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|+ शाहबाजगढ़ी
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| 1.
| अयं ध्रमदिपि देवन प्रिअस रञे लिखापितु [।] हिद नो किचि जिवे अर [भि] तु प्रयुहोतवे [नो पि च समज कटव [।] बहुक हि दोषं सम [ज] स देवन प्रियो प्रिअद्रशि रय देखति [।]
| यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई जीव मार कर होम न करना चाहिए।
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| 2.
| अस्ति पि च एकतिए समये सधुमति देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञे [।] पुर महनसिस देवनं प्रिअस प्रिअद्रशिस रञों अनुदिवसों बहुनि प्रणशतसहस्त्रनि अरभियिसु सुपठये [।] सो इदिन यद अयं 
| किंतु देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा से अच्छे (श्रेष्ठ) माने गये कतिपय समाज भी है। पहले देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के महानस (पाकशाला में प्रतिदिन बहुत लाख प्राणी सूप (शोरवे, भोजन) के लिए मारे जाते थे। आज जब 
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| 3.
| ध्रमदिपि लिखित तद त्रयो वो प्रण हञंति मजुर दुवि 2 म्रुगो 1 [।] सो पि म्रगो नो ध्रुवं [।] एत पि प्रण त्रयो पच न अरभिशंति [।]
| यह धर्मलिपि लिखी गयी, तब तीन ही प्राणी सूप (शोरवे, भजन) के लिए मारे जाते हैं-दो मोर (और) एक मृग और वह मृग भी ध्रुव (नियत, निश्चित) नहीं है। और ये तीन प्राणी भी पीछे न मारे जाएँगे।
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12:57, 6 सितम्बर 2011 का अवतरण

कलिंग शिलाअभिलेख

जौगड़
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा

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शाहबाजगढ़ी
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. अयं ध्रमदिपि देवन प्रिअस रञे लिखापितु [।] हिद नो किचि जिवे अर [भि] तु प्रयुहोतवे [नो पि च समज कटव [।] बहुक हि दोषं सम [ज] स देवन प्रियो प्रिअद्रशि रय देखति [।] यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी। यहाँ कोई जीव मार कर होम न करना चाहिए।
2. अस्ति पि च एकतिए समये सधुमति देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञे [।] पुर महनसिस देवनं प्रिअस प्रिअद्रशिस रञों अनुदिवसों बहुनि प्रणशतसहस्त्रनि अरभियिसु सुपठये [।] सो इदिन यद अयं किंतु देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा से अच्छे (श्रेष्ठ) माने गये कतिपय समाज भी है। पहले देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के महानस (पाकशाला में प्रतिदिन बहुत लाख प्राणी सूप (शोरवे, भोजन) के लिए मारे जाते थे। आज जब
3. ध्रमदिपि लिखित तद त्रयो वो प्रण हञंति मजुर दुवि 2 म्रुगो 1 [।] सो पि म्रगो नो ध्रुवं [।] एत पि प्रण त्रयो पच न अरभिशंति [।] यह धर्मलिपि लिखी गयी, तब तीन ही प्राणी सूप (शोरवे, भजन) के लिए मारे जाते हैं-दो मोर (और) एक मृग और वह मृग भी ध्रुव (नियत, निश्चित) नहीं है। और ये तीन प्राणी भी पीछे न मारे जाएँगे।