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11:49, 13 मई 2011 का अवतरण
वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचने इलाके प्रभावित होते हैं। नगर के आकार की धार्मिक मान्यताओं के आधार पर व्याख्या करने के अनेक प्रयास किए गये हैं। इन मान्यताओं की भौगोलिक व्याख्या को कमोवेश स्वीकारा गया है। ऐसे सामान्यत: प्रचलित विश्वासों की सूची इस प्रकार बनाई है।
प्रचलित विश्वासों की सूची
- कृत त्रिशूल
इस त्रिशूल के तीन शूल हैं- उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर। यह तीनों गंगा तट पर स्थित हैं। मांन्यता है कि यह नगरी भगवान शिव को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है।
- त्रेतायुग चक्र
चौरासी कोस यात्रा के तदनुरूप है और मध्यमेश्वर इसका केन्द्र है जो गंगा के निकट अवस्थित है।
- द्वापर रथ
सात प्रकार के शिव मंदिर, रथ का समरूप बनाते हैं। ये हैं- गोकर्णेश्वर, सुलतानकेश्वर, मणिकर्णेश्वर, भारभूतेश्वर, विश्वेश्वर, मध्यमेश्वर तथा ओंकारेश्वर। इस आकार में भी गंगा नदी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
- शंखाकार
यहाँ भी मंदिरों की स्थिति के समरूप आकार माना गया है और गंगा नदी यह आकार निर्धारित करती है। इस आकार को बनाने वाले मंदिर हैं- उत्तर पश्चिम में विध्नराज और विनायक, उत्तर में शैलेश्वर, दक्षिण पूर्व में केदारेश्वर और दक्षिण में लोलार्क।
भौगोलिक स्थिति
धरातल की संरचना
वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।[1]
भू-स्थापना
वाराणसी की स्थापना का आधार सुदूर प्राचीन काल में धार्मिक न होकर आर्थिक या व्यापारिक था। वाराणसी की भू-स्थापना का कारण यहाँ की भौगोलिक स्थिति है। यह शहर अर्धचन्द्राकार में गंगा की रचना किनारे पर अवस्थित है। वाराणसी की रचना एक ऊँचे कंकरीली जगह पर है, जो गंगा के पश्चिमी किनारे पर अवस्थित है, जहाँ बाढ़ का ख़तरा नहीं रहता है। यह आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान हैं जहाँ नदी-नालों का कटाव नहीं मिलता, यह शहर बसने के लिए उपयुक्त था। एक ओर "वरना" नदी तो दूसरी ओर गंगा नगर की प्राकृतिक खाई का काम करती है। यहाँ के जंगल भी वाराणसी के बचाव के लिए अपनी भूमिका अदा करते रहे होगें। वाराणसी के बचाव में आधुनिक मिर्ज़ापुर ज़िले की विंध्याचल की पहाड़ियाँ भी महत्त्वपूर्ण थीं। वाराणसी के व्यापारी पश्चिम की ओर गंगा और यमुना के रास्ते मथुरा पहुँचते थे तथा पूरब की ओर चंपा होते हुए ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह तक जाते थे। वाराणसी उसी महाजनपद पर अवस्थित थी जो तक्षशिला से राजगृह के बाद पाटलिपुत्र को जाता था।[2]
प्राकृतिक बनावट
जब आरंभिक युग में वाराणसी में मनुष्य बसे तो वाराणसी की प्राकृतिक बनावट का क्या रूप था पर कृत्यकल्पतरु, काशीखण्ड और 19वीं सदी के जान प्रिंसेप के नक्शे के आधार पर यह कहना सम्भव है कि गंगा-वरना संगम से लेकर गंगा अस्सी संगम के कुछ उत्तर तक एक कंकरीला करारा है, जो गोदौलिया नाले के पास कट जाती है। ज़मीन की सतह नदी की सतह से नीची पड़ जाने पर पानी वरना में चला जाता था। गोदौलिया नाले में मिसिर पोखरा, लक्ष्मीकुण्ड था, बेनिया तालाब का पानी गंगा में बह जाता था। मछोदरी रकबे का पानी वरना में गिरता था। मछोदरी के पूरब में कगार के नीचे एक चौरस मैदान पड़ जाता था जिसके उत्तर में नाले बहते थे।[2]
नदी के रूप में उल्लेख
स्थलपुराणों में मत्स्योदरी का काशी में एक नदी के रूप में उल्लेख एक पहेली है। लक्ष्मीधर 1 ने तीर्थ विवेचन कांड में [3] इस नदी का तीन बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर (पृष्ठ 34-35) शुष्क नदी यानि अस्सी को पिंगला नाड़ी, वरुणा को इला नाड़ी और इन दोनों के बीच मत्स्योदरी को सुषुम्ना नाड़ी माना है। अन्यत्र [4] गंगा और मत्स्योदरी के संगम पर स्नान मोक्षदायक माना गया है। तीसरे स्थान पर इस नदी के तीर पर देवलोक छोड़कर देवताओं के बसने की बात कही गयी है। मित्र मिश्र द्वारा उद्धृत काशीखण्ड[5] में मत्स्योदरी को बहिरन्तश्चर कहा गया है और वह गंगा के प्रतिकूल धारा (संहार मार्ग) से मिलती थी। सोलहवीं सदी में पंडित नारायण की व्युत्पत्ति के अनुसार मत्स्याकार काशी के गर्भ में अवस्थित होने से इसका नाम मत्स्योदरी पड़ा।[2]
मत्स्योदरी तीर्थ
उपर्युक्त सामग्री के अवलोकन से सभी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। काशी खंड के अनुसार शिवगणों ने मत्स्योदरी तीर्थ के सन्निकट शैलों से घिरा हुआ दुर्ग बनाया और उसके पास मत्स्योदरी के जल से भरी परिखा (मोट) थी। अत: एक तो मत्स्योदरी झील थी जिसका जल भीतर ही भीतर प्रवाहित था या अंतश्चर था और दूसरी मत्स्योदरी परिखा थी जिसका जल बहकर वरुणा को पीछे ठेलता था। वर्षा काल में गंगा में बाढ़ आती तो गंगा का पानी वरुणा को पीछे ठेलता मत्स्योदरी परिखा में प्रविष्ट होता और अंतत: मत्स्योदरी तीर्थ में आ पहुँचता। इसी को पुनीत मत्स्योदरी योग कहा जाता है। इस बहते हुए गंगा जल से काशी क्षेत्र पूर्णत: घिर जाता और उसका स्वरूप मछली सा हो जाता है।[2]
काव्यमयी भाषा
इसी स्थिति को त्रिस्थली सेतु ने काव्यमयी भाषा में कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा ने स्वयं मत्स्योदरी रुपर धारण कर लिया है। इस पुनीत संगम का महात्म्य बताते हुए लिखा है कि समस्त तीर्थ और शिवलिंग यहाँ प्राप्त हो जाते हैं। गंगा-वरुणा और मत्स्योदरी का यह संगम आंकारेश्वर के पास होता था और यहीं भैरवरुप भगवान् शंकर ने स्नान किया था और कपालमोचन तीर्थ की सृष्टि हुई थी। वाराणसी में तीन पुण्यदा नदियों की चर्चा कृत्य-कल्पतरु ने की है- ये हैं- पितामह-स्रोतिका (ब्रह्मनाल), मन्दाकिनी (मध्यमेश्वर के पास) और मत्स्योदरी (ओंकारेश्वर के पास) ये तीनों वर्षा के दिनों में नदी का रूप धारण करती थी। पितामहस्रोतिका नाले से अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का जल गंगा में गिरता था। मन्दाकिनी में वर्तमान दारानगर, औसानगंज, काशीपुरा, विश्वेसरगंज का जल एकत्र होता था जो बुलानाला, सप्तसागर भुलेटन, बेनिया, मिसिरपोखरा, गोदावरी तीर्थ (गोदौलिया) होते हुए शीतलाघट के पास गंगा में गिरता था। मत्स्योदरी परिखा का जल ओंकारेश्वर के पास होते हुए वरुणा में गिरता था। बड़ी बाढ़ में मत्स्योदरी के भर जाने पर जल शिवतड़ाग [6] को भरता हुआ मंदाकिनी में मिलता, वहां से दशाश्वमेघ के पास गंगा में मिलता। इस प्रकार राजघाट से दशाश्वमेघ तक का समूचा क्षेत्र पानी से घिर जाता था या वाराणसी क्षेत्र ही मत्स्याकार हो जाता था।[2]
पौराणिक व्युत्पत्ति
वाराणसी की पौराणिक व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में बहुत सी कठिनाइयां है। पहली कठिनाई तो यह है कि अस्सी नदी न होकर बहुत ही साधारण नाला है और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में इसका रूप नदी का था। प्राचीन वाराणसी की स्थिति भी इस मत का समर्थन नहीं करती। प्राय: विद्वान एक मत है कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊंचे मैदान पर बसी थी और इसका प्राचीन विस्तार जैसा कि भग्नावशेषों से भी पता चलता है - वरना के उस पार भी था, पर अस्सी की तरफ़ तो बहुत ही कम प्राचीन अवशेष मिले हैं और जो मिले भी हैं वे परवर्ती अर्थात मध्यकाल के हैं। मत्स्य पुराण में कहा गया है-
वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये।।[7]
अर्थात- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है। यहाँ अस्सी का उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्य पुराण में एक और जगह कहा गया है-
वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा।
भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के।।[8]
अर्थात- पूर्व से पश्चिम दो योजन या ढ़ाई योजन लम्बाई वरणा से असी तक है, और चौड़ाई अर्द्धयोजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक है।
वाराणसी के बसने की कल्पना
ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्त्वपूर्ण राज्य था।
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अस्सी और वरणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया। लेकिन प्राचीन वाराणसी सदैव वरना पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार हुआ था। कम-से-कम पंतजलि के समय में अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो यह गंगा के किनारे-किनारे बसी थी, जैसी कि अष्टाध्यायी के सूत्र "यस्य आया:'[9] पर पंतजलि ने भाष्य "अनुगङ्ग' वाराणसी, अनुशोणं पाटलिपुत्रं [10] से विदित है। मौर्य और शुंग युग में राजघाट पर गंगा की ओर वाराणसी के बसने का प्रमाण हमें पुरातत्त्व के साक्ष्य से भी लग चुका है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 2
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 काशी की भौगोलिक स्थिति (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) kashivishvanath। अभिगमन तिथि: 28 अप्रॅल, 2011।
- ↑ (पृष्ठ 34, 58, 69)
- ↑ (पृष्ठ 58)
- ↑ (पृष्ठ 240)
- ↑ (हालूगड़हा जिस पर विश्वेश्वर गंज का बाज़ार बसा है)
- ↑ मत्स्य पुराण पृ.39
- ↑ मत्स्य पुराण पृ.39
- ↑ अष्टाध्यायी 2/1/16
- ↑ कीलहार्न 6,380
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