"सूफ़ी आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

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'''मध्य काल के दौरान''' दो परस्पर विरोधी आस्थाओं एवं विश्वासों के ख़िलाफ़ सुधार अति आवश्यक हो गया था। इस समय समाज में ऐसे सुधार की सख्त आवश्यकता थी, जिसके द्वारा [[हिन्दू धर्म]] के कर्मकाण्ड एवं [[इस्लाम धर्म]] में कट्टर पंथियों के प्रभाव को कम किया जा सके। दसवीं शताब्दी के बाद इन परम्परागत रूढ़िवादी प्रवृतियों पर अंकुश लगाने के लिए इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में दो महत्त्वपूर्ण रहस्यवादी आन्दोलनों-सूफ़ी आन्दोलन एवं [[भक्ति आन्दोलन]] का शुभारंभ हुआ। इन आन्दोलनों ने व्यापक आध्यात्मिकता एवं अद्वैतवाद पर बल दिया, साथ ही निरर्थक कर्मकाण्ड, आडम्बर एवं कट्टरपंथ के स्थान पर प्रेम, उदारतावाद एवं गहन भक्ति को अपना आदर्श बनाया।
[[मध्यकालीन भारत|मध्य काल]] के दौरान दो परस्पर विरोधी आस्थाओं एवं विश्वासों के ख़िलाफ़ सुधार अति आवश्यक हो गया था। इस समय समाज में ऐसे सुधार की सख्त आवश्यकता थी, जिसके द्वारा [[हिन्दू धर्म]] के कर्मकाण्ड एवं [[इस्लाम धर्म]] में कट्टर पंथियों के प्रभाव को कम किया जा सके। दसवीं शताब्दी के बाद इन परम्परागत रूढ़िवादी प्रवृतियों पर अंकुश लगाने के लिए इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में दो महत्त्वपूर्ण रहस्यवादी आन्दोलनों-सूफ़ी आन्दोलन एवं [[भक्ति आन्दोलन]] का शुभारंभ हुआ। इन आन्दोलनों ने व्यापक आध्यात्मिकता एवं अद्वैतवाद पर बल दिया, साथ ही निरर्थक कर्मकाण्ड, आडम्बर एवं कट्टरपंथ के स्थान पर प्रेम, उदारतावाद एवं गहन भक्ति को अपना आदर्श बनाया।
==सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति==
==सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति==
'''अबू नस्र अल सिराज की पुस्तक''' ‘किताब-उल-लुमा’ में किये गये उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति [[अरबी भाषा|अरबी]] शब्द ‘सूफ़’ (ऊन) से हुई, जो एक प्रकार से ऊनी वस्त्र का सूचक है, जिसे प्रारम्भिक सूफ़ी लोग पहना करते थे। ‘सफ़ा’ से भी उत्पत्ति मानी जाती है। सफ़ा का अर्थ 'पवित्रता' या 'विशुद्धता' से है। इस प्रकार आचार-व्यवहार से पवित्र लोग सूफ़ी कहे जाते थे। एक अन्य मत के अनुसार- [[हजरत मोहम्मद|हजरत मुहम्मद साहब]] द्वारा मदीना में निर्मित मस्जिद के बाहर सफ़ा अर्थात् 'मक्का की पहाड़ी' पर कुछ लोगों ने शरण लेकर अपने को खुदा की अराधना में लीन कर लिया, इसलिए वे सूफ़ी कहलाये। सूफ़ी चिन्तक इस्लाम का अनुसरण करते थे, परन्तु वे कर्मकाण्ड का विरोध करते थे। इनके प्रादुर्भाव का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि, उस समय (सल्तनत काल) उलेमा (धर्मवेत्ता) वर्ग में लोगों के कट्टरपंथी दृष्टिकोण की प्रधानता थी। सल्तनत कालीन सुल्तान [[सुन्नी]] [[मुसलमान]] होने के कारण सुन्नी धर्मवेत्ताओं के आदेशों का पालन करते थे और साथ ही शिया सम्प्रदाय के लोगों को महत्व नहीं देते थे। सूफ़ियों ने इनकी प्रधानता को चुनौती दी तथा उलेमाओं के महत्व को नकारा।
'''अबू नस्र अल सिराज की पुस्तक''' ‘किताब-उल-लुमा’ में किये गये उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति [[अरबी भाषा|अरबी]] शब्द ‘सूफ़’ (ऊन) से हुई, जो एक प्रकार से ऊनी वस्त्र का सूचक है, जिसे प्रारम्भिक सूफ़ी लोग पहना करते थे। ‘सफ़ा’ से भी उत्पत्ति मानी जाती है। सफ़ा का अर्थ 'पवित्रता' या 'विशुद्धता' से है। इस प्रकार आचार-व्यवहार से पवित्र लोग सूफ़ी कहे जाते थे। एक अन्य मत के अनुसार- [[हजरत मोहम्मद|हजरत मुहम्मद साहब]] द्वारा मदीना में निर्मित मस्जिद के बाहर सफ़ा अर्थात् 'मक्का की पहाड़ी' पर कुछ लोगों ने शरण लेकर अपने को खुदा की अराधना में लीन कर लिया, इसलिए वे सूफ़ी कहलाये। सूफ़ी चिन्तक इस्लाम का अनुसरण करते थे, परन्तु वे कर्मकाण्ड का विरोध करते थे। इनके प्रादुर्भाव का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि, उस समय (सल्तनत काल) उलेमा (धर्मवेत्ता) वर्ग में लोगों के कट्टरपंथी दृष्टिकोण की प्रधानता थी। सल्तनत कालीन सुल्तान [[सुन्नी]] [[मुसलमान]] होने के कारण सुन्नी धर्मवेत्ताओं के आदेशों का पालन करते थे और साथ ही शिया सम्प्रदाय के लोगों को महत्व नहीं देते थे। सूफ़ियों ने इनकी प्रधानता को चुनौती दी तथा उलेमाओं के महत्व को नकारा।

11:58, 28 जून 2011 का अवतरण

मध्य काल के दौरान दो परस्पर विरोधी आस्थाओं एवं विश्वासों के ख़िलाफ़ सुधार अति आवश्यक हो गया था। इस समय समाज में ऐसे सुधार की सख्त आवश्यकता थी, जिसके द्वारा हिन्दू धर्म के कर्मकाण्ड एवं इस्लाम धर्म में कट्टर पंथियों के प्रभाव को कम किया जा सके। दसवीं शताब्दी के बाद इन परम्परागत रूढ़िवादी प्रवृतियों पर अंकुश लगाने के लिए इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में दो महत्त्वपूर्ण रहस्यवादी आन्दोलनों-सूफ़ी आन्दोलन एवं भक्ति आन्दोलन का शुभारंभ हुआ। इन आन्दोलनों ने व्यापक आध्यात्मिकता एवं अद्वैतवाद पर बल दिया, साथ ही निरर्थक कर्मकाण्ड, आडम्बर एवं कट्टरपंथ के स्थान पर प्रेम, उदारतावाद एवं गहन भक्ति को अपना आदर्श बनाया।

सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति

अबू नस्र अल सिराज की पुस्तक ‘किताब-उल-लुमा’ में किये गये उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘सूफ़’ (ऊन) से हुई, जो एक प्रकार से ऊनी वस्त्र का सूचक है, जिसे प्रारम्भिक सूफ़ी लोग पहना करते थे। ‘सफ़ा’ से भी उत्पत्ति मानी जाती है। सफ़ा का अर्थ 'पवित्रता' या 'विशुद्धता' से है। इस प्रकार आचार-व्यवहार से पवित्र लोग सूफ़ी कहे जाते थे। एक अन्य मत के अनुसार- हजरत मुहम्मद साहब द्वारा मदीना में निर्मित मस्जिद के बाहर सफ़ा अर्थात् 'मक्का की पहाड़ी' पर कुछ लोगों ने शरण लेकर अपने को खुदा की अराधना में लीन कर लिया, इसलिए वे सूफ़ी कहलाये। सूफ़ी चिन्तक इस्लाम का अनुसरण करते थे, परन्तु वे कर्मकाण्ड का विरोध करते थे। इनके प्रादुर्भाव का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि, उस समय (सल्तनत काल) उलेमा (धर्मवेत्ता) वर्ग में लोगों के कट्टरपंथी दृष्टिकोण की प्रधानता थी। सल्तनत कालीन सुल्तान सुन्नी मुसलमान होने के कारण सुन्नी धर्मवेत्ताओं के आदेशों का पालन करते थे और साथ ही शिया सम्प्रदाय के लोगों को महत्व नहीं देते थे। सूफ़ियों ने इनकी प्रधानता को चुनौती दी तथा उलेमाओं के महत्व को नकारा।

विचारधारा

विभिन्न सम्प्रदाय तथा उनके संस्थापक
सम्प्रदाय संस्थापक
चिश्ती सम्प्रदाय ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती (12 वीं शताब्दी)
सुहारावर्दी सम्प्रदाय शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (12वीं शताब्दी)
कादिरी सम्प्रदाय शेख़ अब्दुल कादिर जिलानी (16वीं शताब्दी)
शत्तारी सम्प्रदाय शाह अब्दुल शत्तारी (15वीं शताब्दी)
फिरदौसी सम्प्रदाय बदरूद्दीन
नक्शबन्दी ख्वाजा बाकी विल्लाह (16वीं शताब्दी)

प्रारम्भिक सूफ़ियों में ‘रबिया’ (8वीं सदी) एवं 'मंसूर हल्लाज' (10 वीं सदी) का नाम महत्त्वपूर्ण है। मंसूर हल्लाज ऐसे पहले सूफ़ी साधक थे, जो स्वयं को ‘अनलहक’ घोषित कर सूफ़ी विचारधारा के प्रतीक बने। सूफ़ी संसार में सबसे पहले इब्नुल अरबी द्वारा दिये गये सिद्धान्त 'वहदत-उल-वुजूद' का उलेमाओं ने जमकर विरोध किया। वहदत-उल-वुजूद का अर्थ है - ईश्वर एक है और वह संसार की सभी वस्तुओं का निमित्त है। इस प्रकार वहदत-उल-वुजूद एकेश्वरवाद का समनार्थी है। उलेमा वर्ग के लोगों ने ब्रह्मा तथा जीव के मध्य मालिक एवं ग़ुलाम के रिश्ते ही कल्पना की, दूसरी ओर सूफ़ियों ने ईश्वर को अदृश्य, सम्पूर्ण वास्तविकता और शाश्वत सौंदर्य के रूप में माना। सूफ़ी सन्त ईश्वर को ‘प्रियतमा’ एवं स्वयं को ‘प्रियतम’ मानते थे। उनका विश्वास था कि, ईश्वर की प्राप्ति प्रेम-संगीत से की जा सकती है। अतः सूफ़ियों ने सौन्दर्य एवं संगीत को अधिक महत्व दिया। सूफ़ी गुरु को अधिक महत्व देते थे, क्योंकि वे गुरु को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का पथ प्रदर्शक मानते थे। सूफ़ी सन्त भौतिक एवं भोग विलास से युक्त जीवन से दूर सरल, सादे, संयमपूर्ण जीवन में आस्था रखते थे। प्रारम्भ में सूफ़ी आन्दोलन खुरासान प्रांत के आस-पास विशेषकर बल्ख शहर एवं इराक तथा मिस्र में केन्द्रित रहा। भारत में इस आन्दोलनों का आरम्भ दिल्ली सल्तनत से पूर्व ही हो चुका था।

सूफ़ी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार

ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी में लाहौर एवं मुल्तान में कई सूफ़ी संतों का जमघट हुआ। मुस्लिम स्रोत के आधार पर क़रीब 125 सूफ़ी धर्म संघों के अस्तित्व की बात कही जाती है। अबुल फ़ज़ल ने आइना-ए-अकबरी में क़रीब 14 सूफ़ी सिलसिलों के बारे में उल्लेख किया है। इनमें से केवल दो सिलसिलों का ही गहरा प्रभाव भारतीय जन-जीवन पर पड़ा। वे लोग जो सूफ़ी संतों से शिष्यता ग्रहण करते थे, उन्हें ‘मुरीद’ कहा जाता था। सूफ़ी जिन आश्रमों में निवास करते थे, उन्हें ‘खनकाह’ व ‘मठ’ कहा जाता था। एक सूफ़ी को परमपद प्राप्त करने से पूर्व दस अवस्थाओं - 'तौबा' (पश्चाताप), 'बजा' (संयम), 'तबाकुल' (प्रतिज्ञा), 'जुहद' (भक्ति), 'फग्र' (निर्धनता), 'सब्र' (संतोष), 'रिजा' (आत्म समर्पण), 'शुक्र' (आभार), 'ख़ौफ़' (डर), 'रजा' (उम्मीद) आदि से गुज़रना पड़ता था। सूफ़ी सन्तों ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार जन साधारण की भाषा में किया। इनके प्रयत्नों से हिन्दी, उर्दू के साथ अन्य प्रान्तीय भाषाओं का भी विकास हुआ। सूफ़ियों के धर्मसंघ ‘बा-शरा’ (इस्लामी सिद्धान्त के समर्थक), और ‘बे-शरा’ (इस्लामी सिद्धान्त से बंधे नहीं) में विभाजित थे। भारत में दोनो मत के लोग थे। भारत में चिश्ती एवं सुहरावर्दी सिलसिले की जड़े काफ़ी गहरी थीं।

चिश्ती धर्म संघ एवं सन्त

सूफ़ी सन्त एवं उनकी उपाधियाँ
सूफ़ी सन्त उपाधि
शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे इलाही
शेख़ नासिरुद्दीन महमूद चिराग-ए-दिल्ली
सैय्यद मुहम्मद गेसूदराज बन्दा नवाज
शेख़ अहमद सरहिन्दी मुजदिह आलिफसानी

12वीं शताब्दी में अनेक सूफ़ी सन्त भारत आये। 'चिश्ती धर्म संघ' की स्थापना 'ख्वाजा अब्दुल चिश्ती' ने हेरात में की थी। 1192 ई. में मुहम्मद ग़ोरी के साथ 'ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती' भारत आये। उन्होंने यहाँ ‘चिश्तिया परम्परा’ की स्थापना की। उनकी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र अजमेर था। इन्हें 'गरी-ए-नवाज' कहा जाता है। साथ ही अन्य केन्द्र नारनौल, हांसी, सरबर, बदायूँ तथा नागौर थे। कुछ अन्य सूफ़ी सन्तों में 'बाबा फ़रीद, 'बख्तियार काकी' एवं 'शेख़ बुरहानुद्दीन ग़रीब' थे। ख्वाजा बख्तियार काकी, इल्तुतमिश के समकालीन थे। उन्होंने फ़रीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। ‘बाबा फ़रीद’ का निम्न वर्ग के लोगों से अधिक लगाव था। उनकी अनेक रचनायें 'गुरुग्रंथ साहिब' में शामिल हैं। बाबा फ़रीद को ग़यासुद्दीन बलबन का दामाद माना जाता है। बाबा फ़रीद के दो महत्त्वपूर्ण शिष्य ‘हजरत निज़ामुद्दीन औलिया’ एवं ‘हजरत अलाउद्दीन साबिर’ थे। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया ने सात सुल्तानों का कार्यकाल देखा, परन्तु वे किसी के दरबार से सम्बद्ध नहीं रहे। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को 'महबूब-ए-इलाही' और 'सुल्तान-उल-औलिया' की उपाधि दी गयी। निज़ामुद्दीन औलिया के प्रमुख शिष्य 'शेख सलीम चिश्ती' थे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने हमीदुद्दीन नागौरी को 'सुल्तान-ए-तारकीन' (संन्यासियों के सुल्तान) की उपाधि प्रदान की थी।

हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल

निज़ामुद्दीन औलिया के सबसे प्रिय शिष्य अमीर ख़ुसरो थे। अमीर ख़ुसरो ने औलिया की मृत्यु का समाचार सुनने के दूसरे दिन ही प्राण त्याग दिये थे। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया ने अमीर ख़ुसरो को “तर्कुल्लाह” कहकर संबोधित किया था। औलिया ने योग की प्राणायाम पद्धति को इस हद तक अपनाया कि, उन्हें “योगी सिद्ध” कहा जाने लगा। ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया को संगीत से विशेष लगाव था। बंगाल में चिश्तिया मत का प्रचार शेख़ सिराजुद्दीन उस्मानी ने किया। इन्हे ‘आख़िरी सिराज’ कहा गया। शेख़ बुराहानुद्दीन ग़रीब ने 1340 ई. में दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में चिश्ती सम्प्रदाय की शुरूआत की और दौलताबाद को अपना मुख्य केन्द्र बनाया। चिश्तियों ने हिन्दू-मुस्लिम के मध्य किसी भी प्रकार के भेदभाव का कड़ा विरोध किया। उन्हो^ने संयमपूर्ण, साधारण जीवन व्यतीत करते हुए लोगों से उन्हीं की भाषा में विचार-विनिमय किया। इस सम्प्रदाय के सूफ़ी सन्त हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों समुदायों में समान भाव से पूजनीय थे। बुरहानपुर के एक प्रमुख सूफ़ीं संत 'सैय्यद मुहम्मद गेसूदराज' को 'बन्दा नवाज' कहा जाता है।

सुहारवर्दी धर्म संघ

इस संघ को 'सिलसिला' भी कहा जाता है। इसकी स्थापना 'शेख़ शिहाबुद्दीन उमर सुहरावर्दी' ने की, किन्तु 1262 ई. में इसके सुदृढ़ संचालन का श्रेय 'शेख़ बदरुद्दीन जकारिया' को है, जिन्होंने मुल्तान में एक शानदार मठ की स्थापना की तथा सिंध एवं मुल्तान को मुख्य केन्द्र बनाया। शेख़ बहाउद्दीन जकारिया के 'बाबा फ़रीद गंज-ए-शकर' से घनिष्ठ सम्बन्ध थे। इस सम्प्रदाय के अन्य प्रमुख संत थे- 'जलालुद्दीन तबरीजी', 'सैय्यद सुर्ख जोश', 'बुरहान' आदि। सिंध, गुजरात, बंगाल, हैदराबाद एवं बीजापुर के क्षेत्रों में इस सिलसिले का प्रचार-प्रसार हुआ। इस सम्प्रदाय ने चिश्ती सम्प्रदाय के विपरीत राज्य संरक्षण को स्वीकार किया, भौतिक जीवन का पूर्ण परित्याग नहीं किया तथा जागीर एवं नक़द धनराशि के रूप में राज्य से अनुदान प्राप्त किया। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सिलसिलों जैसे- ‘शत्तरी’ एवं ‘कादिरी’ की भी स्थापना हुई। अयूबजीद-अल-विस्तामी ने शत्तारी सिलसिले की स्थापना की थी। शेख़ अब्दुल्ला इस सिलसिले के प्रमुख सन्त थे। इनका मुख्य केन्द्र बिहार था। सुहारावर्दिया शाखा में शेख़ मूसा एक महत्त्वपूर्ण सूफ़ी संत हुए, जो सदैव स्त्री के वेश में रहते थे तथा नृत्य और संगीत में अपना समय व्यतीत करते थे।

कादिरी धर्म संघ

इसकी स्थापना 'सैय्यद अबुल कादि अल गिलानी' ने की थी। इनको 'पीरान-ए-पीर' (संतो के प्रधान) तथा 'पीर-ए-दस्तगीर' (मददगार संत) आदि की उपाधियाँ प्राप्त थीं। भारत में इस संघ या सिलसिले के प्रवर्तक 'मुहम्मद गौस' थे। कादिरी सिलसिले के अनुयायी गाने-बजाने के विरोधी थे। वे हरे रंग की पगड़ियाँ पहनते थे। दारा शिकोह इस सिलसिले का अनुयायी था। दारा शिकोह 'मुल्लाशाह बदख्शी' का शिष्य था। प्रारंभ में यह सिलसिला उच्छ (सिंध) में सीमित था, परन्तु बाद में आगरा एवं अन्य स्थानों पर फैल गया।

नक्शबन्दी धर्म संघ

इसकी स्थापना ख्वाजा उबेदुल्ला ने की। भारत में इस सिलसिले का प्रचार 'ख्वाजा बाकी विल्लाह' के शिष्य एवं अकबर के समकालीन 'शेख़ अहमद सरहिन्दी' ने किया। शेख़ अहमद सरहिन्दी ‘मुजाहिद’ अर्थात् इस्लाम के नवजीवनदाता या सुधारक के रूप में प्रसिद्ध थे। ख्वाजा मीर दर्द नक्शबंदी सम्प्रदाय के अन्तिम विख्यात सन्त थे। उन्होंने एक अलग मत ‘इल्मे इलाही मुहम्मदी’ चलाया। इससे सम्बन्धित तरह-तरह के नक्शे बनाकर उसमें रंग भरते थे। औरंगज़ेब, शेख़ अहमद सरहिन्दी के पुत्र शेख़ मासूम का शिष्य था। ख्वाजा मीर दर्द ने इल्में इलाही मुहम्मदी नामक नये सिद्धान्त का प्रचार किया।

फिरदौसी सिलसिला

इसके संस्थापक मध्य एशिया के 'सैफुद्दीन बखरजी' थे। यह सिलसला सुहारावर्दी सिलसिले की एक शाखा थी तथा भारत में इसका कार्य क्षेत्र बिहार में था। 'बदरुद्दीन समरंगजी', 'अहमद याहया मनैरी' आदि इस सिलसिले के प्रमुख सन्त थे। सूफ़ी सिद्धान्तों एवं पद्धतियों ने हिन्दू दर्शन और भक्ति के विभिन्न तत्वों को आत्मसात किया। सूफ़ियों के मठवासीय संगठनों एवं उनकी कुछ पद्धतियों जैसे प्रायश्यित, उपवास एवं प्राणायाम में बौद्ध एवं हिन्दू योगियों का प्रभाव झलकता है। सूफ़ियों ने अपने खनकाहों का निर्माण बौद्ध बिहारों एवं हिन्दू मठों की तरह करवाया। भारतीय योग सिद्धान्त के अन्तर्गत सूफ़ी हठयोग की अमृतकुड की अवधारणा से काफ़ी प्रभावित हुए। यही सब कारण थे, जो भारतीय सूफ़ियों को अन्य मुस्लिम देश के सूफ़ियों से अलग करते हैं। इस तरह भारत में सूफ़ी आन्दोलन ने इस्लाम के उस पुराने स्वरूप को काफ़ी बदल दिया, जो सुन्नी धर्मवेत्ताओं द्वारा प्रस्तुत किया गया था। सूफ़ी इस्लाम के प्रचारक ही नहीं, बल्कि पूर्ण आध्यात्मिक विकास के अग्रदूत थे, जिन्होंने मानवता की सेवा की। सूफ़ी विचारधारा विश्व में आज भी जीवित है।


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