"किसान आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन इस प्रकार थे-
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन इस प्रकार थे-
====नील आन्दोलन (1859-1860 ई.)====
====नील आन्दोलन (1859-1860 ई.)====
यह आन्दोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के ख़िलाफ़ [[बंगाल]] में किया गया। अपनी आर्थिक माँगों के सन्दर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आन्दोलन उस समय का एक विशाल आन्दोलन था। [[अंग्रेज़]] अधिकारी बंगाल तथा [[बिहार]] के ज़मींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रक़म अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाज़ार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था, जबकि किसान अपनी उपजाऊ ज़मीन पर [[चावल]] की खेती करना चाहते थे। इस आन्दोलन की सर्वप्रथम शुरुआत सितम्बर, 1859 ई. में बंगाल के 'नदिया ज़िले' के गोविन्दपुर गाँव से हुई। भारतीय किसानों ने अंग्रेज़ों द्वारा अपने साथ दासों जैसा व्यवहार करने के कारण ही विद्रोह किया। यह आन्दोलन 'नदिया', 'पाबना', 'खुलना', 'ढाका', 'मालदा', 'दीनाजपुर' आदि स्थानों पर फैला था। किसानों की आपसी एकजुटता, अनुशासन एवं संगठित होने के बदौलत ही आन्दोलन पूर्णरूप से सफल रहा। इसकी सफलता के सामने अंग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा और रैय्यतों की स्वतन्त्रता को ध्यान में रखते हुए 1860 ई. के नील विद्रोह का वर्णन 'दीनबन्धु मित्र' ने अपनी पुस्तक 'नील दर्पण' में किया है। इस आन्दोलन की शुरुआत 'दिगम्बर' एवं 'विष्णु विश्वास' ने की थी। 'हिन्दू पैट्रियट' के संपादक 'हरीशचन्द्र मुखर्जी' ने नील आन्दोलन में काफ़ी काम किया। किसानों के शोषण, सरकारी अधिकारियों के पक्षपात ओर इसके विरुद्ध विभिन्न स्थानों पर चल रहे किसानों के संघर्ष में उन्होने अख़बार में लगातार ख़बरें छापीं। मिशनरियों ने भी नील आन्दोलन के समर्थन में सक्रिय भूमिका निभाई। इस आन्दोलन के प्रति सरकार का भी रवैया काफ़ी संतुलित रहा। 1860 ई. तक नील की खेती पूरी तरह ख़त्म हो गई।
{{main|नील आन्दोलन}}
यह आन्दोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के ख़िलाफ़ [[बंगाल]] में किया गया। अपनी आर्थिक माँगों के सन्दर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आन्दोलन उस समय का एक विशाल आन्दोलन था। [[अंग्रेज़]] अधिकारी बंगाल तथा [[बिहार]] के ज़मींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रक़म अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाज़ार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था।
====पाबना विद्रोह (1873-1876 ई.)====
====पाबना विद्रोह (1873-1876 ई.)====
{{main|पाबना विद्रोह}}
पाबना ज़िले के काश्तकारों को 1859 ई. में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बाबजूद भी ज़मींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी ज़मीन के अधिकार से वंचित किया। ज़मींदार को ज़्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना के युसुफ़ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभायें आयोजित करना होता था।
पाबना ज़िले के काश्तकारों को 1859 ई. में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बाबजूद भी ज़मींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी ज़मीन के अधिकार से वंचित किया। ज़मींदार को ज़्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना के युसुफ़ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभायें आयोजित करना होता था।
कालान्तर में पूर्वी [[बंगाल]] के अनेक ज़िले [[ढाका]], मैमनसिंह, [[त्रिपुरा]], बेकरगंज, फ़रीदपुर, बोगरा एवं राजशाही में इस तरह के आन्दोलन हुए। किसान संघ ने बढ़े लगान की अदायगी रोककर पैमाइश की माप में परिवर्तन एवं अवैधानिक करों की समाप्ति तथा लगान में कमी करवाने की अपनी माँगों को पूरा करवाना चाहा। यह आन्दोलन कुछ मामलों में अहिंसक था। यह ज़मींदारों के विरुद्ध किया गया आन्दोलन था,  न कि [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के विरुद्ध। पाबना के किसानों ने अपनी माँग में यह नारा दिया कि, 'हम महामहिम महारानी की और केवल उन्हीं की रैय्यत होना चाहते हैं'। तत्कालीन गवर्नर कैम्पबेल ने एक घोषणा में इनकी माँगों को उचित ठहराया। इस आन्दोलन में रैय्यतों अधिकतर [[मुसलमान]] एवं ज़मींदारों में अधिकतर [[हिन्दू]] थे। इस आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेताओं में ईशान चन्द्र राय, शंभुपाल आदि थे। पाबना विद्रोह का समर्थन कई युवा बुद्धिजीवियों ने किया, जिनमें [[बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय]] और आर.सी. दत्त शामिल थे। 1880 ई. के दशक में जब [[बंगाल]] काश्तकारी विधेयक पर चर्चा चल रही थी, तब [[सुरेन्द्रनाथ बनर्जी]], [[आनंद मोहन बोस]] और द्वारका नाथ गांगुली ने एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया। इन लोगों ने माँग की थी, कि ज़मीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए, जो वस्तुतः उसे जोतते हों।
====दक्कन विद्रोह====
====दक्कन विद्रोह====
[[महाराष्ट्र]] के [[पूना]] एवं [[अहमदनगर]] ज़िलों में [[गुजराती भाषा|गुजराती]] एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकण्डे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसम्बर 1874 ई. में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के ख़िलाफ़ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत 1874 ई. में शिरूर तालुका के करडाह गाँव से हुई। 1875 ई. तक यह आन्दोलन पूना, अहमदाबाद, [[सतारा]], [[शोलापुर]] आदि ज़िलों में फैल गया। किसानों ने साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। सरकार ने 'दक्कन उपद्रव आयोग' का गठन किया। किसानों की स्थिति में सुधार हेतु 1876 ई. में 'दक्कन कृषक राहत अधिनियम' को पारित किया गया।
[[महाराष्ट्र]] के [[पूना]] एवं [[अहमदनगर]] ज़िलों में [[गुजराती भाषा|गुजराती]] एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकण्डे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसम्बर 1874 ई. में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के ख़िलाफ़ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत 1874 ई. में शिरूर तालुका के करडाह गाँव से हुई। 1875 ई. तक यह आन्दोलन पूना, अहमदाबाद, [[सतारा]], [[शोलापुर]] आदि ज़िलों में फैल गया। किसानों ने साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। सरकार ने 'दक्कन उपद्रव आयोग' का गठन किया। किसानों की स्थिति में सुधार हेतु 1876 ई. में 'दक्कन कृषक राहत अधिनियम' को पारित किया गया।
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====मोपला विद्रोह (1920 ई.)====
====मोपला विद्रोह (1920 ई.)====
[[केरल]] के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1920 ई. में विद्राह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह [[अंग्रेज़]] हुकूमत के ख़िलाफ़ॅ था। [[महात्मा गाँधी]], शौकत अली, [[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]] जैसे नेताओं का सहयोग इस आन्दोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। 15 फ़रवरी, 1921 ई. को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर ख़िलाफ़त तथा [[कांग्रेस]] के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद यह आन्दोलन स्थानीय मोपला नेताओं के हाथ में चला गया। 1920 ई. में इस आन्दोलन ने [[हिन्दू]]-[[मुसलमान|मुसलमानों]] के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया, परन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।
[[केरल]] के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1920 ई. में विद्राह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह [[अंग्रेज़]] हुकूमत के ख़िलाफ़ॅ था। [[महात्मा गाँधी]], शौकत अली, [[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]] जैसे नेताओं का सहयोग इस आन्दोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। 15 फ़रवरी, 1921 ई. को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर ख़िलाफ़त तथा [[कांग्रेस]] के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद यह आन्दोलन स्थानीय मोपला नेताओं के हाथ में चला गया। 1920 ई. में इस आन्दोलन ने [[हिन्दू]]-[[मुसलमान|मुसलमानों]] के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया, परन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।
कूका आन्दोलन
====कूका विद्रोह====
कृषि सम्बन्धी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेजी सरकार से लड़ने के लिए बनाये गये इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। 1872 ई. में इनके शिष्य बाबा राम सिंह ने अंग्रेजों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हे कैद कर रंगून भेज दिया गया जहां पर 1885 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।  
{{main|कूका विद्रोह}}
[[कृषि]] सम्बन्धी समस्याओं के ख़िलाफ़ [[अंग्रेज़]] सरकार से लड़ने के लिए बनाये गये इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। 1872 ई. में इनके शिष्य बाबा राम सिंह ने अंग्रेज़ों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर [[रंगून]] भेज दिया गया, जहाँ पर 1885 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।  
====रामोसी किसानों का विद्रोह====
====रामोसी किसानों का विद्रोह====
[[महाराष्ट्र]] में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रमोसी किसानों ने ज़मींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया।
[[महाराष्ट्र]] में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रमोसी किसानों ने ज़मींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया।

13:33, 5 अगस्त 2011 का अवतरण

1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अंग्रेज़ों ने कुछ देशी रियासतों की सहायता से दबा तो दिया, लेकिन इसके पश्चात भी भारत में कई जगहों पर संग्राम की ज्वाला लोगों के दिलों में दहकती रही। इसी बीच अनेकों स्थानों पर एक के बाद एक कई किसान आन्दोलन हुए। इनमें से अधिकांश आन्दोलन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किये गए थे। कितने ही समाचार पत्रों ने किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को अपने पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित किया था। नील विद्रोह, पाबना विद्रोह, तेभागा आन्दोलन, चम्पारन सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आन्दोलन के रूप में जाने जाते हैं। जहाँ 1918 ई. का खेड़ा सत्याग्रह गाँधीजी द्वारा शुरू किया गया, वहीं 'मेहता बन्धुओं' (कल्याण जी तथा कुँवर जी) ने भी 1922 ई. में बारदोली सत्याग्रह को प्रारम्भ किया था। बाद में इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के हाथों में रहा।

प्रमुख किसान आन्दोलन

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारत में हुए प्रमुख किसान आन्दोलन इस प्रकार थे-

नील आन्दोलन (1859-1860 ई.)

यह आन्दोलन भारतीयों किसानों द्वारा ब्रिटिश नील उत्पादकों के ख़िलाफ़ बंगाल में किया गया। अपनी आर्थिक माँगों के सन्दर्भ में किसानों द्वारा किया जाने वाला यह आन्दोलन उस समय का एक विशाल आन्दोलन था। अंग्रेज़ अधिकारी बंगाल तथा बिहार के ज़मींदारों से भूमि लेकर बिना पैसा दिये ही किसानों को नील की खेती में काम करने के लिए विवश करते थे, तथा नील उत्पादक किसानों को एक मामूली सी रक़म अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखा लेते थे, जो बाज़ार भाव से बहुत कम दाम पर हुआ करता था। इस प्रथा को 'ददनी प्रथा' कहा जाता था।

पाबना विद्रोह (1873-1876 ई.)

पाबना ज़िले के काश्तकारों को 1859 ई. में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बाबजूद भी ज़मींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी ज़मीन के अधिकार से वंचित किया। ज़मींदार को ज़्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना के युसुफ़ सराय के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभायें आयोजित करना होता था।

दक्कन विद्रोह

महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर ज़िलों में गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकार ढेर सारे हथकण्डे अपनाकर किसानों का शोषण कर रहे थे। दिसम्बर 1874 ई. में एक सूदखोर कालूराम ने किसान (बाबा साहिब देशमुख) के ख़िलाफ़ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आन्दोलन की शुरुआत 1874 ई. में शिरूर तालुका के करडाह गाँव से हुई। 1875 ई. तक यह आन्दोलन पूना, अहमदाबाद, सतारा, शोलापुर आदि ज़िलों में फैल गया। किसानों ने साहूकारों के घरों एवं दुकानों को नष्ट कर दिया। सरकार ने 'दक्कन उपद्रव आयोग' का गठन किया। किसानों की स्थिति में सुधार हेतु 1876 ई. में 'दक्कन कृषक राहत अधिनियम' को पारित किया गया।

उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन

होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा गौरीशंकर मिश्र, इन्द्र नारायण द्विवेदी तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा निर्देशन के परिणामस्वरूप फ़रवरी, 1918 ई. में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया। 1919 ई. के अन्तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। प्रतापगढ़ ज़िले की एक जागीर में 'नाई धोबी बंद' सामाजिक बहिष्कार संगठित कारवाई की पहली घटना थी। अवध की तालुकेदारी में ग्राम पंचायतों के नेतृत्व में किसान बैठकों का सिलसिला शुरू हो गया। झिंगुरीपाल सिंह एवं दुर्गपाल सिंह ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन जल्द ही एक चेहरे के रूप में बाबा रामचन्द्र उभर कर सामने आए। उत्तर प्रदेश के किसान आन्दोलन को 1920 ई. के दशक में सर्वाधिक मजबूती बाबा रामचन्द्र ने प्रदान की। उनके व्यक्तिगत प्रयासों से ही 17 अक्टूबर, 1920 ई. को प्रतापगढ़ ज़िले में 'अवध किसान सभा' का गठन किया गया। प्रतापगढ़ ज़िले का 'खरगाँव' किसान सभा की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू, गौरीशंकर मिश्र, माता बदल पांडे, केदारनाथ आदि ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर ज़िलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने 'एका आन्दोलन' नाम का आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में कुछ ज़मींदार भी शामिल थे। इस आन्दोलन के प्रमुख नेता 'मदारी पासी' और 'सहदेव' थे। ये दोनों निम्न जाति के किसान थे।

मोपला विद्रोह (1920 ई.)

केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं द्वारा 1920 ई. में विद्राह किया गया। प्रारम्भ में यह विद्रोह अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ॅ था। महात्मा गाँधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे नेताओं का सहयोग इस आन्दोलन को प्राप्त था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता के रूप में 'अली मुसलियार' चर्चित थे। 15 फ़रवरी, 1921 ई. को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर ख़िलाफ़त तथा कांग्रेस के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद यह आन्दोलन स्थानीय मोपला नेताओं के हाथ में चला गया। 1920 ई. में इस आन्दोलन ने हिन्दू-मुसलमानों के मध्य साम्प्रदायिक आन्दोलन का रूप ले लिया, परन्तु शीघ्र ही इस आन्दोलन को कुचल दिया गया।

कूका विद्रोह

कृषि सम्बन्धी समस्याओं के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ सरकार से लड़ने के लिए बनाये गये इस संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। 1872 ई. में इनके शिष्य बाबा राम सिंह ने अंग्रेज़ों का कड़ाई से सामना किया। कालान्तर में उन्हें कैद कर रंगून भेज दिया गया, जहाँ पर 1885 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।

रामोसी किसानों का विद्रोह

महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रमोसी किसानों ने ज़मींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया।

रंपाओं का विद्रोह

आन्ध्र प्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो 1879 ई. से लेकर 1920-22 ई. तक छिटपुट ढंग से चलता रहा। रंपाओं को 'मुट्टा' तथा उनके ज़मींदार को 'मुट्टादार' कहते थे। सुलिवन ने रंपाओं के विद्रोह के कारणों की जाँच की। उसने नये ज़मीदारों को हटाकर पुराने ज़मींदारों को रखने की सिफारिश की थी।

ताना भगत आन्दोलन

इस आन्दोलन की शुरुआत 1914 ईं. में बिहार में हुई। यह आन्दोलन लगान की ऊची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध किया गया था। इस आन्दोलन के प्रवर्तक 'जतरा भगत' थे, जिसे कभी 'विरसा', कभी 'जमी' तो कभी 'केसर बाबा' के समतुल्य होने की बात कही गयी है। इसके अतिरिक्त अन्य नेताओं में बलराम भगत, गुरुरक्षितणी भगत आदि इस आन्दोलन से सम्बद्ध थे।

तेभागा आन्दोलन

किसान आन्दोलनों में 1946 ई. का बंगाल का तेभागा आन्दोलन सर्वाधिक सशक्त आन्दोलन था, जिसमें किसानों ने 'फ्लाइड कमीशन' की सिफ़ारिश के अनुरूप लगान की दर घटाकर एक तिहाई करने के लिए संघर्ष शुरू किया था। यह आन्दोलन जोतदारों के विरुद्ध बंटाईदारों का आन्दोलन था। इस आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेता 'कम्पाराम सिंह' एवं 'भवन सिंह' थे।

तेलंगाना आन्दोलन

आंध्र प्रदेश में यह आन्दोलन ज़मींदारों एवं साहूकारों के शोषण की नीति के ख़िलाफ़ तथा भ्रष्ट अधिकारियों के अत्याचार के विरुद्ध 1946 ई. में किया गया था। 1858 ई. के बाद हुए किसान आन्दोलनों का चरित्र पूर्व के आन्दोलन से अलग था। अब किसान बगैर किसी मध्यस्थ के स्वयं ही अपनी लड़ाई लड़ने लगे। इनकी अधिकांश माँगे आर्थिक होती थीं। किसान आन्दोलन ने राजनीतिक शक्ति के अभाव में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध नहीं किया। किसानों की लड़ाई के पीछे उद्देश्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था, बल्कि वे यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे। इन आन्दोलनों की असफलता के पीछे किसी ठोस विचारधारा, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यक्रमों का अभाव था।

अखिल भारतीय किसान सभा (1936 ई.)

1923 ई. में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने 'बिहार किसान सभा' का गठन किया। 1928 ई. में 'आंध प्रान्तीय रैय्यत सभा' की स्थापना एन.जी. रंगा ने की। उड़ीसा में मालती चैधरी ने 'उत्तकल प्रान्तीय किसान सभा' की स्थापना की। बंगाल में 'टेंनेंसी एक्ट' को लेकर अकरम ख़ाँ, अब्दुर्रहीम, फ़जलुलहक, के प्रयासों से 1929 ई. में 'कृषक प्रजा पार्टी' की स्थापना हुई।

अप्रैल, 1935 ई. में संयुक्त प्रान्त में किसान संघ की स्थापना हुई। इसी वर्ष एन.जी. रंगा एवं अन्य किसान नेताओं ने सभी प्रान्तीय किसान सभाओं को मिलाकर एक 'अखिल भारतीय किसान संगठन' बनाने की योजना बनाई। अपने इसी उद्देश्य को आगे बढ़ाते हुए किसान नेताओं ने 11 अप्रैल, 1936 ई. को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना की। स्वामी सहजानन्द सरस्वती इसके अध्यक्ष तथा प्रो. एन.जी. रंगा इसके महासचिव चुने गए। अखिल भारतीय किसान सभा को जवाहर लाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया था। इस अधिवेशन में 1 सितम्बर, 1936 ई. को किसान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया गया। फ़ैजपुर में कांग्रेस सम्मेलन के समय उसके समानान्तर होने वाले अखिल भारतीय किसान आन्दोलन की अध्यक्षता एन.जी. रंगा ने की। इस सम्मेलन में भू-राजस्व की दर 50 प्रतिशत कम करने तथा किसान संगठनों को मान्यता देने की माँग रखी गई। इस सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले नेताओं में जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव तथा कमल सरकार प्रमुख थे। किसान आन्दोलन को गति प्रदान करने तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं को शिक्षित करने के उद्देश्य से 1938 ई. में आंध्र प्रदेश के गण्टूर ज़िले मे निदुबोल में पहला 'भारतीय किसान स्कूल' खोला गया।

चम्पारन सत्याग्रह

चम्पारन का मामला बहुत पुराना था। चम्पारन के किसानों से अंग्रेज़ बाग़ान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को ज़मीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे 'तिनकठिया पद्धति' कहते थे। 19वीं शताब्दी के अन्त में रासायनिक रगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाज़ार में गिरावट आने लगी, जिससे नील बाग़ान के मालिक अपने कारखाने बंद करने लगे। किसान भी नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। गोरे बाग़ान मालिकों ने किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर अनुबंध से मुक्त करने के लिए लगान को मनमाने ढंग से बढ़ा दिया, जिसके परिणामस्वरूप विद्रोह शुरू हुआ। 1917 ई. में चम्पारण के राजकुमार शुक्ल ने सत्याग्रह की धमकी दी, जिससे प्रशासन ने अपना आदेश वापस ले लिया। चम्पारन में गाँधीजी द्वारा सत्याग्रह का सर्वप्रथम प्रयोग करने का प्रयास किया गया। चम्पारन में गाँधीजी के साथ अन्य नेताओं में राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.बी.कृपलानी थे। इस आन्दोलन में गाँधीजी के नेतृत्व में किसानों को एकजुटता को देखते हुए सरकार ने मामले की जाँच की। जुलाई, 1917 ई. में 'चम्पारण एग्रेरियन कमेटी' का गठन किया। गाँधीजी भी इसके सदस्य थे। इस कमेटी के प्रतिवेदन पर 'तिनकठिया प्रणाली' को समाप्त कर दिया तथा किसानों से अवैध रूप से वसूले गए धन का 25 प्रतिशत वापस कर दिया गया। 1919 ई. में 'चम्पारण एग्रेरियन अधिनियम' पारित किया गया तथा किसानों की स्थिति में सुधार हुआ।

खेड़ा सत्याग्रह

चम्पारन के बाद गाँधीजी ने 1918 ई. में खेड़ा किसानों की समस्याओं को लेकर आन्दोलन शुरू किया। खेड़ा गुजरात में स्थित है। खेड़ा में गाँधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक 'किसान सत्याग्रह' की शुरुआत की। खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में राहत की माँग की, लेकिन कोई रियासत नहीं मिली। गाँधीजी ने 22 मार्च, 1918 ई. में खेड़ा आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। अन्य सहयोगियों में सरदार वल्लभ भाई पटेल और इन्दुलाल याज्ञनिक थे। 22 मार्च, 1918 ई. को नाडियाद में एक आम सभा में गाँधीजी ने किसानों का लगान अदा न करने का सुझाव दिया। लगान न अदा करने का पहला नारा खेड़ा के 'कापड़गंज' तालुका में स्थानीय नेता 'मोहन पाण्ड्या' ने दिया। गाँधीजी के सत्याग्रह के आगे विवश होकर सरकार ने यह आदेश दिया कि, वसूली समर्थ किसानों से ही की जाय।

बारदोली सत्याग्रह (1920 ई.)

सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुके में 1928 ई. में किसानों द्वारा 'लगान' न अदायगी का आन्दोलन चलाया गया। इस आन्दोलन में केवल 'कुनबी-पाटीदार' जातियों के भू-स्वामी किसानों ने ही नहीं, बल्कि 'कालिपराज' (काले लोग) जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया। बारदोली सत्याग्रह पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन का सबसे संगठित, व्यापक एवं सफल आन्दोलन रहा है। बारदोली के 'मेड़ता बन्धुओं' (कल्याण जी और कुंवर जी) तथा दयाल जी ने किसानों के समर्थन में 1922 ई. से आन्दोलन चलाया था। बाद में इसका नेतृत्व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। बारदोली क्षेत्र में कालिपराज जनजाति रहती थी, जिसे 'हाली पद्धति' के अन्तर्गत उच्च जातियों के यहाँ पुश्तैनी मजदूर के रूप में कार्य करना होता था। गाँधी जी की सलाह पर बारदोली के कार्यकताओं ने कालिपराजों का सम्मेलन आयोजन होता था। 1927 ई. के इस सम्मेलन की अध्यक्षता गाँधी जी ने की तथा 1927 ई. में ही कालिपराजों के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कालिपराओं को रानीपराज (बनवासी) की उपाधि दी। कांग्रेस ने अपने विरोध द्वारा लगान में की गयी 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को अनुचित सिद्ध किया। बड़े पैमाने पर इसका विरोध हुआ। अन्त में 1927 ई. में सरकार ने इसे घटाकर 21.9 प्रतिशत करने की घोषण की।

4 फ़रवरी, 1928 ई. को वल्लभ भाई पटेल ने बारदोली किसान सत्याग्रह का नेतृत्व संभाला। सर्वप्रथम बढ़ी हुई लगान के विरुद्ध सरकार को पत्र लिखा गया, किन्तु सरकार द्वारा कुछ सकारात्मक उत्तर नहीं मिला। परिणामस्वरूप पटेल ने किसानों को संगठित किया तथा उन्हें लगान न अदा करने के लिए कहा। दूसरी तरफ़ कांग्रेस के नरमपंथी गुट ने 'सर्वेण्ट्स ऑफ़ इण्डिया सोसाइटी' के माध्यम से सरकार द्वारा किसानों की माँग की जाँच करवाने का अनुरोध किया। 'बारदोली सत्याग्रह' नाम से एक दैनिक पत्रिका निकाली गयी। बम्बई विधान परिषद के भारतीय नेताओं ने त्यागपत्र दे दिया। ब्रिटेन की संसद में भी बहस हुई। वायसराय लॉर्ड इरविन ने भी बम्बई के गर्वनर विल्सन को मामले को शीघ्र निपटाने का निर्देश दिया। उधर पटेल की गिरफ्तारी की सम्भावना को देखते हुए वैकल्पिक नेतृत्व के लिए 2 अगस्त, 1928 ई. को गाँधी जी बारदोली पहुँचे। महिलाओं ने भी इस आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें बम्बई की पारसी महिला मीठूबेन पेंटिट, भक्तिवा, मनीबेन पटेल, सुपुत्री शारदाबेन शाह और शादराशाह के नाम उल्लेखनीय हैं। पटेल से बारदोली के लोग प्रभावित हुए। इसी सत्याग्रह के दौरान पटेल को वहाँ की औरतों ने सरदार की उपाधि प्रदान की थी। सरकार ने ब्रूम फ़ील्ड और मैक्सवेल को बारदोली मामलें की जाँच करने का आदेश दिया। जाँच रिपोर्ट में बढ़ी हुई 30 प्रतिशत लगान को अवैध घोषित किया गया। अतः सरकार ने लगान घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। इस प्रकार सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली किसान आन्दोलन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। गाँधी जी ने इस सफलता पर कहा कि, "बारदोली संघर्ष चाहे जो कुछ भी हो, यह स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं हैं, लेकिन इस तरह का हर संघर्ष हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुँचा रही है"।

तेलंगाना का किसान आन्दोलन (1946-195 ई.)

हैदराबाद रियासत में तेलंगाना में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह आन्दोलन शुरू हुआ। यहाँ पर किसानों से कम दाम पर अनाज की ज़बरन वसूली की जा रही थी, जिसके कारण उनके अन्दर एक आक्रोश उत्पन्न हुआ। इस आन्दोलन का तात्कालिक कारण 'कम्युनिस्ट नेता' कमरैया की पुलिस द्वारा हत्या कर देना था। किसानों ने पुलिस व ज़मींदारों पर हमला कर दिया तथा हैदराबाद रियासत को समाप्त कर भारत का अंग बनाने माँग की। तेलंगाना कृषक आन्दोलन भारतीय इतिहास के सबसे लम्बे छापामार कृषक युद्ध का साक्षी बना।


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