़ियों लाखां साथ। | बादल बारह बरस रो, लड़ियों लाखां साथ। | ||
सारी दुनिया पेखियो, वो खांडा वै हाथ।।</poem> | सारी दुनिया पेखियो, वो खांडा वै हाथ।।<ref name="ज्ञान दर्पण" /></poem> | ||
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। | रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। |
10:13, 28 अप्रैल 2011 का अवतरण
रानी पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की अद्वितीय सुंदर पुत्री थी। रानी पद्मिनी का विवाह चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी के रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। रानी पद्मिनी की ख़ूबसूरती पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलज़ी की नजर पड़ गई। अलाउद्दीन किसी भी कीमत पर रानी पद्मिनी को हासिल करना चाहता था, इसलिए उसने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। पद्मिनी संबंधी कथाओं में सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि अलाउद्दीन ऐसा कर सकता था लेकिन किसी विश्वसनीय तथा लिखित प्रमाण के अभाव में ऐतिहासिक दृष्टि से इसे पूर्णतया सत्य मान लेना कठिन है।
उल्लेख
सुल्तान के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहासलेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र खाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहासलेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत'[1] की रचना के 70 वर्ष पश्चात सन 1610 में 'पद्मावत' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता।
ओझा जी का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फरिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यहीं है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रत्नसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी।
ओझा के अनुसार
ओझा जी के अनुसार पद्मिनी की स्थिति सिंहल द्वीप की राजकन्या के रूप में तो घोर अनैतिहासिक है। ओझा जी ने रत्नसिंह की अवस्थिति सिद्ध करने के लिये कुंभलगढ़ का जो प्रशस्तिलेख प्रस्तुत किया है, उसमें उसे मेवाड़ का स्वामी और समरसिंह का पुत्र लिखा गया है, यद्यपि यह लेख भी रत्नसिंह की मृत्यु 1303 ई. के 157 वर्ष पश्चात सन 1460 में उत्कीर्ण हुआ था। भट्टकाव्यों, ख्यातों और अन्य प्रबंधों के अलावा परवर्ती काव्यों में प्रसिद्ध 'पद्मिनी के महल' और 'पद्मिनी के तालाब'[2] जैसे स्मारकों के बावज़ूद किसी ठोस ऐतिहासिक प्रमाण के बिना रत्नसिंह की रानी को पद्मिनी नाम दे देना अथवा पद्मिनी को हठात् उसके साथ जोड़ देना असंगत है। यह संभव है कि सतीत्वरक्षा के निमित्त जौहर की आदर्श परंपरा की नेत्री चित्तौड़ की अज्ञातनामा रानी को, चारणों आदि ने, शास्त्रप्रसिद्ध सर्वश्रेष्ठ नायिका पद्मिनी नाम देकर तथा सती प्रथा संबंधी पुरावृत्त के आधार पर इस कथा को रोचक तथा कथारुढ़िसंमत बनाने के लिये, रानी की अभिजात जीवनी के साथ अन्यान्य प्रसंग गढ़ लिए हों। अस्तु, सौंदर्य तथा आदर्श के लोकप्रसिद्ध प्रतीक तथा काव्यगत कल्पित पात्र के रूप में ही पद्मिनी नाम स्वीकार किया जाना ठीक लगता है।
कथा
रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रत्नसिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी। उसने चित्तौड़ के क़िले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ पर तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावज़ूद वह चित्तौड़ के क़िले में घुस नहीं पाया। तब अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि
"हम तो आपसे मित्रता करना चाहते हैं, रानी की सुन्दरता के बारे में बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुँह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली वापस लौट जायेंगे।"
रत्नसिंह यह सन्देश सुनकर आगबबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि
"मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।"
रानी को अपनी नहीं पूरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थीं कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी। रानी ने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देख सकता है।[3]
अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिको का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चित्तौड़ के क़िले में अलाउद्दीन का स्वागत रत्नसिंह ने अथिति की तरह किया। रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचोंबीच था। दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीँ से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और थोड़ी ही देर तक दिखने वाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा,
"इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।"
अलाउद्दीन ने अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए एक योजना भी बना ली। महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उन्हें गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुल्तान अकेले आया था, इसलिए महराजा रत्नसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना बातें करते हुए सुल्तान के साथ गये। अलाउद्दीन से द्वार के बाहर आकर राणा रत्नसिंह ने कहा-
"हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"
तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट ख़िलज़ी ने जैसे ही इशारा किया झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था।[3]
रत्नसिंह को क़ैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा। रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि-
"मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे।"
रानी का ऐसा सन्देश पाकर कामुक अलाउद्दीन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा, और उस अदभुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर सन्देश भिजवा दिया। उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलियाँ तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिको को कहारों के वेश में लगाया गया। इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे। अलाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के क़ाफ़िले को दूर से देख रहे थे।[3]
सुल्तान ख़िलज़ी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा-
"सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"
सुल्तान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा-
"क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?"
कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। रानी पद्मिनी को उनके पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी।
प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज क़ैद थे। राणा रत्नसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उन पर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये।[4]
इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुल्तान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। लेकिन दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से गोरा को घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिल्जी नीचे गिर गया। भयभीत सुल्तान सेना सहित दिल्ली की ओर मुड़ गया।
रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुल्तान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उनकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी।[4]
राजदंपति फिर से मिलन पर खुश तो हुए, लेकिन गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ। यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रत्नसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थकी हुयी चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के नगाड़ों व हाहाकारों ने जगाया। इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चित्तौड़ विजय करने के लिए ठान ली। आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया। जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया। जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी भी हतप्रभ हो गया। महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर 30000 राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया-
बादल बारह बरस रो, लड़ियों लाखां साथ।
सारी दुनिया पेखियो, वो खांडा वै हाथ।।[3]
रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।
|
|
|
|
|