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====प्रथम क़िले का निर्माण====
====प्रथम क़िले का निर्माण====
[[9 मार्च]], 1500 ई. को 13 जहाज़ों के एक बेड़े का नायक बनकर 'पेड्रों अल्वारेज केब्राल' जल-मार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ। वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला यह दूसरा पुर्तग़ाली यात्री था। पुर्तग़ाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, [[गोवा]], [[दमन और दीव]] एवं हुगली के बंदरगाहों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। पूर्वी जगत के काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने 1503 ई. में [[कोचीन]] (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की। पुर्तग़ालियों के वे वायसराय, जिन्होंने पुर्तग़ालियों को भारत में अपने पैर जमाने के लिये भरपूर योगदान किया, उनके नाम इस प्रकार हैं-
[[9 मार्च]], 1500 ई. को 13 जहाज़ों के एक बेड़े का नायक बनकर 'पेड्रों अल्वारेज केब्राल' जल-मार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ। वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला यह दूसरा पुर्तग़ाली यात्री था। पुर्तग़ाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, [[गोवा]], [[दमन और दीव]] एवं हुगली के बंदरगाहों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। पूर्वी जगत के काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने 1503 ई. में [[कोचीन]] (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की। पुर्तग़ालियों के वे वायसराय, जिन्होंने पुर्तग़ालियों को भारत में अपने पैर जमाने के लिये भरपूर योगदान किया, उनके नाम इस प्रकार हैं-
#[[फ़्रांसिस्को-द-अल्मेडा]]
#[[फ़्रांसिस्को-द-अल्मेडा]]
#[[अलफ़ांसो-द-अल्बुकर्क]]
#[[अलफ़ांसो-द-अल्बुकर्क]]
#[[नीनो-डी-कुन्हा]]
#[[नीनो-डी-कुन्हा]]
#[[जोवा-डी-कैस्ट्रो]]
#[[जोवा-डी-कैस्ट्रो]]
====भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप====
अपनी शक्ति के विस्तार के साथ ही पुर्तग़ालियों ने भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर लिया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि, वे कालीकट के राजा से, जिसकी समृद्धि अरब सौदागरों पर निर्भर थी, शत्रुता रखने लगे। वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से, जिनमें [[कोचीन]] का राजा प्रमुख था, संधियाँ करने लगे। [[भारत]] में पुर्तग़ालियों ने सबसे पहले प्रवेश किया, लेकिन अठाहरवीं सदी तक आते-जाते भारतीय व्यापार के क्षेत्र में उनका प्रभाव जाता रहा। उनके पतन के महत्वपूर्ण कारणों में उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, अल्बुकर्क के अयोग्य उत्तराधिकारी, [[डच]] तथा [[अंग्रेज़]] शक्तियों का विरोध, बर्बरतापूर्वक समुद्री लूटमार की नीति का पालन, [[स्पेन]] द्वारा पुर्तग़ाल की स्वतन्त्रता का हरण, [[विजयनगर साम्राज्य]] का विध्वंस आदि को गिनाया जाता है। उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति से भारतीय शक्तियाँ रुष्ट हो गयीं, जिन पर पुर्तग़ाली विजय नहीं प्राप्त कर सके।
==पुर्तग़ालियों का पतन==
पुर्तग़ालियों का चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ। [[ब्राजील]] का पता लग जाने पर पुर्तग़ाल की उपनिवेश संबंधी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गयी। अंततः उनके पीछे आने वाली यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिद्वंदिता हुई, जिसमें वे पिछड़े गये। अधिकांश भाग उनके हाथ से निकल गए। डच और ब्रिटिश कम्पनियों के [[हिन्द महासागर]] में आ जाने से पुर्तग़ालियों का एकाधिकार समाप्त हो गया। 1538 ई. में 'अदन' पर तुर्की अधिकार हो गया। 1602 ई. में डचों ने 'वाण्टम' के समीप पुर्तग़ाली बेड़े पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। 1641 ई. में डचों ने पुर्तग़ालियों के महत्वपूर्ण मलक्का दुर्ग को जीत लिया। 1628 ई. में फ़ारसी सेना की सहायता से [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने 'हरमुज' पर अधिकार कर लिया तथा [[मराठा|मराठों]] ने 1739 ई. में सालसेत द्वीप और [[बसीन]] पर अधिकार कर लिया। 1661 ई. तक केवल [[गोवा]], [[दमन और दीव]] ही पुर्तग़ालियों के अधिकार में रहा।
==भारत  में सफलता के कारण==
हिन्द महासागर और दक्षिणी तट पर पुर्तग़ालियों के प्रभुत्व के लिए निम्नलिखित कारण ज़िम्मेदार थे-
*एशियाई जहाज़ों की तुलना में पुर्तग़ाली नौसेना का अधिक होना।
*सामजिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से स्थापित महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्तियों तथा स्थानीय लोगों का सहयोग।
पुर्तग़ाली सामुद्रिक साम्राज्य को 'एस्तादो द इण्डिया' नाम दिया गया। उन्होंने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया। उन्होने 'काटर्ज-आर्मेडा-काफ़िला' व्यवस्था द्वारा एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। पुर्तग़ालियों द्वारा अपने प्रभुत्व के अधीन सामुद्रिक मार्गों पर सुरक्षा कर वसूल करने को 'काटर्ज व्यवस्था' कहा जाता था। [[पुर्तग़ाल]] अधिग्रहीत क्षेत्रों में व्यापार के लिए [[अकबर]] को भी एक निःशुल्क काटर्ज प्राप्त करना पड़ता था। पुर्तग़ाली अपने को 'सागर स्वामी' कहते थे। कोई भी भारतीय, अरबी जहाज़ पुर्तग़ाली अधिकारियों से काटर्ज (परमिट) लिए बिना, [[अरब सागर]] में नहीं जा सकता था। 1595 ई. तक पुर्तग़ालियों का हिन्द महासागर पर एकधिकार बना रहा।
1542 ई. में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्फ़ांसों डिसूजा के सथ प्रसिद्ध जेसुइट संत जेवियर भारत आया। पुर्तग़ालियों ने [[कन्याकुमारी]] एवं एडमब्रिज के मध्य रहने वाले जनजातीय मछुवारों और मालावार समुद्र तट के मुकुवा मछुवारों को [[ईसाई धर्म]] में परिवर्तित किया। पुर्तग़ालियों ने 1560 ई. में [[गोवा]] में ईसाई धर्म न्यायालय की स्थापना की थी। [[मुग़ल]] शासक [[शाहजहाँ]] ने 1632 ई. में पुर्तग़ालियों से हुगली छीन लिया, क्योंकि पुर्तग़ाली वहाँ पर लूटमार तथा धर्म परिवर्तन आदि निन्दनीय कार्य कर रहे थे। शाहजहाँ ने इसका दायित्व गवर्नर [[कासिम अली ख़ाँ]] को सौंपा था। पुर्तग़ाली मालाबर और कोंकण तट से सर्वाधिक [[काली मिर्च]] का निर्यात करते थे। मालाबर तट से [[अदरख]], दालचीनी, [[चंदन]], [[हल्दी]], नील आदि का निर्यात होता था।
भारत में गोधिक स्थापत्य कला का आगमन पुर्तग़ालियों के साथ हुआ। पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन और दीव पर 1661 ई. तक शासन किया। उनके आगमन से भारत में तम्बाकू की खेती, जहाज निर्माण तथा प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। इस प्रकार भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना 1556 ई. में गोवा में हुई।
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12:16, 13 जुलाई 2011 का अवतरण

पुर्तग़ाल देश के लोगों को पुर्तग़ाली कहा जाता है। वास्कोडिगामा एक पुर्तग़ाली नाविक था। वास्कोडिगामा के द्वारा की गई भारत यात्राओं ने पश्चिमी यूरोप से 'केप ऑफ़ गुड होप' होकर पूर्व के लिए समुद्री मार्ग खोल दिए थे। जिस स्थान का नाम पुर्तग़ालियों ने गोवा रखा था, वह आज का छोटा-सा समुद्र तटीय शहर 'गोअ-वेल्हा' है। कालान्तर में उस क्षेत्र को गोवा कहा जाने लगा, जिस पर पुर्तग़ालियों ने क़ब्ज़ा किया था। 17 मई, 1498 ई. को वास्कोडिगामा ने भारत के पश्चिमी तट पर स्थित बन्दरगाह कालीकट पहुँचकर भारत के नये समुद्र मार्ग की खोज की। कालीकट के तत्कालीन शासक 'जमोरिन' ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया। जमोरिन का यह व्यापार उस समय भारतीय व्यापार पर अधिकार जमाये हुए अरब व्यापारियों को पसन्द नहीं आया।

पुर्तग़ालियों का भारत आगमन

आधुनिक युग में भारत आने वाले यूरोपीय व्यापारियों के रूप के पुर्तग़ाली सर्वप्रथम रहे। 'पोप अलेक्ज़ेण्डर षष्ठ' ने एक आज्ञा पत्र द्वारा पूर्वी समुद्रों में पुर्तग़ालियों को व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया। प्रथम पुर्तग़ीज तथा प्रथम यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा 90 दिन की समुद्री यात्रा के बाद 'अब्दुल मनीक' नामक गुजराती पथ प्रदर्शक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समुद्री तट पर उतरा। वास्कोडिगामा के भारत आगमन से पुर्तग़ालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नये युग का शुभारम्भ हुआ। वास्कोडिगामा ने भारत आने और जाने पर हुए यात्रा के व्यय के बदले में 60 गुना अधिक कमाई की। धीरे-धीरे पुर्तग़ालियों का भारत आने का क्रम जारी हो गया। पुर्तग़ालियों के भारत आने के दो प्रमुख उद्देश्य थे-

  1. अरबों और वेनिस के व्यापारियों का भारत से प्रभाव समाप्त करना।
  2. ईसाई धर्म का प्रचार करना।

प्रथम क़िले का निर्माण

9 मार्च, 1500 ई. को 13 जहाज़ों के एक बेड़े का नायक बनकर 'पेड्रों अल्वारेज केब्राल' जल-मार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ। वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला यह दूसरा पुर्तग़ाली यात्री था। पुर्तग़ाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन और दीव एवं हुगली के बंदरगाहों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। पूर्वी जगत के काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने 1503 ई. में कोचीन (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की। पुर्तग़ालियों के वे वायसराय, जिन्होंने पुर्तग़ालियों को भारत में अपने पैर जमाने के लिये भरपूर योगदान किया, उनके नाम इस प्रकार हैं-

  1. फ़्रांसिस्को-द-अल्मेडा
  2. अलफ़ांसो-द-अल्बुकर्क
  3. नीनो-डी-कुन्हा
  4. जोवा-डी-कैस्ट्रो

भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप

अपनी शक्ति के विस्तार के साथ ही पुर्तग़ालियों ने भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर लिया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि, वे कालीकट के राजा से, जिसकी समृद्धि अरब सौदागरों पर निर्भर थी, शत्रुता रखने लगे। वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से, जिनमें कोचीन का राजा प्रमुख था, संधियाँ करने लगे। भारत में पुर्तग़ालियों ने सबसे पहले प्रवेश किया, लेकिन अठाहरवीं सदी तक आते-जाते भारतीय व्यापार के क्षेत्र में उनका प्रभाव जाता रहा। उनके पतन के महत्वपूर्ण कारणों में उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, अल्बुकर्क के अयोग्य उत्तराधिकारी, डच तथा अंग्रेज़ शक्तियों का विरोध, बर्बरतापूर्वक समुद्री लूटमार की नीति का पालन, स्पेन द्वारा पुर्तग़ाल की स्वतन्त्रता का हरण, विजयनगर साम्राज्य का विध्वंस आदि को गिनाया जाता है। उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति से भारतीय शक्तियाँ रुष्ट हो गयीं, जिन पर पुर्तग़ाली विजय नहीं प्राप्त कर सके।

पुर्तग़ालियों का पतन

पुर्तग़ालियों का चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ। ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तग़ाल की उपनिवेश संबंधी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गयी। अंततः उनके पीछे आने वाली यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिद्वंदिता हुई, जिसमें वे पिछड़े गये। अधिकांश भाग उनके हाथ से निकल गए। डच और ब्रिटिश कम्पनियों के हिन्द महासागर में आ जाने से पुर्तग़ालियों का एकाधिकार समाप्त हो गया। 1538 ई. में 'अदन' पर तुर्की अधिकार हो गया। 1602 ई. में डचों ने 'वाण्टम' के समीप पुर्तग़ाली बेड़े पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। 1641 ई. में डचों ने पुर्तग़ालियों के महत्वपूर्ण मलक्का दुर्ग को जीत लिया। 1628 ई. में फ़ारसी सेना की सहायता से अंग्रेज़ों ने 'हरमुज' पर अधिकार कर लिया तथा मराठों ने 1739 ई. में सालसेत द्वीप और बसीन पर अधिकार कर लिया। 1661 ई. तक केवल गोवा, दमन और दीव ही पुर्तग़ालियों के अधिकार में रहा।

भारत में सफलता के कारण

हिन्द महासागर और दक्षिणी तट पर पुर्तग़ालियों के प्रभुत्व के लिए निम्नलिखित कारण ज़िम्मेदार थे-

  • एशियाई जहाज़ों की तुलना में पुर्तग़ाली नौसेना का अधिक होना।
  • सामजिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से स्थापित महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्तियों तथा स्थानीय लोगों का सहयोग।

पुर्तग़ाली सामुद्रिक साम्राज्य को 'एस्तादो द इण्डिया' नाम दिया गया। उन्होंने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया। उन्होने 'काटर्ज-आर्मेडा-काफ़िला' व्यवस्था द्वारा एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। पुर्तग़ालियों द्वारा अपने प्रभुत्व के अधीन सामुद्रिक मार्गों पर सुरक्षा कर वसूल करने को 'काटर्ज व्यवस्था' कहा जाता था। पुर्तग़ाल अधिग्रहीत क्षेत्रों में व्यापार के लिए अकबर को भी एक निःशुल्क काटर्ज प्राप्त करना पड़ता था। पुर्तग़ाली अपने को 'सागर स्वामी' कहते थे। कोई भी भारतीय, अरबी जहाज़ पुर्तग़ाली अधिकारियों से काटर्ज (परमिट) लिए बिना, अरब सागर में नहीं जा सकता था। 1595 ई. तक पुर्तग़ालियों का हिन्द महासागर पर एकधिकार बना रहा।

1542 ई. में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्फ़ांसों डिसूजा के सथ प्रसिद्ध जेसुइट संत जेवियर भारत आया। पुर्तग़ालियों ने कन्याकुमारी एवं एडमब्रिज के मध्य रहने वाले जनजातीय मछुवारों और मालावार समुद्र तट के मुकुवा मछुवारों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया। पुर्तग़ालियों ने 1560 ई. में गोवा में ईसाई धर्म न्यायालय की स्थापना की थी। मुग़ल शासक शाहजहाँ ने 1632 ई. में पुर्तग़ालियों से हुगली छीन लिया, क्योंकि पुर्तग़ाली वहाँ पर लूटमार तथा धर्म परिवर्तन आदि निन्दनीय कार्य कर रहे थे। शाहजहाँ ने इसका दायित्व गवर्नर कासिम अली ख़ाँ को सौंपा था। पुर्तग़ाली मालाबर और कोंकण तट से सर्वाधिक काली मिर्च का निर्यात करते थे। मालाबर तट से अदरख, दालचीनी, चंदन, हल्दी, नील आदि का निर्यात होता था।

भारत में गोधिक स्थापत्य कला का आगमन पुर्तग़ालियों के साथ हुआ। पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन और दीव पर 1661 ई. तक शासन किया। उनके आगमन से भारत में तम्बाकू की खेती, जहाज निर्माण तथा प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। इस प्रकार भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना 1556 ई. में गोवा में हुई।





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