"सदस्य:गोविन्द राम/sandbox4": अवतरणों में अंतर
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| 1. | | 1. | ||
| | | सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो | ||
| | | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा | ||
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| 2. | | 2. | ||
| | | एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब- | ||
| | | • ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और) | ||
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| 3. | | 3. | ||
| | | पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं | ||
| | | अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र | ||
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| 4. | |||
| राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता | |||
| देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई- | |||
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| 5. | |||
| मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च। | |||
| मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और | |||
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| 6. | |||
| पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | |||
| पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं। | |||
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| 7. | |||
| मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | |||
| इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये। | |||
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| 8. | |||
| पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] | |||
| मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये। | |||
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15:12, 6 सितम्बर 2011 का अवतरण
कलिंग शिलाअभिलेख
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन | देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा |
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क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा |
2. | एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब- | • ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और) |
3. | पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं | अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र |
4. | राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई- |
5. | मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च। | मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और |
6. | पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं। |
7. | मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] | इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये। |
8. | पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] | मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये। |