"प्रयोग:Shilpi6": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
पंक्ति 4: पंक्ति 4:


==अभिनेता के रूप में शुरूआत==
==अभिनेता के रूप में शुरूआत==
एक बार पुलिस स्टेशन में फ़िल्म निर्माता कुछ जरूरी काम के लिए आए हुए थे और वह राजकुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने राजकुमार को यह सलाह दी कि अगर आप फ़िल्म अभिनेता बनने की ओर कदम रखे तो उसमे काफ़ी सफल हो सकते है। राजकुमार को फ़िल्म निर्माता की बात काफ़ी अच्छी लगी। इसके कुछ समय बाद राजकुमार ने अपनी नौकरी छोड़ दी और फ़िल्मों में बतौर अभिनेता बनने की ओर अपना रूख कर लिया। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फ़िल्म रंगीली मे सबसे पहले बतौर अभिनेता राजकुमार को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1952 से वर्ष 1957 तक राजकुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फ़िल्म रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने अनमोल सहारा- 1952, अवसर- 1953, घमंड- 1955, नीलमणि- 1957, कृष्ण सुदामा- 1957 जैसी कई फ़िल्मों र्मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।  
एक बार पुलिस स्टेशन में फ़िल्म निर्माता कुछ जरूरी काम के लिए आए हुए थे और वह राजकुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने राजकुमार को यह सलाह दी कि अगर आप फ़िल्म अभिनेता बनने की ओर क़दम रखे तो उसमे काफ़ी सफल हो सकते है। राजकुमार को फ़िल्म निर्माता की बात काफ़ी अच्छी लगी। इसके कुछ समय बाद राजकुमार ने अपनी नौकरी छोड़ दी और फ़िल्मों में बतौर अभिनेता बनने की ओर अपना रूख कर लिया। वर्ष [[1952]] में प्रदर्शित फ़िल्म रंगीली मे सबसे पहले बतौर अभिनेता राजकुमार को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1952 से वर्ष [[1957]] तक राजकुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फ़िल्म रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने 'अनमोल सहारा- [[1952]], 'अवसर- [[1953]]', 'घमंड- [[1955]]', 'नीलमणि- 1957', 'कृष्ण सुदामा- 1957' जैसी कई फ़िल्मों र्मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल नहीं हुई।  
====फ़िल्म जगत में सफलता====
====फ़िल्म जगत में सफलता====
वर्ष 1957 में प्रदर्शित महबूब खान की फ़िल्म मदर इंडिया में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फ़िल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी फिर भी राजकुमार अपनी छोटी सी भूमिका में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फ़िल्म की सफलता के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।  
{{दाँयाबक्सा|पाठ="चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाये तो खून निकल आता है"|विचारक=}}
 
वर्ष 1957 में प्रदर्शित [[महबूब ख़ान]] की फ़िल्म [[मदर इंडिया]] में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फ़िल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी फिर भी राजकुमार अपनी छोटी सी भूमिका में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फ़िल्म की सफलता के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।  
वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म पैगाम में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राजकुमार ने यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद राजकुमार दिल अपना और प्रीत पराई-1960, घराना- 1961, गोदान- 1963, दिल एक मंदिर- 1964, दूज का चांद- 1964 जैसी फ़िल्मों मे मिली कामयाबी के जरिये राज कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गये जहां वह फ़िल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1965 बी.आर .चोपड़ा की फ़िल्म वक्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से अपनी ओर दर्शक का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। फ़िल्म वक्त में राजकुमार का बोला गया एक संवाद चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाये तो खून निकल आता है दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ। फ़िल्म वक्त की कामयाबी से राज कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। ऐसी स्थिति जब किसी अभिनेता के सामने आती है तो वह मनमानी करने लगता है और फ्रेम दर फ्रेम छा जाने की उसकी प्रवृति बढ़ती जाती है और जल्द ही वह किसी खास इमेज में भी बंध जाता है। लेकिन राज कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नही बंधे इसलिये अपनी इन फ़िल्मो की कामयाबी के बाद भी उन्होंने हमराज- 1967, नीलकमल- 1968, मेरे हूजूर- 1968, हीर रांझा- 1970 और पाकीजा- 1971 में रूमानी भूमिका भी स्वीकार की जो उनके फ़िल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी बावजूद इसके राजकुमार यहां भी दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे।  
;फ़िल्मों में मिली कामयाबी
वर्ष [[1959]] में प्रदर्शित फ़िल्म 'पैगाम' में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट [[दिलीप कुमार]] थे लेकिन राजकुमार ने यहाँ भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद राजकुमार 'दिल अपना और प्रीत पराई-[[1960]]', 'घराना- [[1961]]', 'गोदान- [[1963]]', 'दिल एक मंदिर- [[1964]]', 'दूज का चांद- 1964' जैसी फ़िल्मों में मिली कामयाबी के जरिये राज कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ वह फ़िल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष [[1965]] में प्रदर्शित फ़िल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1965 बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म वक्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से अपनी ओर दर्शक का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। फ़िल्म वक्त में राजकुमार का बोला गया एक संवाद "चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाये तो खून निकल आता है" दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ। फ़िल्म वक्त की कामयाबी से राज कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। ऐसी स्थिति जब किसी अभिनेता के सामने आती है तो वह मनमानी करने लगता है और ख्याति छा जाने की उसकी प्रवृति बढ़ती जाती है और जल्द ही वह किसी ख़ास इमेज में भी बंध जाता है। लेकिन राज कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नही बंधे इसलिये अपनी इन फ़िल्मो की कामयाबी के बाद भी उन्होंने 'हमराज- [[1967]]', 'नीलकमल- [[1968]]', 'मेरे हूजूर- [[1968]]', 'हीर रांझा- [[1970]]' और 'पाकीजा- [[1971]]' में रूमानी भूमिका भी स्वीकार की जो उनके फ़िल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी इसके बावजूद भी राजकुमार यहाँ दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे।  
{{बाँयाबक्सा|पाठ="आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें"|विचारक=}}
====फ़िल्म पाकीजा की सफलता====
====फ़िल्म पाकीजा की सफलता====
कमाल अमरोही फ़िल्म पाकीजा पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फ़िल्म थी बावजूद इसके राजकुमार ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। फ़िल्म पाकीजा में राजकुमार का बोला गया एक संवाद आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे राजकुमार की आवाज की नकल करने लगे।  
कमाल अमरोही फ़िल्म पाकीजा पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फ़िल्म थी इसके  बावजूद राजकुमार ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। फ़िल्म पाकीजा में राजकुमार का बोला गया एक संवाद "आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें" इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि लोग राजकुमार की आवाज की नक़्ल करने लगे।  
====अभिनय और विविधता====
====अभिनय और विविधता====
वर्ष 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म कर्मयोगी में राजकुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले इस फ़िल्म में उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी। अभिनय में एकरुपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए राजकुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्रम में वर्ष 1980 में प्रदर्शित फ़िल्म बुलंदी में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नही हिचके और इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का मन मोहे रखा। इसके बाद राजकुमार ने कुदरत- 1981, धर्मकांटा- 1982, शरारा- 1984, राजतिलक- 1984, एक नयी पहेली- 1984, मरते दम तक- 1987, सूर्या- 1989, जंगबाज- 1989, पुलिस पब्लिक- 1990 जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के जरिये दर्शको के दिल पर राज किया।  
वर्ष 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म कर्मयोगी में राजकुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले इस फ़िल्म में उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी। अभिनय में एकरुपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए राजकुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्रम में वर्ष [[1980]] में प्रदर्शित फ़िल्म बुलंदी में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नही हिचके और इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का मन मोहे रखा। इसके बाद राजकुमार ने 'कुदरत- [[1981]]', 'धर्मकांटा- [[1982]]', 'शरारा- [[1984]]', 'राजतिलक- [[1984]]', 'एक नयी पहेली- [[1984]]', 'मरते दम तक- [[1987]]', 'सूर्या- [[1989]]', 'जंगबाज- [[1989]]', 'पुलिस पब्लिक- [[1990]]' जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के जरिये दर्शको के दिल पर राज किया।  
====अभिनय के नये आयाम====
====अभिनय के नये आयाम====
वर्ष 1991 में प्रदर्शित फ़िल्म सौदागर में राज कुमार के अभिनय के नये आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित फ़िल्म सौदागर र्मे दिलीप कुमार और राज कुमार वर्ष 1959 में प्रदर्शित पैगाम के बाद दूसरी बार आमने सामने थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार और राजकुमार जैसे अभिनय की दुनिया के दोनो महारथी का टकराव देखने लायक था। फ़िल्म सौदागर में राजकुमार का बोला एक संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूंजता रहता है।  
{{दाँयाबक्सा|पाठ="दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है"|विचारक=}}
वर्ष [[1991]] में प्रदर्शित फ़िल्म सौदागर में राज कुमार के अभिनय के नये आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित फ़िल्म सौदागर में दिलीप कुमार और राज कुमार वर्ष 1959 में प्रदर्शित पैगाम के बाद दूसरी बार आमने सामने थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार और राजकुमार जैसे अभिनय की दुनिया के दोनो महारथी का टकराव देखने लायक था। फ़िल्म सौदागर में राजकुमार का बोला एक संवाद "दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है" आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूंजता रहता है।
 
==नब्बे का दशक==
==नब्बे का दशक==
नब्बे के दशक में राजकुमार ने फ़िल्मों मे काम करना काफ़ी कम कर दिया। इस दौरान राजकुमार की तिरंगा- 1992, पुलिस और मुजरिम इंसानियत के देवता- 1993, बेताज बादशाह- 1994, जवाब- 1995, गॉड और गन जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई। नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी करीब है इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होने अपने पास बुला लिया और कहा देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फ़िल्म उद्योग को सूचित करना।
नब्बे के दशक में राजकुमार ने फ़िल्मों मे काम करना काफ़ी कम कर दिया। इस दौरान राजकुमार की तिरंगा- 1992, पुलिस और मुजरिम इंसानियत के देवता- 1993, बेताज बादशाह- 1994, जवाब- 1995, गॉड और गन जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई। नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी करीब है इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होने अपने पास बुला लिया और कहा देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फ़िल्म उद्योग को सूचित करना।

13:27, 13 जून 2011 का अवतरण

  • संवाद अदायगी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार (जन्म- 8 अक्तूबर 1926, ब्लूचिस्तान पाकिस्तान, मृत्यु- 3 जुलाई 1996) का नाम फ़िल्मजगत की आकाशगंगा में एक धुव्रतारे की तरह है। उनके बेमिसाल अभिनय से सुसज्जित फ़िल्मों की रोशनी से बॉलीवुड हमेशा जगमगाता रहेगा।

जीवन परिचय

राजकुमार का जन्म पाकिस्तान के ब्लूचिस्तान प्रांत में 8 अक्तूबर 1926 को एक मध्यम वर्गीय कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजकुमार मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में बतौर सब इंस्पेक्टर काम करने लगे। राजकुमार मुंबई के जिस थाने मे कार्यरत थे वहाँ अक्सर फ़िल्म उद्योग से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था।

अभिनेता के रूप में शुरूआत

एक बार पुलिस स्टेशन में फ़िल्म निर्माता कुछ जरूरी काम के लिए आए हुए थे और वह राजकुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने राजकुमार को यह सलाह दी कि अगर आप फ़िल्म अभिनेता बनने की ओर क़दम रखे तो उसमे काफ़ी सफल हो सकते है। राजकुमार को फ़िल्म निर्माता की बात काफ़ी अच्छी लगी। इसके कुछ समय बाद राजकुमार ने अपनी नौकरी छोड़ दी और फ़िल्मों में बतौर अभिनेता बनने की ओर अपना रूख कर लिया। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फ़िल्म रंगीली मे सबसे पहले बतौर अभिनेता राजकुमार को काम करने का मौका मिला। वर्ष 1952 से वर्ष 1957 तक राजकुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फ़िल्म रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने 'अनमोल सहारा- 1952, 'अवसर- 1953', 'घमंड- 1955', 'नीलमणि- 1957', 'कृष्ण सुदामा- 1957' जैसी कई फ़िल्मों र्मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल नहीं हुई।

फ़िल्म जगत में सफलता

"चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाये तो खून निकल आता है"

वर्ष 1957 में प्रदर्शित महबूब ख़ान की फ़िल्म मदर इंडिया में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फ़िल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी फिर भी राजकुमार अपनी छोटी सी भूमिका में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फ़िल्म की सफलता के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।

फ़िल्मों में मिली कामयाबी

वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म 'पैगाम' में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राजकुमार ने यहाँ भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद राजकुमार 'दिल अपना और प्रीत पराई-1960', 'घराना- 1961', 'गोदान- 1963', 'दिल एक मंदिर- 1964', 'दूज का चांद- 1964' जैसी फ़िल्मों में मिली कामयाबी के जरिये राज कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ वह फ़िल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1965 बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्म वक्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से अपनी ओर दर्शक का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। फ़िल्म वक्त में राजकुमार का बोला गया एक संवाद "चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाये तो खून निकल आता है" दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ। फ़िल्म वक्त की कामयाबी से राज कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। ऐसी स्थिति जब किसी अभिनेता के सामने आती है तो वह मनमानी करने लगता है और ख्याति छा जाने की उसकी प्रवृति बढ़ती जाती है और जल्द ही वह किसी ख़ास इमेज में भी बंध जाता है। लेकिन राज कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नही बंधे इसलिये अपनी इन फ़िल्मो की कामयाबी के बाद भी उन्होंने 'हमराज- 1967', 'नीलकमल- 1968', 'मेरे हूजूर- 1968', 'हीर रांझा- 1970' और 'पाकीजा- 1971' में रूमानी भूमिका भी स्वीकार की जो उनके फ़िल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी इसके बावजूद भी राजकुमार यहाँ दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे।

"आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें"

फ़िल्म पाकीजा की सफलता

कमाल अमरोही फ़िल्म पाकीजा पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फ़िल्म थी इसके बावजूद राजकुमार ने अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। फ़िल्म पाकीजा में राजकुमार का बोला गया एक संवाद "आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेगें" इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि लोग राजकुमार की आवाज की नक़्ल करने लगे।

अभिनय और विविधता

वर्ष 1978 में प्रदर्शित फ़िल्म कर्मयोगी में राजकुमार के अभिनय और विविधता के नए आयाम दर्शकों को देखने को मिले इस फ़िल्म में उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं में अपने अभिनय की छाप छोड़ी। अभिनय में एकरुपता से बचने और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए राजकुमार ने अपने को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्रम में वर्ष 1980 में प्रदर्शित फ़िल्म बुलंदी में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नही हिचके और इस फ़िल्म के जरिए भी उन्होंने दर्शको का मन मोहे रखा। इसके बाद राजकुमार ने 'कुदरत- 1981', 'धर्मकांटा- 1982', 'शरारा- 1984', 'राजतिलक- 1984', 'एक नयी पहेली- 1984', 'मरते दम तक- 1987', 'सूर्या- 1989', 'जंगबाज- 1989', 'पुलिस पब्लिक- 1990' जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के जरिये दर्शको के दिल पर राज किया।

अभिनय के नये आयाम

"दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है"

वर्ष 1991 में प्रदर्शित फ़िल्म सौदागर में राज कुमार के अभिनय के नये आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित फ़िल्म सौदागर में दिलीप कुमार और राज कुमार वर्ष 1959 में प्रदर्शित पैगाम के बाद दूसरी बार आमने सामने थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार और राजकुमार जैसे अभिनय की दुनिया के दोनो महारथी का टकराव देखने लायक था। फ़िल्म सौदागर में राजकुमार का बोला एक संवाद "दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है" आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूंजता रहता है।

नब्बे का दशक

नब्बे के दशक में राजकुमार ने फ़िल्मों मे काम करना काफ़ी कम कर दिया। इस दौरान राजकुमार की तिरंगा- 1992, पुलिस और मुजरिम इंसानियत के देवता- 1993, बेताज बादशाह- 1994, जवाब- 1995, गॉड और गन जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई। नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी करीब है इसीलिए अपने पुत्र पुरू राजकुमार को उन्होने अपने पास बुला लिया और कहा देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फ़िल्म उद्योग को सूचित करना।

मृत्यु

अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों के दिल पर राज करने वाले महान अभिनेता राजकुमार 3 जुलाई 1996 के दिन इस दुनिया को अलविदा कह गए।[1]

  1. संवाद अदायगी के बेताज बादशाह: राजकुमार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.) जागरण याहू इंडिया। अभिगमन तिथि: 13 जून, 2011