"आत्मा -वैशेषिक दर्शन": अवतरणों में अंतर
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*महर्षि [[कणाद]] ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया। | |||
*सूत्रकार कणाद ने आत्मा के द्रव्यत्व का विश्लेषण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक लिंगों से आत्मा का अनुमान होता है। ज्ञान आदि गुणों का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है और किसी अवान्तर (अपर सामान्य) द्रव्य का आरम्भक न होने के कारण नित्य है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आदि के समान ज्ञान भी एक गुण है। उसका भी आश्रय कोई द्रव्य होना चाहिए। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य ज्ञान के आश्रय नहीं है। अत: परिशेषानुमान से जो द्रव्य ज्ञान का आश्रय है, उसको आत्मा कहा जाता है। | *सूत्रकार कणाद ने आत्मा के द्रव्यत्व का विश्लेषण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक लिंगों से आत्मा का अनुमान होता है। ज्ञान आदि गुणों का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है और किसी अवान्तर (अपर सामान्य) द्रव्य का आरम्भक न होने के कारण नित्य है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आदि के समान ज्ञान भी एक गुण है। उसका भी आश्रय कोई द्रव्य होना चाहिए। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य ज्ञान के आश्रय नहीं है। अत: परिशेषानुमान से जो द्रव्य ज्ञान का आश्रय है, उसको आत्मा कहा जाता है। | ||
*कणाद ने यह भी कहा कि– ज्ञानादि के आश्रयभूत द्रव्य की आत्मसंज्ञा [[वेद]] विहित है। इस वेद विहित आत्मा का अन्य आठ द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। 'अहम्' शब्द का आत्मवाचित्व सुप्रसिद्ध है। 'मैं देवदत्त हूँ' ऐसे वाक्यों में शरीर में अहम की प्रतीति उपचारवश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अपितु अनेक हैं, नाना हैं।<ref>वै.सू. 2.2.4-21</ref> | *कणाद ने यह भी कहा कि– ज्ञानादि के आश्रयभूत द्रव्य की आत्मसंज्ञा [[वेद]] विहित है। इस वेद विहित आत्मा का अन्य आठ द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। 'अहम्' शब्द का आत्मवाचित्व सुप्रसिद्ध है। 'मैं देवदत्त हूँ' ऐसे वाक्यों में शरीर में अहम की प्रतीति उपचारवश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अपितु अनेक हैं, नाना हैं।<ref>वै.सू. 2.2.4-21</ref> | ||
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*अन्नंभट्ट ने वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए यह बताया कि ज्ञान का जो अधिकरण है, वह आत्मा है। वह दो प्रकार का है, जीवात्मा और परमात्मा। परमात्मा एक है और जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न होने के कारण अनेक है।<ref>ज्ञानाधिकरणमात्मा, त. सं.</ref> इस संदर्भ में उद्योतकर का यह कथन भी स्मरणीय है कि परमात्मा नित्य ज्ञान का अधिकरण है जबकि जीवात्मा अनित्य ज्ञान का। | *अन्नंभट्ट ने वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए यह बताया कि ज्ञान का जो अधिकरण है, वह आत्मा है। वह दो प्रकार का है, जीवात्मा और परमात्मा। परमात्मा एक है और जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न होने के कारण अनेक है।<ref>ज्ञानाधिकरणमात्मा, त. सं.</ref> इस संदर्भ में उद्योतकर का यह कथन भी स्मरणीय है कि परमात्मा नित्य ज्ञान का अधिकरण है जबकि जीवात्मा अनित्य ज्ञान का। | ||
*श्रीधर ने भी यह बताया है कि जीवात्मा शरीरधारी होता है जबकि परमात्मा कभी भी शरीर धारण नहीं करता।<ref>न्या. क. पृ. 139</ref> | *श्रीधर ने भी यह बताया है कि जीवात्मा शरीरधारी होता है जबकि परमात्मा कभी भी शरीर धारण नहीं करता।<ref>न्या. क. पृ. 139</ref> | ||
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09:42, 19 अगस्त 2011 का अवतरण
- महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
- सूत्रकार कणाद ने आत्मा के द्रव्यत्व का विश्लेषण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक लिंगों से आत्मा का अनुमान होता है। ज्ञान आदि गुणों का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है और किसी अवान्तर (अपर सामान्य) द्रव्य का आरम्भक न होने के कारण नित्य है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आदि के समान ज्ञान भी एक गुण है। उसका भी आश्रय कोई द्रव्य होना चाहिए। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य ज्ञान के आश्रय नहीं है। अत: परिशेषानुमान से जो द्रव्य ज्ञान का आश्रय है, उसको आत्मा कहा जाता है।
- कणाद ने यह भी कहा कि– ज्ञानादि के आश्रयभूत द्रव्य की आत्मसंज्ञा वेद विहित है। इस वेद विहित आत्मा का अन्य आठ द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। 'अहम्' शब्द का आत्मवाचित्व सुप्रसिद्ध है। 'मैं देवदत्त हूँ' ऐसे वाक्यों में शरीर में अहम की प्रतीति उपचारवश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अपितु अनेक हैं, नाना हैं।[1]
- प्रशस्तपाद ने भी सूत्रकार का अनुवर्तन करते हुए प्रकारान्तर से यह कहा कि सूक्ष्म होने के कारण आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु 'जैसे बसूला आदि करणों (हथियारों) को कोई बढ़ई चलाता है, वैसे ही श्रोत्र आदि करणों (इन्द्रियों) को चलाने वाला भी कोई होगा'- इस प्रकार से करण प्रयोजक के रूप में आत्मा का अनुमान किया जाता हैं प्रशस्तपाद ने कई अन्य उदाहरणों के द्वारा भी यह बताया कि प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि का प्रेरक भी कोइर चेतन ही हो सकता है। वही आत्मा है। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक गुणों से भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। पृथ्वी, शरीर, इन्द्रिय आदि के साथ अहं प्रत्यय का योग नहीं होता। वह केवल आत्मा के साथ होता है। प्रशस्तपाद ने आत्मा में बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व संयोग और विभाग इन चौदह गुणों का उल्लेख करते हुए यह भी कहा कि इनमें बुद्धि से लेकर संस्कार पर्यन्त प्रथम आठ आत्मा के विशेष गुण हैं और संख्याआदि शेष छ: सामान्य गुण। विशेष गुण अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते, जबकि सामान्य अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं।[2]
- कणाद और प्रशस्तपाद के कथनों का शंकर मिश्र प्रभृति कतिपय उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने कुछ भिन्न आशय ग्रहण किया और यह कहा कि आत्म् का मानस प्रत्यक्ष होता है। मैं हूँ- यह ज्ञान, मानसप्रत्यक्ष है, न कि अनुमानजन्य। कणाद के एक अन्य कथन को स्पष्ट करते हुए शंकर मिश्र ने यह भी बताया कि जिस प्रकार वायु के परमाणुओं में अवयवों के विषय में कोई प्रमाण न होने से वे नित्य माने जाते हैं, वैसे ही आत्मा के अवयव मानने में कोई प्रमाण न होने के कारण आत्मा नित्य है तथा अनादि का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है।[3]
- वेदान्त आदि में ज्ञान को आत्मा का स्वरूप माना जाता है, किन्तु वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है।
- न्यायमंजरी में जयन्त ने भी यह कहा कि स्वरूपत: आत्मा जड़ या अचेतन है। इन्द्रिय और विषय का मन के साथ संयोग होने से आत्मा में चैतन्य उत्पन्न होता है।[4] आत्मा विभु है। वह न तो अणुपरिमाण है, न मध्यमपरिमाण।
- अन्नंभट्ट ने वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए यह बताया कि ज्ञान का जो अधिकरण है, वह आत्मा है। वह दो प्रकार का है, जीवात्मा और परमात्मा। परमात्मा एक है और जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न होने के कारण अनेक है।[5] इस संदर्भ में उद्योतकर का यह कथन भी स्मरणीय है कि परमात्मा नित्य ज्ञान का अधिकरण है जबकि जीवात्मा अनित्य ज्ञान का।
- श्रीधर ने भी यह बताया है कि जीवात्मा शरीरधारी होता है जबकि परमात्मा कभी भी शरीर धारण नहीं करता।[6]
इन्हें भी देखें: वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा एवं कणाद
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