"बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2 ब्राह्मण-3": अवतरणों में अंतर
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*जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है। | *जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है। |
07:19, 5 सितम्बर 2011 का अवतरण
- बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय प्रथम का यह तीसरा ब्राह्मण है।
- इस ब्राह्मण में 'ब्रह्म' कें दो रूपों-'मूर्तय और 'अमूर्त,' अर्थात 'व्यक्त' और 'अव्यक्त' स्वरूपों का वर्णन किया गया है।
- जो मूर्त या व्यक्त है, वह स्थिर, जड़ और नाशवान है, मारणधर्मा है, किन्तु जो अमूर्त या अव्यक्त है, वह सूक्ष्म, अविनाशी और सतत गतिशील है।
- आदित्य मण्डल में जो विशिष्ट तेजस्-स्वरूप पुरुष है, वह अमर्त्य और अव्यक्त भूतों का सार-रूप है।
- वायु और अन्तरिक्ष भी अव्यक्त और अमर्त्य हैं।
- वे निरन्तर गतिशील हैं।
- मानव-शरीर में आकाश और प्राणतत्त्व से भिन्न जो पृथ्वी, जल, अग्नि का अंश विद्यमान है, वह मूर्त और मरणधर्मा है।
- नेत्र इस सत् का सार-रूप है।
- 'ब्रह्म' के लिए सर्वोत्तम उपदेश 'नेति-नेति' है, अर्थात उस परब्रह्म के यथार्थ रूप को पूर्ण रूप से कोई भी आज तक नहीं जान सका।
- उसे 'सत्य' नाम से जाना जाता हैं यह प्राण ही निश्चय रूप से 'सत्य' है और वही 'ब्रह्म' का सूक्ष्म रूप हैं इसी में समस्त ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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