"रसखान का वात्सल्य रस": अवतरणों में अंतर

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[[हिन्दी]] [[साहित्य]] में [[कृष्ण]] भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में [[रसखान]] का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।
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पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है।  
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काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।<ref>सुजान रसखान, 21</ref> यहाँ बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।<ref>सुजान रसखान, 21</ref> यहाँ बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।


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13:27, 22 अगस्त 2011 का अवतरण

हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं।

रसखान के दोहे, महावन, मथुरा

पितृ भक्ति के समान ही पुत्र के प्रति माता-पिता की अनुरक्ति या उनका स्नेह एक अवस्था उत्पन्न करता है, जिसे विद्वानों ने वात्सल्य रस माना है।

  • पण्डित विश्वनाथ ने वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह माना है। पुत्रादि संतान इसके आलंबन हैं। उनकी चेष्टाएं उनकी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यादि उद्दीपन हैं और आलिंगन, स्पर्श, चुंबन, एकटक उसे देखना, पुत्रकादि अनुभाव तथा अनिष्ट-शंका, हर्ष, गर्व आदि उसके संचारी हैं। प्रस्फट चमत्कार के कारण वह इसे स्वतन्त्र रस मानते हैं। इसका वर्णन पद्मगर्भ छवि के समान तथा इसके देवता गौरी आदि षोडश मातृ चक्र हैं। यद्यपि रसखान ने सूरदास की भांति वात्सल्य रस सम्बन्धी अनेक पदों की रचना नहीं की तथापि उनका अल्पवर्णन ही मर्मस्पर्शी तथा रमणीय है। उन्होंने निम्नांकित पर में कृष्ण के छौने स्वरूप के दर्शन कराये हैं।

आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नन्द के भौनहिं।
वाको जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौहँ बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौं चुचकारत छौनहिं।[1] यहाँ स्थायी भाव वात्सलता है। बाल कृष्ण आलम्बन हैं। उनका सुंदर स्वरूप उद्दीपन है। निहारना, वारना, चुचकारना अनुभाव हैं। हर्ष संचारी भाव है। सबके द्वारा रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनीं सिर सुंदर चोटी।
खेलत खात फिरैं अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछौटी।
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ सौं लै गयौ माखन रोटी।[2] यहाँ बाल कृष्ण आलम्बन हैं, उनकी चेष्टाएं खेलते खाते फिरना उद्दीपन हैं। हर्ष संचारी भाव, वात्सल्यपूर्ण-स्नेह स्थायीभाव द्वारा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है। यहाँ एक गोपी अपनी सखी से कृष्ण की बाल शोभा का वर्णन करती है तथा कौवे के उनके हाथ से रोटी ले जाते हुए देखकर उसके भाग्य की सराहना करती है। हरि शब्द के प्रयोग से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि इस पद्य में वात्सल्य का निरूपण भक्ति-रस से पूर्ण हैं। रसखान के काव्य में वात्सल्य रस के केवल दो ही उदाहरण मिलते हैं। यद्यपि उन्होंने भक्तिकालीन अन्य कवियों की भांति वात्सल्य रस के अनेक पद्य नहीं लिखे, किन्तु दो पद्यों में उनकी कुशल कला की मनोरम व्यंजना हुई है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुजान रसखान, 20
  2. सुजान रसखान, 21

बाहरी कड़ियाँ

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