"छत्रपति शिवाजी महाराज": अवतरणों में अंतर

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'''छत्रपति शिवाजी / Chatrapati Shivaji'''<br />
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शाहजी भोंसले की पहली पत्नी [[जीजाबाई]] ने शिवाजी को 16 अप्रैल, 1630 को [[शिवनेरी]] के दुर्ग में जन्म दिया। शिवनेरी का दुर्ग [[पूना]] (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। शिवाजी पर माता-पिता तथा उनके संरक्षक, दादोजी कोंडदेव का विशेष प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस वातावरण और घटनाओं को समझने लगे थे। शासक वर्ग की हरकतों पर वे बेचैन हो जाते थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन् 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। ये भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे।
==आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ==
शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय [[भारत]] पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में [[बीजापुर]] और [[गोलकुंडा]] में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के जोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिंदू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदूओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमजोर सीमा चौकियों पर कब्जा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिंदूओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ अफजल खां के नेतृत्व में 20,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफजल खां की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेखबर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह [[औंरगज़ेब]] ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली।
इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औंरगज़ेब ने अपने सबसे प्रभाशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया और उन्हें वायदा करना पड़ा की वह मुग़लों के अधीन जागीरदारी स्वीकार करने के लिए अपने पुत्र के साथ [[आगरा]] में औंरगज़ेब के दरबार में हाजिर होंगे। अपने घर से सैंकड़ों मील दूर आगरा में शिवाजी और उनके पुत्र को नजरबंद कर दिये गये, जहाँ वह निरंतर मृत्युदंड के भय में रहे।
==आगरा से बच निकलना==
शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे गरीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके पुर्तगाली और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औंरगज़ेब ने हिंदूओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।
==स्वतंत्र प्रभुसत्ता==
1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिंदू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के जरिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिंदू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के जरिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।
==अन्तिम समय==
शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में मृत्यु हो गई।


छत्रपति शिवाजी राजे भोंसले (1630-1680) ने 1674 में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष [[औरंगज़ेब]] के मुग़ल साम्राज्य से संघर्ष किया। शाहजी भोंसले की पहली पत्नी [[जीजाबाई]] ने शिवाजी को 16 अप्रैल, 1630 को [[शिवनेरी]] के दुर्ग में जन्म दिया। शिवनेरी का दुर्ग [[पूना]] (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था । उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं । जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। शिवाजी पर माता-पिता तथा उनके संरक्षक, दादोजी कोंडदेव का विशेष प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस वातावरण और घटनाओं को समझने लगे थे। शासक वर्ग की हरकतों पर वे बेचैन हो जाते थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन् 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
शिवाजी ने सदियों से दमित और शोषित लोगों में प्राँण फूंक कर उन्हें शक्तिशाली मुग़ल बादशाह औंरगज़ेब के ख़िलाफ खड़ा कर दिया। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे।
 
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]][[Category:मराठा साम्राज्य]]
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06:40, 21 अप्रैल 2010 का अवतरण

छत्रपति शिवाजी / Chatrapati Shivaji

शाहजी भोंसले की पहली पत्नी जीजाबाई ने शिवाजी को 16 अप्रैल, 1630 को शिवनेरी के दुर्ग में जन्म दिया। शिवनेरी का दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। शिवाजी पर माता-पिता तथा उनके संरक्षक, दादोजी कोंडदेव का विशेष प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस वातावरण और घटनाओं को समझने लगे थे। शासक वर्ग की हरकतों पर वे बेचैन हो जाते थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन् 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। ये भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे।

आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ

शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के जोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिंदू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदूओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमजोर सीमा चौकियों पर कब्जा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिंदूओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ अफजल खां के नेतृत्व में 20,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफजल खां की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेखबर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था। शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह औंरगज़ेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औंरगज़ेब ने अपने सबसे प्रभाशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया और उन्हें वायदा करना पड़ा की वह मुग़लों के अधीन जागीरदारी स्वीकार करने के लिए अपने पुत्र के साथ आगरा में औंरगज़ेब के दरबार में हाजिर होंगे। अपने घर से सैंकड़ों मील दूर आगरा में शिवाजी और उनके पुत्र को नजरबंद कर दिये गये, जहाँ वह निरंतर मृत्युदंड के भय में रहे।

आगरा से बच निकलना

शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे गरीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके पुर्तगाली और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औंरगज़ेब ने हिंदूओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।

स्वतंत्र प्रभुसत्ता

1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिंदू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के जरिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिंदू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के जरिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।

अन्तिम समय

शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में मृत्यु हो गई।

शिवाजी ने सदियों से दमित और शोषित लोगों में प्राँण फूंक कर उन्हें शक्तिशाली मुग़ल बादशाह औंरगज़ेब के ख़िलाफ खड़ा कर दिया। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे।