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==चतुर्दश शिलालेख==
==चतुर्दश शिलालेख==
गिरनार का द्वितीय शिलालेख  
*गिरनार का द्वितीय शिलालेख  
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|+ गिरनार
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| पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।]
| पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।]
| मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।
| मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।
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*गिरनार का तृतीय शिलालेख
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|+ गिरनार
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! क्रमांक
! शिलालेख
! अनुवाद
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| 1.
| देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।]
| देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी-
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| 2.
| सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं-
| मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही
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| 3.
| यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा-
| इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें]
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| 4.
| य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण-
| माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और]
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| 5.
| समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।]
| श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है।
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| 6.
| परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।]
| परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी।
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12:02, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण

कलिंग शिलाअभिलेख

जौगड़
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा

चतुर्दश शिलालेख

  • गिरनार का द्वितीय शिलालेख
गिरनार
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा
2. एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब- ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और)
3. पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र
4. राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई-
5. मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च। मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और
6. पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं।
7. मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये।
8. पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।



  • गिरनार का तृतीय शिलालेख
गिरनार
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।] देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी-
2. सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं- मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही
3. यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा- इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें]
4. य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण- माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और]
5. समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।] श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है।
6. परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।] परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी।